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लेखन में आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे-एक परिचर्चा /// प्रस्तुति – डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव

 भारतीय संस्कृति में विनम्रता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है I अपनी  तारीफ सुनकर आज भी विनम्र लोग शील सँकोच से सिकुड़ जाते हैं I  पर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से अब इसे अच्छा  नही माना जाता I आज आप तभी स्मार्ट है जब  ‘आई डिज़र्व इट’ या ‘आई एम् डूइंग वेल’ कहना आपको आ जाता है I आधुनिकीकरण की इस दौड़ में स्मार्ट होना आवश्यक है I परन्तु इससे आत्ममुग्धता लोगों पर हावी हो रही है i मनोविज्ञान में इसे एक बीमारी अर्थात नार्सीसस पर्सनेलिटी डिसऑर्डर कहा गया है I इसी विचार से दिनांक 13 दिसम्बर, दिन रविवार को ओ.बी.ओ लखनऊ-चैप्टर की ‘साहित्य संध्या‘ वर्ष 2019 में प्रतिभागियों को परिचर्चा का विषय दिया गया – “ लेखन में आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे ‘ I

प्रदत्त विषय पर सभी प्रतिभागियों ने जोशोखरोश से भाग लिया I अधिकांश लोगों के विचार थे कि आत्ममुग्धता में कोई बुराई नहीं है यदि वह एक सीमा में हो I प्रतिभागी विद्वानों के विचार निम्नवत प्रस्तुत किये जा रहे हैं -

डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव का कहना था कि गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में लिखा है  –निज कवित्त केहि लाग न नीका Iसरस होइ अथवा अति फीका I अर्थात अपनी कविता चाहे जैसी हो सबको अच्छी लगती है I इसे गलत भी नहीं समझना चाहिए I यह स्वाभविक बात है I पर अच्छा लगने, आत्मतुष्ट होने और आत्ममुग्ध होने में फर्क है I आत्ममुग्धता की स्थिति तब आती है जब आप  आत्मविश्लेषण को नकारते हुए स्वयं को शीर्षस्थ समझने लगते हैं I तब आप चाहते है कि आप ही को लोग पढ़े और सराहें I आपकी ही चर्चा करें और आप पर ही लेख लिखें I आत्म मुग्ध कवि या लेखक, किसी स्तरीय रचना को पढ़ना  नहीं  चाहते I उनकी नजर में वही स्तरीय व पठनीय हैं, जो वे लिखते हैं I आत्ममुग्धता नवबढियो में ही नहीं है, बड़े-बड़े स्थापित लेखक भी इसके शिकार है I तुलसी तो बहुत बड़े कवि थे I परन्तु उनकी विनम्रता देखिये I वह अपने बारे में कहते है – कवि न होउं नहि चतुर प्रबीनू Iसकल कला सब विद्या हीनू  I I ‘ वे रामचरित मानस किसी पर थोपते  नहीं  Iअपितु कहते हैं कि यह तो मैंने स्वान्त:सुखाय लिखी है –

स्वान्तःसुखायतुलसीरघुनाथगाथा-

भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥

इतना ही नहीं मानस के उत्तरकाण्ड के अंत में वह यह भी कहते हैं कि यह तो ‘अन्तसतमःशान्तये’ लिखी गयी है –

मत्वातद्रघुनाथमनिरतंस्वान्तस्तमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥

आज शायद ही कोई कवि हो जो ऐसी विनम्रता रखता हो I वास्तविकता यह है कि स्तरीय रचनाये पढने पर ही अपनी औकात का पता चलता है I आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि केवल विद्वान् ही जानते है कि वे कितना कम जानते हैं I जिस दिन यह सत्य हम जान जायेंगे हम अपना आत्मविश्लेषण कर सकेंगे और आत्ममुग्धता की स्थिति से शायद बच सकेंगे I  

 

