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रचना के मूल भाव को समझने व सराहने के लिए तहे दिल से शुक्रिया आ. अर्चना जी।
वाह्ह्ह्ह अनैतिक ही नैतिकता की बात करते हैं .भ्रष्टाचार को केन्द्रित कर लिखा गया कथानक उसपर अंतिम पञ्च लाइन बहुत कुछ कह जाती है |अच्छी सफल लघु कथा हेतु दिल से बधाई लीजिये आ० नीरज शर्मा जी
आपकी सुन्दर टिप्पणी ने मेरी हौसला अफज़ाई की , उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया आ. राजेश कुमारी जी।
बहुत बहुत आभार आ. वीर मेहता जी रचना सराहने के लिए
आदरणीया नीरज शर्माजी, आपकी यह प्रस्तुति अपने उद्येश्य में सफल है. यह सबको मालूम है कि मृत्यु प्रमाण पत्र बहुत कुछ की दरकार नहीं करता. लेकिन यदि अडंगा लगाने वाला चाहे तो कई तर्क गढ़ सकता है. यही वो तर्क होते हैं जो पारदर्शिता को धुंधला कर भ्रष्ट आचरण के फलने-फूलना का वातावरण भी तैयार कर डालते हैं.
सही है, चोरों में व्यवहार और ’दायित्वबोध’ के प्रति जैसी ’नैतिकता’ हुआ करती है, वह साधु प्रकृति के लोगों में अकसर नहीं दिखती. भ्रष्ट आचार के परवेसिव होने का मुख्य कारण भी यही है.
इस प्रस्तुति हेतु शुभकामनाएँ और बधाइयाँ.
सादर
आपका तहेदिल से शुक्रिया आ. सौरभ जी रचना का मर्म बखूबी समझने के लिए।
रिश्वत खोर के मुहं से नैतिकता के शुब्द कई बार सुनने को मिलते है | "खायेंगे तो बजायेंगे जरूर, इतनी नैतिकता तो हम भी रखते है" यह जूमला सूना जाता रहा है | ये नैतिकता की वर्तमान स्थिति है - विशेषकर रेलवे,या निर्मांग विभाग में जहां ठेकेदारों से काम के बदले रिश्वत को कमीशन या सुविधा शुल्क माना जाता है |
बहुत बहुत आभार आ. लक्ष्मक्ण जी।
अनैतिकता में नैतिकता तलाशती अच्छी लघुकथा हुई है, बधाई आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी.
ये 'सुविधा शुल्क 'बड़ा ही चर्चित शब्द बन गया है आजकल ,बहुत सार्थक कथा बनी है ,बधाई आपको आ० नीरज जी
लघुकथा- परिभाषाऍ
“ नेताजी ! यह समझ में नहीं आया. आप दिन में इन्हीं नेताजी को जनता के सामने जम कर कोस रहे थे और अभी इन की लड़की की शादी में ?”
“ बढ़चढ़ कर हिस्से ले रहे हैं. यही ना, “ नेताजी मुस्काए, “ भाई वे राजनीति मतभेद थे. यहाँ सामाजिक समानता का मामला है. इसलिए हम दोनों जगह सही हैं . एक जगह पार्टी के साथ न्याय कर रहे थे. दूसरी जगह सामाजिक समरसता व भाईचारा निभा रहे थे.”
“ मगर उस दिन आप ने उस छुट भैया नेताजी की सुपारी दी थी. वह आप का कौन सा न्याय सिद्धांत था ?”
“ मेरे शर्गिर्द ! मेरे साथ रहोगे तो सब राजनीति सीख जाओगे. वह हमारा मत्स्य न्याय सिद्धांत था. बड़ी मछली हमेशा..” कहते हुए नेताजी मुस्काए.
“ आप ने अपने आका. यानि उन नेताजी को ..”
“ धोखे से मरवा दिया था. यह हमारा बगुला न्याय था,” कहते हुए नेताजी कुटिल मुस्कान बिखेरने लगे.
“ वाह नेताजी ! आप धन्य है. मगर एक बात और बताइए , आप विधानसभा में सब से ज्यादा क्रोधित दिख रहे थे. वहां आप ने जम कर कुर्सियां फेंकी थी. लोकतंत्र के मंदिर में यह सब. यह समझ में नहीं आया आदरणीय नेताजी ? ”
“ यह भी सही था मेरे शर्गिर्द . प्रजातंत्र में यही विरोध का तरीका है. यह भी जंगलन्याय है. हम सब यही न्याय सिद्धांत का पालन करते हैं .” सुनते ही शर्गिर्द नेताजी के पाँव में गिर गया, “ धन्य हैं नेताजी आप और आप का न्याय सिद्धांत. जो चारों और फ़ैल रहा हैं. ”
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२८/०८/२०१५
(मौलिक व अप्रकाशित )
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