(आचार्य श्री संजीव "सलिल" जी) (१) (२) ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इसमें बसी है खुशबू जिगर के उफान की..
*
महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश.
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..
*
उनको है फ़िक्र कलश की, हमको है नींव की.
हम रोटियों की चाह में वो पानदान की..
*
सड़कों पे दीनो-धर्म के दंगे जो कर रहे.
क्या फ़िक्र है उन्हें तनिक भी आसमान की?
*
नेता को पाठ एक सियासत ने यह दिया.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की. *
इंसान की गुहार करें 'सलिल' अनसुनी.
क्यों कर उन्हें है याद आरती-अजान की..
(३) ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की. ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की.. आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी. पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की.. हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ? दिल लगाया निशानी प्यार के निशान की.. जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने. हर बार रही बात सिर्फ अपनी आन की. हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता. यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की.. ------------------------------------------------------------- (श्री इमरान खान जी) (१) के बाइसे परवाज़, यही है जहान की, (२) नेअमत ये हमें है 'हक़े'* दो जहान की, (३) कब गुफ्तगू ग़ुलाम है आवाज़ो कान की, --------------------------------------------------------- (श्री अम्बरीष श्रीवास्तव जी) (१) पूजा हुई सदा है यहाँ बेईमान की. अन्ना को आज भूखे हुआ रोज तेरवां, पत्ता नहीं हिला जो अभी है चली हवा,
भाई जो देख आज मेरे साथ है नहीं. मेरे हुजूर आप भले मानिये नहीं, (२) कस्में जो खा रहे थे वो गीता-कुरान की, आतंकियों को देख वहाँ कांप क्यों रहे. लम्हे कहाँ है आज मेरे प्यार के लिए, भादों की रात में जो यहाँ जोर की घटा, कान्हा का जन्म आज खुशी है जहान की. जुल्मों से ‘अम्बरीष’ सभी लोग क्यों डरे, -------------------------------------------------- (श्री अरविन्द चौधरी जी) ये शायरी ज़ुबाँ है किसी बेज़ुबान की मश्शाक को जरूरत क्या तर्जुमान की ?
जिस की तमाम उम्र कटी खारज़ार में , ----------------------------------------------------------- (श्री सौरभ पांडे जी) जिसकी रही कभी नहीं आदत उड़ान की अल्फ़ाज़ खूबियाँ कहें खुद उस ज़ुबान की भोगा हुआ यथार्थ ग़र सुनाइये, सुनें सपनों भरी ज़ुबानियाँ न दिल, न जान की.. जिसके खयाल हरतरफ़ परचम बने उड़ें
वो खा रहा समाज में इज़्ज़त-ईमान की .. हर नाश से उबारता, भयमुक्त जो करे हर रामभक्त बोलता, "जै हनुमान की" ! जिनके कहे हज़ारहा बाहर निकल पड़े ऐसी जवान ताव से चाहत कमान की .. जबसे सुना कि शोर है अब इन्क़िलाब का ये सोच खुश हुआ बढ़ी कमाई दुकान की. तन्हा हुए दलान में चुपचाप सो गया ********************************************* (श्री संजय मिश्र हबीब जी) (१) संगे असास है ये रूहों ईमान की ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इश्को मुहब्बत और चैनो सुकून लिए, आतीं सदायें ज्यों मुकद्दस अज़ान की.
आया लिये जीस्त वस्ते तूफ़ान में जाए जिधर भी, रजा है कश्तिबान की.
सितारे तमाम मुस्कुराते हैं घर में, उसने तकदीर ही बदल दी मकान की.
ताकत अहिंसा की फिर से दिखा दी है, बोलो 'हबीब' सारे जय हिन्दुस्तान की. (२) आओ अब नापें हदें आसमान की. आओ यह वक़्त है लम्बे उड़ान की.
औबाश मुल्क बेच रहे हैं सुकून से, जागो, कि वास्ता है वतन के शान की.
भागे चले हैं मशालें जो हाथ लिए, जिम्मेदारी उन पर मेरे मकान की?