रघोत्तम शुक्ल के अनुसार आत्ममुग्धता अहंकार की छोटी बहन है I शास्त्रों में कहा गया है कि -भूमि- रापो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टतः I इससे स्पष्ट है कि अहंकार होता तो सभी में है I अब साधना संयम और अभ्यास के द्वारा कम करने के लिए कहा गया है तकि कम हो जाए,  डायलूट (D ILUTE) हो जाए I इसके लिए विद्वानों ने और महर्षियों ने तमाम उपाय किये हैं I अब जैसे वाल्मीकि रामायण है I वाल्मीकि रामायण ‘तप’ शब्द से प्रारम्भ हुई है- ॐ तप: स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदाम् वरम् नार्दन प्रतिपच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् I पहली लाइन में ही दो बार ‘तप’ शब्द आया है I उसके द्वारा इसका निवारण होता है I अब रही यह भावना तो हम वेदों को तो छोड़ रहे हैं क्योंकि वेद अलौकिक हैं I वे अपौरुषेय हैं और उससे मतलब नहीं है I लेकिन बाद के ग्रंथों में बड़ों ने, हम लोग तो बहुत साधारण हैं, किन्तु बड़ों ने--- अब देखिये महाभारत को तो पंचम वेद की मान्यता प्राप्त है I  महाभारत को जब व्यास जी ने रचने को सोचा तो उनके अन्दर भी एक आत्ममुग्धता ही कहिये क्योंकि उनके लिए अहंकार शब्द तो ठीक नहीं रहेगा I उन्होंने सोचा कि हम तो बहुत तेज बोलेंगे I हमारी तो ऋतंभरा प्रज्ञा है I  वे गणेश जी को स्टेनो बनाने के लिये उनके पास गए कि भाई हमने यह सोचा है I हम बहुत तेज बोलेंगे और मनुष्य कोई लिख नहीं पायेगा I अब गणेश जी को भी यह लगा कि अच्छा काम करने को कह रहे है तो हम मना तो कर नहीं सकते पर एक मनुष्य मुझे डिक्टेशन दे ----तो उन्होंने कहा द्रुतिर्गति मम लेखनम् अर्थात बहुत तेज लिखते हैं और अगर लेखनी रुक गयी तो आपका यह काम भी रुक जायेगा I अब वह बहुत बुरा फंसे तो उन्होंने कहा ऐसा है कि आप विचार कर, आप देव हैं और हम क्षुद्र मानव हैं तो विचार कर लिखिएगा अर्थात अर्थ समझ कर लिखियेगा  I तो महाभारत में कई  जगह पर कूट श्लोक आये हैं जो देखने में लगता है कि यह तो हो ही नहीं सकता लेकिन उनका अर्थ कुछ और है I जब यह भावना महाभारत काल में आ गयी तो परवर्ती जो लेखक हुए हैं  उन्होंने भी यह दिखाया है I  अभी हम बात कर रहे थे ‘गीत गोविन्द’ की, वह जयदेव जी का लिखा हुआ है और वह रचना—अब आप देखिये यहाँ थोड़ा सा ऐसा होता है कि आत्ममुग्ध होने वालों की रचना कालजयी भी हुयी हैं और आत्ममुग्धता एक नकारात्मक चीज भी है तो उन्होंने चौथे ही श्लोक में ‘गीत गोविन्द’ में जयदेव ने अपने समकालीन और पहले जो इस तरह की विधा में लिखते थे, उनका पोस्ट मार्टम कर दिया है I उन्होंने लिखा, कवियों के नाम लिखे और कहा कि ये हैं, इनमें    फलां फलां चीज तो है लेकिन फलां चीज नहीं है I इनमें ऐसा नहीं है, इनमें ऐसा नहीं है I ये सब आप जयदेव वाले में पायेंगे I ये लिखा उन्होंने I लेकिन ‘गीत गोविन्द’ कालजयी रचना हुयी I पर  आत्ममुग्ध बहुत थे वे I आचार्य केशव को लीजिये I उनके बारे में लिखा गया है या उन्होंने स्वयं लिखा है कि -

भाषा बोल न जानहीं,  जिनके कुल के दास।

तिन भाषा कविता करी, जडमति केशव दास।।

(जिन के कुल के दास भी भाषा बोलना  नहीं  जानते थे अर्थात केवल संस्कृत जानते थे उस कुल में जन्म लेकर भी केशव ने भाषा में कविता लिखी तो वे तो जडबुद्धि ही हुए ) 

मतलब इतनी ज्यादा उनके अन्दर ईगो थी , फिर भी महाकवि हुए I

संध्या सिंह-  ‘तो आपका यह कहना है I आत्ममुग्धता से –जो कविता है उसकी गुणवत्ता पर फर्क नहीं पड़ता  I’

