आदरणीय साथिओ,
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बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब मुज़फ़्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी साहिब।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, विचारों की सूंदर भावाभिव्यक्ति समेटे हुए अच्छी लघुकथा हुई है। बधाई स्वीकार करें।
मेरी इस प्रविष्टि पर समय देकर हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरमा नीलम उपाध्याय साहिबा।
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, एक बढ़िया पत्रात्मक शैली की लघुकथा से आयोजन के शुभारम्भ हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. //'छुईमुई' होने और 'तमाशा' हो जाने के बीच बहुत ही बारीक़ किंतु मज़बूत डोर है// बिलकुल सही कहा आपने. अन्धानुकरण किसी भी चीज़ का हो वह ख़तरनाक होता है. कुछ बातों की तरफ़ आपका ध्यानाकर्षित कराना चाहूँगा :
1. असरात और प्रत्युत्पन्नमति? क्या एक ही वक्ता के मुँह से दोनों वाक्यों का प्रयोग उचित है? देखिएगा.
2. सिद्दत = शिद्दत, सांझा = साझा
3. //रैगिंग या प्रैंकिंग या मज़ाक// मुझे लगता है यहाँ पर सिर्फ़ "मज़ाक" का प्रयोग ही पर्याप्त है.
4. शीर्षक बढ़िया है लेकिन आपकी कथा के साथ न्याय नहीं कर रहा है क्योंकि आपकी लघुकथा का मूल स्वर गंभीर है. विचार कीजिएगा.
सादर.
आदाब। बेहतरीन टिप्पणी के साथ मेरी हौसला अफ़ज़ाई और बिंदुवार इस्लाह हेतु हार्दिक आभार आदरणीय महेंद्र कुमार साहिब।
1- अधेड़ शिक्षित सेलिब्रिटीज एक ही वाक्य में हिंदी, उर्दू , अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करते पाए गए हैं। "अंग्रेज़ी शब्दों से बचने के लिए 'प्रत्युत्पन्नमति' शब्द का इस्तेमाल किया है। 2-'साझा' ही लिखा करता था, फिर कहीं कहा गया कि सही शब्द 'सांझा' है, तो इस तरह लिखने लगा। जैसे टीवी धारावाहिक में 'सांझा चूल्हा'! 'शिद्दत' हेतु भ्रम था, नेट से सही पता नहीं कर पाया था। 3- //रैगिंग या प्रैंकिंग या मज़ाक// मज़ाक के इन तीनों विधाओं के वर्तमान स्वरूपों में बड़ा ही गंभीर अंतर है। इसीलिए जानबूझ उन्हें हाइलाइट करने के लिए ऐसा लिखा है पात्र के साथ विभिन्न हरेशमंट को उभारने के लिए। केवल मज़ाक से हरेशमंट नहीं भी हो सकता है। मज़ाक से स्वस्थ्य मनोरंजन भी होता है, लेकिन रैगिंग या प्रैंकिंग से डिप्रेशन/आत्महत्याएं तक हो सकती हैं, किसी तरह की क्षति भी हो सकती है।
3- शीर्षक ही मेरी नज़र में हिट फ़िल्मी गीत के आशावादी गंभीर भावों और पात्र की मनोदशा से सामंजस्य रखते हुए रखा गया है। अन्य विकल्पों में से मैंने इसे ही चुना था। #MeToo के मीडियापा वाले "देख तमाशा" और नकारात्मकता में 'जागी आशा' के साथ सकारात्मकता का संदेश सम्प्रेषित करने के लिए पाठकगण को अंतिम पंक्तियों द्वारा वह हिट नग़मा सुनने और वीडियो देखने के लिए प्रेरित करते हुए उस गीत के संदेश के साथ पात्र के डायरी लेखन के भाव व परिदृश्य के संदेश को जोड़ने की यहां कोशिश की गई है।
चूंकि एक अधेड़ शिक्षित सेलिब्रिटी अविवाहिता का आत्मकथ्यात्मक भावपूर्ण प्रवाहमय डायरी लेखन है, अतः उलझनों में फंसी बातें उलझाव भले लग रही हैं, लेकिन ग़ौर करियेगा, बहुत ही कड़वा सच मशहूर गीत के भावों व शीर्षक सहित बयान करने की कोशिश की थी। आपके सुझाव पर भी ग़ौर करूंगा। सादर।
लड़की हो या औरत; उसके 'छुईमुई' होने और 'तमाशा' हो जाने के बीच बहुत ही बारीक़ किंतु मज़बूत डोर है // स्वयं से संवाद और कश्मकश का अच्छा चित्रण है हार्दिक बधाई आदरणीय उस्मानी जी थोड़ा सरल और कम उलझाव लिए हो सकती थी कथा
मेरी इस प्रविष्टि पर समय देकर अपनी राय से वाक़िफ़ कराते हुए मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरमा प्रतिभा पाण्डेय साहिबा। चूंकि एक अधेड़ अविवाहिता का आत्मकथ्यात्मक भावपूर्ण प्रवाहमय डायरी लेखन है, अतः उलझनों में फंसी बातें उलझाव भले लग रही हैं, लेकिन ग़ौर करियेगा, बहुत ही कड़वा सच मशहूर गीत के भावों व शीर्षक सहित बयान करने की कोशिश की थी। आपके सुझाव पर भी ग़ौर करूंगा। सादर।
आदरनीय Sheikh Shahzad Usmani जी, बहुत ही सुंदर लघु कथा के लिए बधाई
मेरी इस प्रविष्टि पर समय देकर मेरी यूं हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरमा मोहन बेगोवाल साहिब।
लघुकथा—आजकल
श्रेया दो बार बाहर जा कर वापस आई. फिर मोबाइल चलाती हुई मम्मी से बोली, '' मम्मी ! सुनिए ना ?''
' बेटा ! पापा से बोलो. मुझे जरूरी काम है.''
श्रेया पापा के पास गई तो पापा ने भी मोबाइल चलाते हुए जवाब दिया, '' बेटा ! मम्मी से कहो. मैं जरूरी काम कर रहा हूं.''
श्रेया फिर बाहर जा कर वापस आई.
'' मम्मी !'' वह अपना पेट दबाते हुए धीरे से बोली, '' सुनिए ना !''
'' बेटा दादी होगी. उन से कहो ना.'' मम्मी ने मोबाइल में देखते हुए कहा.
तब तक दादी दूध ले कर आ चुकी थी, '' क्या हुआ बेटा ! मुझे कहो ?''
'' क्या कहूं दादी. शौचालय में कुत्ता बैठा हुआ था.'' कहते हुए वह अपने कपड़े और फर्श की ओर देख कर रो पड़ी.
दादी ने देखा कि बहूबेटे मोबाइल पर और श्रेया फर्श पर अपना आवेग फैला चुकी थी. इसलिए दादी कभी बहूबेटे को देख रही थी तो कभी रोती हुई श्रेया को. दोनों बहूबेटे एकदूसरे को देख कर नजर चुरा रहे थे.
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(मौलिक व अप्रकाशित)
वाकई में मोबाइल प्रेम में हम दीवानगी की हद लांघ गए हैं बढिया प्रश्न उठाया आपने अपनी कथा के माध्यम से।हार्दिक बधाई आपको आ. ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी सही कहा आप ने. हम कई बार मोबाइल में इतने व्यस्त होते हैं कि हमारे कई आवश्यक कार्य छूट जाते हैं. बाद में अचानक मालूम पड़ता हैं कि हमारा यह कार्य तो करने से रह गया.
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