सारे जहां का गम खुद में समेटे सा, ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
मिटा दें अदावतें 'हबीब' आज दिल से, इतनी तो कीमत बजा है इस्कान की. ------------------------------------------------------- (श्रीमती बंदना गुप्ता जी)
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
जैसे रहन रखी हो जमीन किसान कीयूँ तो रहते हैं घर में बहुत से परिंदे बंजारों का शोर सुन हो गए खामोश (श्री मुईन शम्सी जी) |
(श्री अरुण कुमार पांडे "अभिनव" जी) परवाह नहीं करते हैं खतरों में जान की , हम नाप लेते हैं ऊँचाई आसमान की |
जंगल कटे नदी पटी बसते गए शहर , अब कर रहे हो फ़िक्र बढ़ते तापमान की |
ऐसी भरी हुंकार की सरकार हिल गयी , तुलना नहीं किसी से भी अन्ना महान की |
शादी में खेत बिकते हैं गौने में गिरवी घर , मुश्किल से विदा होती है बेटी किसान की |
सीढ़ी पे हैं भीखमंगे और तहखानों में कुछ लोग , पाली में राशि गिन रहे हैं प्राप्त दान की |
संसद में नोट के लिए बिकती हुई पीढी , नस्लों को क्या खिलायेगी रोटी ईमान की |
सिस्टम की चूल चट गयीं रिश्वत की दीमकें , हम फ़िक्र करते रह गए अपने मचान की |
दुनिया तेरे बाज़ार में आकर यही जाना , पोथी में बंध के रह गयी हर बात ज्ञान की |
हिंदी में इसे पढ़िए या उर्दू में गाइए , ये शायरी जुबां हैं किसी बेजुबान की | ------------------------------------------------------------------ (श्री सुरिंदर रत्ती जी)कीमत बहुत है एक सही कहे बयान की, ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की अम्बर से आये हैं सब महरूम टूटे दिल, बेचैन, बिखरे, नाखुश, आहट तुफान की सीरत अजीब शक्ल अजीबो ग़रीब है, कैसे ज़हीन बात करे खानदान की शम्सो-क़मर नहीं चलते साथ ना कभी, दीदार चाहे बात न कर इस जहान की सर पर कफ़न लिये बढ़ता है जवान वो, परवाह है नहीं दुश्मन की न जान की तस्कीन दे रहे सब "रत्ती" ज़माने में, बचे कुछ तो सूखे शजर दौलत किसान की -------------------------------------------------------- (श्री राकेश गुप्ता जी) (१) (अन्ना हजारे के अनशन पर) राम लीला मैदान से, बहती हुई हवा, आमद है यकीनन, एक नये तूफ़ान की......... जागो, उठो, लडो, कि तुम्हे जीतना ही है, फिजा में है गर्जना, एक नौजवान की........ लोकपाल पर जीत ये, तेरी नही मेरी नही, सरकार पर जीत ये, है जीत हिन्दुस्तान की...... (बिखरते परिवारों पर) गैरों से क्या शिकवा करूं, अपनों ने है ठगा, मेरी जां ने ही लगाई कीमत मेरी जान की......... कल तक जहाँ रहती थी, खुशियों की ही सदा, सन्नाटे में गूंजती है चीख , उस मकान की........ (मजहब के ठेकेदारों पर) मजहब, धर्म, जातियों में, बट के कल तलक, हम लूटते रहे जान, मजदूर की किसान की ........ हैं कोशिशें उनकी की हम, फिर्कों में हों बंटे, पर चल ना सकी दुकनदारी, उनकी दुकान की....... दिल चीर कर दिखाने से, हासिल कहाँ है कुछ, जो दिखी ना सच्चाई उन्हें, मेरे ब्यान की........ उनको खबर कहाँ कि, जो खामोश हो ज़बां, ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की........ (२) सर पर कफन को बांधे बढ़ता हूँ मैं मगर,
बेशक तेरे कहर से मेरी जबां बंधी है, ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की...... ---------------------------------------------------------------------- (श्री वीनस केसरी जी) बे-पर * जो, बालोपर * से, मुसल्सल * उड़ान की | कीमत लगा दी आज तेरे आसमान की |
सोच इस कदर बिखर गई है नौजवान की | सुनना पसंद ही नहीं करता सयान की |
अब बंद भी करो ये प्रथा 'बस बखान' * की | हालत जरूर सुधरेगी हिन्दोस्तान की |
अशआर कर रहे हैं इशारों में गुफ़्तगू , 'ये शाइरी जुबां है किसी बेजुबान की' |
वो दिन लदे, कि टूट बिखरते थे शान से, अब आईने भी खैर मनाते हैं जान की |
हर बात से मुकरते हैं नेता जी इस तरह, ज्यों परजुरी * भी हो गयी हो बात शान की |
जब वक्त आ गया तो इरादे बदल गए, बातें तो हमसे करते थे दुनिया - जहान की | ---------------------------------------------------- (श्री वीरेन्द्र जैन जी)परवाह ही नहीं है मेरी इस उड़ान की,
नादानियाँ हैं ये मेरे दिल के गुमान ही. जिसको झुका सकी न गरीबी भी बोझ से, ये दास्ताँ सुनो जी उसी के ईमान की.