रघोत्तम शुक्ल - दोनों बातें हैं----नहीं हम समन्वय की बात करेंगे I अभी तो हम यह दिखा रहे हैं कि बड़े लोगों में भी आत्ममुग्धता रही है और उनकी रचनायें भी कालजयी हुयी है I ये जिनको हम गिना रहे हैं ये सब महाकवि थे और ये आत्ममुग्ध थे I सेनापति कवि हुए हैं I सेनापति को यह था कि हमारी रचनाओं में बड़े अलंकार हैं, सब हैं तो उन्होंने –तो जब उनका बुढ़ापा आ गया होगा तो उन्होने कहा कि– ‘संख्या कर लीजे अलंकार अधिक हैं यामे  I‘ वे कवित्तों के राजा को अपनी कविता की थाती सौंप रहे हैं तो उन्होंने कहा भई देख लेना इसमें जेवर बहुत हैं I अलंकार हैं बहुत यामें I तो ये बड़े-बड़े जितने लोग हुए हैं I अनूप शर्मा जी अभी थोड़े ही दिन पहले हुए हैं I बहुत अच्छे छंदकार थे I ‘शर्वाणी’ उनका ग्रन्थ है I उन्होंने, देवी जी से प्रार्थना की I उन्होंने कहा कि -कवि सार्वभौम पदवी का मुझे वर दे  I’ वगैरह-वगैरह तो इनकी रचनाएँ कालजयी  भी हुयी हैं और ऐसा भी हुआ है कि कोई –कोई ग्रन्थ अभिशप्त हो गये  I एक अमृतसागर हुए हैं I बहुत बड़े वैद्य थे I उन्होंने आयुर्वेद का ग्रन्थ लिखा I अमृतसागर उस ग्रंथ का भी नाम है I कहते हैं कि उनकी पत्नी बीमार थीं और जैसा कि स्त्रियाँ कहने लगती हैं तुम हमरे लिए कुछ नाही करत हौ I तुम सबका इलाज करत हो और मेरी तबियत ख़राब है तो हमारे लिए कुछ नाहीं करत हौ Iतो उन्होंने कहा अच्छा रुको I  तो भोजन की थाली आने वाली थी, उसे रोक दिया, अपने कक्ष में चले गए  और वह अमृत सागर ग्रन्थ  रात भर में लिखा गया, आयुर्वेद का I उन्होंने कहा अब भोजन देव हमने तुम्हारे लिए अकेले क्या  सारे संसार के लिए----नुस्खा लिख दिया I तो ऐसा वैद्य लोग बताते हैं कि वह ग्रन्थ अभिशप्त हो गया और ----बड़े सीनियर वैद्यों के यहाँ हमारा पालन पोषण हुआ तो वो लोग अमृतसागर के नुस्खों से दवा नहीं करते Iतो वह अभिशप्त हो गया I तो दोनो प्रकार के उदाहरण आते हैं I हम तो इस नतीजे पर पहुँच    ते हैं कि कवि का अपना एक स्वाभिमान तो होता है और स्वाभिमान वह इतना न हो और अहंकार तक न जाए तो स्वाभिमान मेन्टेन करना पड़ता है ---तो  दोनों में समन्वय हो और तुलसीदास जी का जो उदाहरण डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने दिया कि –‘ कवि न होउं नहि चतुर प्रबीनू Iसकल कला सब विद्या हीनू  I I ‘  और वह कि आकाश में गरुण भी उड़ते हैं और माखी भी उडती है, तो उन्होंने मक्खी से अपनी उपमा दी – ‘माछी उड़ै अकास’ तो हम इतनी विनम्रता के पक्ष में नहीं हैं कवि के लिए I दोनों का समन्वय करते हुए कवि या लेखक अपने विचार अपने निजत्व के साथ समाज में फेंके  I उससे समष्टि का कल्याण होगा हमारी समझ से I

 

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी  के अनुसार लेखक में आत्ममुग्धता न हो तो रचना स्तरीय नहीं हो सकती । हाँ यह अवश्य है कि लेखन संतुलित होना चाहिए, आत्ममुग्धता अहंकार न बन बैठे । साथ ही मैं समझता हूँ कि यदि लेखन में अहंकार आ जाए तो उसे सहज ही भुलाया जा सकता है । ऐसे में साहित्य को कोई 'ख़तरा' नहीं है । यदि ऐसी तथाकथित रचना को लेकर हम अनावश्यक बहस करते हैं तो साहित्य के लिए वह ख़तरनाक हो सकता है और जाने-अनजाने हम उसके लेखक के अहंकार को इंधन देते हैं। ऐसा करना सर्वथा अनुचित ही है।

 

