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अच्छी लघुकथा हुई है, अनायास ही कई तरह की राय बनते बिगड़ते हैं, बधाई स्वीकार करें आदरणीय ओमप्रकाश जी.
आप सही है.
कथा शुरू में अस्पष्ट थी. सुधार कर दिया गया है.
आदरणीय ओम प्रकाश जी, हार्दिक बधाई! आपकी लघुकथायें मुझे सदैव ही व्यक्तिगत रूप से पसंद आती हैं ,कारण तो पता नहीं!पुनः बधाई!
आभार आप का आ तेज वीर सिंह जी , आप को मेरी लघुकथा पसंद आई .
लघुकथा – बुनियादी संस्कार
“पासपोर्ट की जाँच करवाने गया है. थोड़ी देर में अमेरिका रवाना हो जाएंगे. मगर यूं तक नहीं कहा है कि मैंने अपने हिस्से का मकान बेच दिया है.” पत्नी ने देवर पर चिढ़ते हुए कहा.
“अरे तू जाने दे. उस के हिस्से का मकान ही तो बचा था. हमारे हिस्से का मकान तो हम पहले ही बेच चुके है.”
“वह मकान पिताजी के केंसर के इलाज के लिए बेचा था. वे उस के भी पिताजी है.”
“तो क्या हुआ ?”
“लोग सही कहते है, विदेशों में जा कर लोग अपने मातापिता और अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं .”
“हो सकता है. तेरी बात सही हो. या उस की कोई मजबूरी रही हो. देख. वो आ रहा है. चुप हो जा.”
उस ने आते ही दोनों के चरण स्पर्श किए और कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए कहा-.
“ मैं जा रहा हूँ. आप मुझे याद करते रहिएगा और मैं आप को. और हाँ. आप यहाँ आनंद से रहिएगा और मैं वहां .ये दलाल का नाम पता और नम्बर है , उसका फोन आयेगा तो दस्तखत के लिए चल दीजियेगा . फिर वो मकान की रजिस्ट्री खुद पहुँचा देगा. ”
उसे जाते हुए देखकर पत्नी ने पति से कहा - "मकान दिखाते समय इसने दलाल से कहा था कि मकान की रजिस्ट्री कर के मकान मालिक को दे देना .”
(मौलिक और अप्रकाशित )
बुनियाद
रात को अचानक मुनव्वर चाचा का फोन आया
"बेटा ,कुछ गुंडे इन दिनों परेशान कर रहे हैं Iकहते हैं मकान उन्हें बेच दूं ,और मैं दूसरे मौहल्ले में चला जाऊं ,नहीं तो गैरकानूनी हथियार रखने के जुर्म में फंसा देंगे और ......."उनकी आवाज़ भर्रा गई थी
"हाँ,चाचा देखो... " कट गया फोन
मुन्नवर चाचा उसके पिता के जिगरी दोस्त थे I ऐसी दोस्ती जिसमे मजहब का कोई दखल नहीं था I उसे लगा ,दीवार में लगी पिता की तस्वीर उसे गहरी आँखों से देख रही है और कह रही है 'बेटा मेरी बात याद है ना ? जिसके चरित्र की नींव में ईमानदारी और सच्चाई की पुख्ता ईंटें लगी होती हैं वो निर्भय होता है ,जा खड़ा हो जा अपने चाचा के साथ '
वो चाचा को फोन लगाने लगा
"चाचा आप बिल्कुल ना डरें, मै बस पहुँच रहा हूँ "
पिताजी की आँखें अब आशवस्त दिख रही थीं
"पापा ,आप क्यों इन लोगों के पचड़े में पड़ रहे हैं ? माहौल वैसे ही ठीक नहीं है आजकल " बेटा पीछे खड़ा था.
तेज़ी से निकलते हुए वो बुदबुदाया " इसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई "?
.
मौलिक व् अप्रकाशित
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार आ० कांता रॉय जी
बहुत सुंदर !! हार्दिक बधाई स्वीकारे आ. प्रतिभा जी | सादर
आपको कथा अच्छी लगी , आपका आभार आ० सुधीर जी
बहुत ही सुन्दर लघुकथा । बधाई ।
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