मिल ना सके थे लफ्ज़ जिसे दूर-दूर तक ,ये शायरी जबां है उसी बेजबान की .
मरते समय भी वो उसे इतना ही कह गयी, कुछ फिक्र तो कर्रो मेरे बच्चों की जान की. परदा हटा अगर जो तू चेहरे से नाज़नी,
---------------------------------------------------खुशियाँ नज़र करूँ तुझे सारे जहान की. (श्री आलोक सीतापुरी जी)
(1) रहमत बरसनेवाली है अब आसमान की, ये शायरी जबां है किसी बेजबान की .
तेरह दिनों में अन्ना नें ऐसी उड़ान की, हिम्मत बढी है हिंद के हर नौजवान की.
दरिया की बाढ़ ऐसी कि पानी कमर तलक, इज्जत बढ़ा गयी है हमारा मकान की.
मैं मैकदा समझ के चला था उधर मगर, आवाज़ आ रही थी हरम से अज़ान की.
वो जैसे तैसे बन तो गया है अमीरे शह्र, हाँ नाक कट रही है मगर खानदान की.
आतंकवाद फैला है दुनिया में हर तरफ, बखिया उधड़ रही है मगर तालिबान की.
जिस दिल से निकलते हैं ये 'आलोक' के अशआर, ये शायरी जबां है उसी बेजबान की.
दिल की जबां रखता है फिर क्यों कहे 'आलोक', ये शायरी जबां है किसी बेजबान की. (२)
धरती से उठ पतंग ने ऐसी उड़ान की, सैकिल (साइकिल) ----------------------------------------------------------- (श्री शेषधर तिवारी जी) मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की
ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की
जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की
धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की
जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो उनको है फिक्र आज मेरे उस मकान की
खाते हैं जो खरीद के हर वक़्त रोटियाँ होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की ------------------------------------------------- (श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी)
गेहूँ की साँस में घुली खुशबू है धान की ये शायरी जुबाँ है किसी बेजुबान की
बदलेगी ये फिजा मुझे विश्वास हो चला लाशें जगीं हैं देख लो सारे मसान की
आखेटकों का हाल बुरा आज हो गया अब जाल बन गईं हैं लकड़ियाँ मचान की
कुछ बोर हो गई है ग़ज़ल होंठ आँख से सब मिल के कीजिए जरा बातें किसान की
हाथों से आपके दवा मिलती रहे अगर तो फिक्र कौन करता है ‘सज्जन’ निदान की ------------------------------------------------------ (डॉ ब्रिजेश त्रिपाठी जी)
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भाई अभिनव अरुण की बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ. यह जरूर है कि कार्य-दिवस और कार्यालयी कारणों से ग़ज़ल या पिंगल की अन्यान्य विधाओं के लिये आवश्यक समय कम ही मिल पाता है. पर यही क्या कम है कि इसके बावज़ूद कई-कई लोग, भाई इस उन्नत यज्ञ में अपनी-अपनी समिधा डाल रहे हैं !? किसी को कुछ ज्यादा समझ आ गयी है, कुछ अभी प्रयास कर रहे हैं. परन्तु, ये तो कत्तई नहीं या कभी नहीं, कि कुछ विशेष या क़ाबिल लोग अघोषित अस्पृश्यता का वातावरण बना कर बैठ जायें.