मनोज शुक्ल मनुज‘, का कहना था कि सीधी बात है कि यदि आप अपने को खुद को मान्यता  नहीं देंगे तो दूसरे लोग क्यों आईडेंटीफाई करेंगे ? दूसरी बात कि यदि आप खराब लिखते हैं तब भी आप उसको सराहेंगे और अगर आप अचछा लिखते हैं I अच्छा का मतलब जिन रचनाकारों ने अच्छा लिखा I हर रचनाकार समय के आगे चलता है I समय के आगे उसकी सोच होती है तो उसके समकालीन लोग उसको नहीं समझते जैसे तुलसीदास जी की रामायण जाने कितनी बार फाड़ कर फेंकी गयी I उनकी आलोचना हुयी तो उनके समकालीन लोग तो उनको मान्यता देते नहीं है I अगर वो अपने को मान्यता नहीं देंगे तो समकालीन लोग तो उनकी उपेक्षा करेंगे ही क्योंकि वे समय के आगे लिखते हैं I समय के आगे वे नहीं पहुँच सकते I मान्यता उनकी सौ साल बाद होती है I एक उदाहरण नहीं है I प्रेमचंद हैं I अपने समय में बेचारे क्या उनकी हालत रही पैसों के मामले में I बाद में उनके बच्चों ने करोड़ों रायल्टी पायी I उनके पोतों ने पायी Iअगर वे अपनी रचना को मान्यता न दे पाते अगर सोच अच्छी न होती तो आदमी छोड़ कर भाग जायेगा I अगर सारा समाज आपकी आलोचना कर रहा है और आपको भी लगे कि हमारा काम गलत है तो आप करेंगे क्यों ? फ़िराक ने लिखा कि – ‘आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हमनस्लों Iजब उनको मालूम भी होगा तुमने फ़िराक को देखा था II‘‘ तो फिराक जैसे आदमी ने – तो फिराक खारिज थोड़े हो गए I आत्ममुग्धता का मतलब कि आप जो रचना का --- तो फिर पढने और न पढने का मतलब ही कहाँ है ? आप जब लिखेंगे –  मौलिकता अगर आपकी सोच में नहीं है तो लिखना ही बेकार है  मौलिकता है, रचना में तो मौलिकता चाहिए I मौलिकता ही --- अब एक उदाहरण जैसे बहुत सारे लोग----काबिलियत की बात है तो बहुत सारे वियोगी – निराला जी रहे , उनके समकालीन बच्चन जी तो --- निराला जी ने लिखा I उनके समकालीन तो बहुत अच्छे कवि रहे हैं जो उनसे भी अच्छे रचनाकार रहे हैं लेकिन वो इतने ज्यादा पापुलर नहीं  हो पाए, लोकप्रिय नहीं हो पाए और बच्चन ऐसी रचना पर लोकप्रिय हो गए जो अनूदित रचना है I भावानुवाद है I  जो उनका ‘मधुशाला‘ है वह उमर खैय्याम की रुबाईयों का हिन्दी रूपान्तरण है, उसका  ट्रांसलेशन है I    

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी –  नहीं - नहीं  I

मनुज – आप किताब खोलकर देख लीजिये  --- चार लोगों ने किया है – मैथिलीशरण गुप्त ने किया ,उन्होंने किया और आजकल हिन्दी की जो सबसे अच्छी—

डॉ. शरदिंदु –रुबाइयां, उमर खैय्याम की किताब ही अलग है  I

मनुज- नहीं नहीं किताब , भावानुवाद, मैंने कहा I किताब तो अलग है ही  I वह हिन्दी में है I

गोपाल नारायण स्रीवास्तव  -अनुवाद नहीं है, पर उमरखैयाम से प्रभावित जरूर है I

मनुज-  नहीं , प्रभावित नहीं बाकायदा ट्रांसलेशन है I आजकल ने छापा है I अगर आजकल को आप मान्यता नहीं देते I वह भारत सरकार के सूचना विभाग की मैगजीन है I दिल्ली से निकलती है I सबका अनुवाद अगल-बगल में दिया है और वे छः-छ; लाइनों की रुबाईयाँ नहीं हैं तो और कौन सी विधा है हिन्दी की ? अगर रुबाईयाँ नहीं हैं तो हिन्दी की किसी विधा में तो लिखा होगा ? 

डॉ. शरदिंदु – न न , मैं विधा की बात नहीं कर रहा हूँ I

मनुज- हिन्दी का कोई कवि लिखेगा तो विधा में ही तो लिखेगा I आप हिदी पर कोई किताब लिखेंगे  तो किस विधा में लिखेंगे ? भई, हिदी के जितने छंद है सब संस्कृत के है मूलतः या उर्दू की बहरे भी हैं I

रघोत्तम शुक्ल- नहीं, संस्कृत में तो देखिये तुक नहीं है I मीटर तो है लेकिन माप नहीं है I

मनुज- माप की बात कर रहे है तो माप तो वही है जो संस्कृत का हिन्दी में है I मतलब संस्कृत से लिया गया है और उर्दू की बहरे भी वही हैं I जब हमारे यहाँ हिदी का छंद ---

रघोत्तम शुक्ल- अनुष्टुप छंद कहाँ है, मंदाक्रांता छंद कहाँ है? इन्हें अयोध्यासिंह उपाध्याय’हरिऔध‘  ने इंट्रोड्यूस किया है I अयोध्यासिंह उपाध्याय वे पहले कवि हुए हैं कि संस्कृत वाले वृत्तों में, वे वृत्त उन्होंने हिन्दी में उतारे हैं I यह वंशस्थ यह मंदाक्रांता I ‘विमुग्धकारी मधुमास मंजुता, वसुंधरा --- ‘

मनुज- ‘हे प्रभो आनंद दाता’ की बह्र पर जाने कितनी गजलें लिखी गयीं हैं I गजल में भी बहुत सारी छंद की बहरे हैं I हिदी-उर्दू ने एडॉप्ट संस्कृत के ही छंद किये हैं I

रघोत्तम शुक्ल – ‘चौपाई कहाँ है उसमे ?’

मनुज – किसमें,  नहीं  नाम से थोड़े है I बहरों के अरकान दूसरे हैं I हिन्दी के यगण, मगण, जगण अलग हैं I  सारे के सारे जरूरी थोड़े हैं  I  सौ छंद हैं तो सौ के सौ थोड़े ही ट्रान्सफर हुए I सौ में से पचास हुए  I

रघोत्तम शुक्ल -संस्कृत के वृत्त अलग थे I हिदी के अलग I लेकिन बताया न कि हरिऔध जी के पॉइंट हैं I हरिऔध जी ने अपने ‘प्रिय प्रवास’ की रचना उन्ही वृत्तों में की I उस समय तक यह मान्यता थी कि संस्कृत वाले वृत्त यदि हिन्दी में उतारे जांएगे तो उनमे कर्कशता आयेगी और उनमे माधुर्य नहीं   आ पायेगा I इस मिथक को हरिऔध जी ने तोड़ा है और उसमे माघुर्य भी है और कहीं-कहीं तो यह होता है कि दो लाइने अगर इंडिपेंडेंट कहीं जांय तो आप कहेंगे यह हिन्दी नहीं यह श्लोक है -  

रूपोद्यानप्रफुल्ल-प्राय-कलिकाराकेन्दु-विम्बनना।

तन्वंगीकल-हासिनीसुरसिकाक्रीड़ा-कलापुत्तली।

इसमें है और था कहीं आया ही नहीं तो श्लोक ही तो हुआ लेकिन यह हिन्दी है I यह राधा जी के सौदर्य का वर्णन है  जो हरिऔध जी ने ‘प्रिय प्रवास’ में लिखा है I आगे की दो लाइने हैं- 

शोभा-वारिधिकी,अमूल्य-मणिसी,लावण्य,लीलामयी।

श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मुर्ति थीं॥

संध्या सिंह – यह तो श्लोक जैसा लग रहा है ?

रघोत्तम शुक्ल- बिलकुल श्लोक जैसा है  I

मनुज- हमारा मतलब वो नहीं है I मापनी जो उसका मीटर लिया I किसी ने लिया, तमाम सारे छंद  हिन्दी के, संस्कृत के छंद से लिए गए हैं और उर्दू ने भी वही बहरें उतारी I आत्ममुग्धता जो विषय है उस पर आता हूँ  I आत्ममुग्धता बुरी चीज कतई नहीं है I लेकिन जैसा कि आपने कहा, अहंकार I

तो अहंकार और आत्ममुग्धता में फर्क है I

 

दयानंद पाण्डेय ने कहा कि आत्ममुग्धता किसी मानव का जन्मजात या अन्तर्जात गुण है, उसको डिनाई नहीं कर सकते I यह तो बेसिक चीज है और जो आपने कहा और आपने भी कहा कि इसको एप्रोप्रियेट लेवल पर लाना होगा  I समन्वय की बात कहो या एप्रोप्रियेटनेस की बात I कहो तो आत्ममुग्धता एक सीमा तक ही स्वीकार्य है I

रघोत्तम शुक्ल- मेरे ख्याल से स्वाभिमान शब्द इसके लिए बिलकुल ठीक रहेगा I

संध्या सिंह – और स्वाभिमान से ऊपर आ गए तो अभिमान आ गया I

रघोत्तम शुक्ल- हाँ और अहंकार बहुत निगेटिव है I आत्ममुग्धता उसकी छोटी बह्न है और अगर इसमें स्वाभिमान की बात रख दी जाए तो इसमें नकारात्मकता नहीं है और उतना होना भी चाहिए I दयानंद पाण्डेय– दोनों को बीच में करना पड़ेगा I यह अंतर्जात गुण है, इसको आप रोक नहीं सकते I