अभी भी मैं कहता हूँ कि अदम्य उत्साह, समर्पित लगन और निरन्तर सार्थक प्रयास प्रत्येक जागरुक के लिये स्वीकृत हो जाने का कारण बनेंगे.चल रहे इस तरही-मुशायरे के साथ अपनी संलग्नता के क्रम में मैंने कई एक लिखने वाले को सँवरते, सुधरते और माननीय प्रबुद्ध लोगों द्वारा स्वीकृत होते देखा है. जबकि मेरे लिये क़ायदे से यह तीसरा या चौथा मुशायरा ही है.
आपसे सहमत हूँ सौरभ भईया !
आपका बहुत बहुत शुक्रिया अरुण भाई जी ! ओबीओ का मकसद ही सीखना ओर सिखाना है, अगर आपने भी कुछ सीखा है तो यह जानकार बहुत प्रसन्नता हुई !
धन्यवाद आदरणीय सुरिंदर रत्ती जी !
आजकी सुबह ईद की सुबह. ऊपर से आदरणीय योगराज जी की ये गिफ़्ट. मन खुश है.
सभी ग़ज़लों के संग्रहीत होने का इंतज़ार कर रहा था कि उनको उदाहरण की मानिंद सामने रख कर आगे कोशिश की बनाये रखी जाय.
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय योगराज भाई.
सादर आभार आदरणीय सौरभ भाई जी !
ग़ज़ल :- तलवार की बातें करो छोडो मयान की
अब क्या बताएं आपको दुनिया जहान की ,
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की |
शहरों की चकाचौंध में अब लेगा खबर कौन ,
उस गाँव के रोते हुए बूढ़े मकान की |
बेहद घुटन भरा है तरक्की तेरा लिबास ,
पहचान तलक मिट गयी दीन-ओ-ईमान की |
ज्वालामुखी की राख में चिंगारियां भी हैं ,
हिम्मत है तो छू ले हवा आंधी तूफ़ान की |
जागी हुई कौमों से सुलह व्यर्थ की कोशिश ,
तलवार की बातें करो छोड़ो मयान की |
ओहदा था जितना ऊँचा फ़िक्र उतनी तंग थी ,
होती है चीज़ फीकी ही ऊँची दुकान की |
- अभिनव अरुण {310811}
भाई 'अभिनव' जी! आपकी गज़ल के मिसरों को यदि कुल मात्राओं के योग के हिसाब से दिखा जाय तो यह ठीक लग रही है इस हेतु आपको बधाई!!! फिर भी बहर के हिसाब से बेहतरी की गुंजाईश तो है ही!
अगर मैं कहूँ तो ग़ज़ल बहुत सुन्दर बन पड़ी है.
मतला बह्र के लिहाज से सधा हुआ है. मग़र कहन से बहुत संतुष्ट नहीं हो पाया.
शहरों की चकाचौंध में अब लेगा खबर कौन (ऊला बह्र की पटरी से बाहर)
इस गाँव के रोते हुए बूढ़े मकान की
बेहद घुटन भरा है तरक्की तेरा लिबास ( लिबास का ’स’ लुप्त)
पहचान तलक मिट गयी दीन-ओ-ईमान की ( मिट पर ज्यादा जोर को juxtapose करें; दीनो ईमान कैसा रहे? )
पहचान तक है मिट गयी दीनो ईमान की (एक हिसाब से इस सानी को देखियेगा ..)
ज्वालामुखी की राख में चिंगारियाँ भी हैं (मुझे ऊला परफ़ेक्ट लगा है.. गुणीजन सलाह दें.. )
हिम्मत है तो छू ले हवा आँधी तुफ़ान की (थोड़ी मशक्कत और मांगती है.. )
जागी हुयी कौमों से सुलह व्यर्थ की कोशिश
तलवार की बातें करो छोड़ो मयान की
आखिरी शेर पर बहुत कुछ करना है...
अब मेरी इस कोशिश को देखियेगा सभी गुणीजनों.. सलाह के साथ ...
अभिनव अरुण भाई, हार्दिक धन्यवाद कि, आपके रंग से एक पवित्र प्रयास बना है..
abhaar saurabh ji !!
अभिनव जी,
आपके अपने चिरपरिचित अंदाज़ में ...
विचारोत्तेजक रचना के लिए हार्दिक बधाई
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