मनुज- स्वाभिमान तो व्यक्तिगत गुणों की बात हो गयी I रचनाधर्मिता की बात हो रही है I  व्यक्तिगत--- और तो बहुत सारे गुण आदमी में हैं, उनकी बात ही नहीं हो रही है  I

संध्या सिंह – अभी आपने कहा रचनाधर्मिता अर्थात सृजन पर जो खतरे हैं I

गोपाल नारायण श्रीवास्तव- आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति यानि कि जो अहंकार की ओर जा रही है I आत्ममुग्धता बढ़ेगी तभी तो अहंकार बढ़ेगा I आत्ममुग्धता की बढती प्रवृत्ति और उसके खतरे I

दयानंद पाण्डेय– आपके लेख में था न कि फेस-बुक या उसमें वो एक निगेटिव आस्पेक्ट है और पाजिटिव आस्पेक्ट भी है उसमें I आपके जो करीबी हैं, उन्होने एप्रीशियेट कर दिया I कुछ लोगों ने जो आपके करीबी नहीं हैं उन्होंने अपोज कर दिया I जो तटस्थ रूप से उसमे कुछ नहीं  करते------- 

मनुज- वह अलग विषय ही है I वह इतर विषय है कि हम आप पर टिप्पणी कर रहे हैं  I वह जो प्रवृत्ति चल रही है, वह आत्ममुग्धता की विषयवस्तु से कवर ही नहीं हो रही है I वह तो अलग विषय ही है I

शरदिंदु मुकर्जी – वह तो डील हो गयी I

दयानन्द पाण्डेय- रचना में जो अराजकता आयी है I अराजकता भी आत्ममुग्धता का ही एक रूप है I देखिये अपना बच्चा हमेशा अच्छा लगता है I चाहे जैसा हो लूला हो, लंगडा हो, काला हो I बच्चा अपना सबको अच्छा लगता है I वैसे ही अपनी रचना सबको अच्छी लगती है I आपको मेरी रचना  चाहे जैसी लगे I मुझे तो बहुत प्यारी लगती है I यह तो मानव स्वभाव है  I इसमें कोई दो राय नहीं I कुछ होता है कि हम बैठे हैं, हमने कविता पढ़ दी I आपको नहीं भी अच्छी लगी फिर भी आपने वाह-वाह कह दिया, ताली बजा दी I क्योंकि यह डेकोरम होता है I देखिये शमशेर लिखते है – ‘बात बोलेगी हम नहीं I भेद खोलेगी बात ही  II ‘ कोई रचना हो अपने आप बोलती है I कुछ कहना नहीं पड़ता है I तो यह जो आत्ममुग्धता है यह बुरी नहीं है, लेकिन जब सिर पर चढ़ कर बोलती है तो डिसेंट्री जैसी हो जाती है I आपको सोचना चाहिए कि आपकी रचना आपको तो अच्छी लग रही है पर क्या वह दूसरों को भी अचछा लग रहां है ?

संध्या सिंह– कुल मिलाकर सबका यही निष्कर्ष निकल रहा है, जो आप कह रहे हैं I

दयानन्द पाण्डेय- लेकिन आत्ममुग्धता एक बीमारी है वह कोई क्वालिटी नहीं है I किसी की भी I चाहे वह हमारी हो या किसी की I शुक्ल जी जानते है, ज्योतिषी हैं I बहुत से ज्योतिषी इसी में बर्बाद हो गए कि हम बहुत बढ़िया ज्योतिष बताते हैं I तो आत्ममुग्धता वहीं नष्ट हो जाती है जब आपका काम नहीं बोलता I काम भी बोले और आप अपनी फोटो भी लगा दे I रचनाये भी लगा दें I कोई बात नहीं I

 

कवयित्री ज्योत्सना सिंह ने कहा कि मुझे तो लगता है कि आत्ममुग्धता और अहम के बीच एक पतली सी रेखा है और जब वह रेखा पार हो जाती है तो घमंड आ जाता है और इस तरह, वैसे तो आत्ममुग्धता अच्छी बात है क्योंकि जो ह्म अच्छा सोचेंगे तभी हम अच्छा लिख पायेंगे I

 

सुश्री निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा कि आत्मसंतुष्टि तो बड़ी अच्छी चीज है I हम जो लिख रहे हैं , उससे संतुष्ट हो रहे है तो ठीक है लेकिन जब हम आत्ममुग्ध हो जाते हैं अपने लिखे पर,  तो वहीं गड़बड़ हो जाती है और हमारा लेखन उससे प्रभावित होने लगता है I किसी ने बताया कि हाँ आपने यहाँ पर शायद जो है ये वाला अलंकार ऐसे नहीं ऐसे होना चाहिए था, इस तरह से लिखना चाहिए था I आप उस पर कहते हैं कि नहीं हम तो एकदम ---------तो वहाँ पर जो भी हमारा भविष्य होता है चौपट हो जाता है I मुझे लगताहै कि थोड़ी-थोड़ी संतुष्टि होनी चाहिए फिर बड़ों की राय लेकर आगे बढना चाहिए I

कवयित्री सध्या सिंह का कहना है कि मुझे तो बस इतना लगता है कि जब हम खुद के जज होते हैं  , तो हम अपने जज बने रहे और हमको पता रहे कि हमने ख़राब लिखा है , तब—वहाँ तक तो ठीक है लेकिन जब आत्ममुग्धता इतनी हावी हो जाए कि रचना को पब्लिक करने या पब्लिश करने से पहले अगर हम एक बार उसका आकलन न कर पांए आत्ममुग्धता के चलते, वह खतरनाक है I तो जो बात आपने कही बीच का पथ मतलब वहाँ तक बना रहे कि आत्मविश्वास के पैरों पर खड़े भी रहे और अपना आकलन कर अपने को खारिज भी कर सकें I वहाँ तक मुझे लग रहा था कि आत्ममुग्धता उस सीमा तक ही जरूरी है कि हम उस स्थिति से बचे रहे कि अपने को खारिज ही न कर पांए I एक पंक्ति सुना रही हूँ – ‘एक मछली फिर टँगी है, आँख को फिर भेदना है I देख ले दर्पण नयन भर तू स्वयं की प्रेरणा है  I I’ तो यहाँ सिर्फ मैं यह कहना चाह रही हूँ कि अपने दर्पण में खुद को देखकर उसको प्रेरणा मिल रही है लेकिन अगर वह अपने को दर्पण में देखकर यह सोच ले कि मैं तो भेद ही दूंगा I यहाँ आत्ममुग्धता आ जाती है  I उसको प्रेरणा लेनी है और ओवर कॉन्फिडेंस में  नहीं पड़ना है यानी  आपको दर्पण में देखकर प्रेरणा भी लेनी है और मुग्ध नहीं होना है I 

 

डॉ. अशोक शर्मा का कहना है कि आत्ममुग्ध लेखन में कोइ बुराई नहीं है , क्योंकि हम इसमें किसी को नुकसान पहुँचाने नहीं जा रहे हैं I हम जब आत्ममुग्ध होते है तभी आत्मविश्वास आता है  I

संध्या सिंह – आप तो तब थे नहीं, अभी आये हैं पर सबसे बड़ी बात है कि आपने वह बात कही  जो हो चुकी हैं और जिस पर सहमति है सबकी I

अशोक शर्मा- आत्ममुग्ध नहीं होंगे जबतक अपने को बेकार ही समझते रहेंगे तो रचना पैदा कैसे होगी ? रचना पैदा होने के लिए यह होना चाहिए कि मैं लिख लेता हूँ I अगर यही भाव नहीं होगा तो कैसे बढ़ेगी गाडी ? किसी और व्यवहार में आप लाइफ में आत्ममुग्ध हों तो उससे लोगों को चोट पहुँचती है I हम अपने लेखन में आत्ममुग्ध है तो इसमें किसी का क्या जाता है ?

 

डॉ. अंजना मुखोपाध्याय  के अनुसार मौलिक रचना साहित्य क्षेत्र की हर विधा में, कविता, कहानी अथवा निबंध किसी भी रूप में कवि या लेखक का महत्वपूर्ण अवदान है I सृजनकर्ता अपने चेतन अनुभव को समीक्षा के साथ एक मुकम्मल आकृति प्रदान करता है I लेखक समाज की परिपाटी को स्वीकारते हुए अपने वक्तव्य के आधार से उत्तरदायित्व निभाता है I उसकी अभिव्यक्ति जब तक उसके मानस को स्पर्श नहीं करती तब तक एक छटपटाहट या अकुलाहट उसे निरंतर असंतुष्ट बनाए रखती है I संतोष का यह सोपान वह कभी-कभी अनायास ही चढ़ जाता है I रचना आत्ममुग्धता के स्टार को तभी छू पाती है जब उसके भावनाएं सृष्टि के अनेक गलियारों से होती हुयी अपनी पहचान के साथ प्रस्फुटित हो जाती हैं I

मनोवैज्ञानिक आत्मुग्धता या स्व-प्रेम ( narcissism ) संप्रत्यय को सामान्य मानव प्रकृति का हिस्सा मानते हैं I हर आदमी अपने को आईने में देखकर संवारने के लिए प्रयत्नशील होता है I पुरुष ढूँढने की कोशिश करता है कि कौन सी OUTFIT में वह अधिक जँच रहा है या स्त्री किस रंग में अधिक खिल रही है I अंतर्क्रिया के सभी आयाम आत्मसंतोष से कभी-कभी स्वतः ही आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं I आत्ममुग्धता के कुछ खतरे इस प्रकार हैं I जैसे- आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति मनुष्य में एक अवांछनीय महत्वाकांक्षा को जन्म देती है I मानव अपने लिए हमेशा प्रशंसा की चाह रखता है तथा दूसरों की भावनाओं के प्रति उदासीन होता है I आत्ममुग्ध व्यक्ति को अपनी उपलब्धि तथा क्षमताओं का उच्च आकलन करने की तथा दूसरों के अवदान को निम्नतर करने की आदत पड़ जाती है I ऐसे व्यक्तियों में आत्मश्लाघा बहुत होती है और वे आलोचना स्वीकार करने की क्षमता खो बैठते हैं I 

लेखन के क्षेत्र में यह प्रवृत्ति हमारे दृष्टिकोण के झरोखों को संकीर्ण बना देती है I रचना एक लक्ष्य के साथ अग्रसारित होती है और लेखक एक मुद्दे को टटोलते हैं I उसकी उपादेयता, विश्वसनीयता जितनी बनी रहती है, सफलता भी उतनी मिलती है – विचारों में गतिशीलता और लचक इसकी एक शर्त है I अतः आत्मसंतोष और स्वस्थ आलोचना के साथ लचीलेपन में एक संतुलन की आवश्यकता है

 

(मौलिक/अप्रकाशित)

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सुंदर, ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी आलेख। 

मेरी चाचीजी का निधन हो जाने के कारण मैं इस बार गोष्ठी में भाग नहीं ले सका और इतनी अहम् चर्चा में भाग लेने से वंचित रह गया। ये एक बहुत अच्छी परिपाटी शुरू हुई है कि इस प्रकार के विषयों पर चर्चा की जाए। किन्तु मेरा मानना है कि इस तरह की चर्चाओं को बहुत ही स्वस्थ तरीके से ग्रहण करना चाहिए। चर्चा में मत्वैभिन्न्य होना स्वाभाविक है। सबकी बातों को एक समान महत्व दिया जाना चाहिए। सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है। यह भी कहना चाहता हूँ कि यदि किसी को तथ्यों की जानकारी नहीं है तो वार्ता में उठाई गयी बातों की जानकारी बाद में कर लेनी चाहिए। लेखन में आत्ममुग्धता सदैव रही है और सदैव रहेगी। मेरा ऐसा मानना है की कोई भी कितना भी छोटा या बड़ा साहित्यकार क्यों न हो अपनी रचना के प्रति आत्ममुग्ध अवश्य होता है। रचना यदि अच्छी है तो सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है कि आपको जो रचना स्वयं बहुत अच्छी और त्रुटिहीन लग रही है वो औरों को भी अच्छी ही लगेगी। सच तो ये है कि कई बार रचना अच्छी न होने पर भी लोग इसलिए तारीफ करते हैं की कोई किसी को हतोत्साह नहीं करना चाहता। ये अच्छा तो है लेकिन साहित्य के लिए उचित नहीं है। हाँ ये ज़रूर किया जा सकता है कि बाद में उस रचना में जो भी कमी है उससे अवगत करा दिया जाये। किसी की रचना की आलोचना सबके सामने की जाए तो ये संभवतः कोई भी उसे हृदय से स्वीकार नहीं करता। बहरहाल, आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण जी को हार्दिक बधाई की वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन बेहतर तरीके से कर रहे हैं।

आ० दयाराम जी, आपका आभार  I 

प्रिय आलोक , आप सदा से मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं  I मैं महज आभार प्रकट कर अपनी अनुभूति को बौना नही कर सकता i  सस्नेह I 

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी--लेखन में आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे विषय पर आपने जो  परिचर्चा की है वह बहुत ही सुन्दर, ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी आलेख है | यदि आप अनुमति दें तो मैं इस आलेख का उपयोग करना चाहूंगी  अपनी त्रैमासिक पत्रिका " नारी का संबल" के जनवरी- मार्च 2019 के अंक में | कृपया सूचित कर अनुग्रहित करें | धन्यवाद 

शकुंतला तरार 

संपादक- नारी का संबल 

 रायपुर (छ.ग.) 

मो- 94255 25681

आ० शकुंतला  जी , आपका बहुत बहुत आभार  I 

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