For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक - 54

परम आत्मीय स्वजन,

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 53 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह भारत के प्रसिद्ध शायर जनाब बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल से लिया गया है| पेश है मिसरा ए- तरह 

 

"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "

221 1222 221 1222

मफऊलु मुफाईलुन मफऊलु मुफाईलुन
(बह्र: बहरे हज़ज़ मुसम्मन अखरब)
रदीफ़ :- में
काफिया :- आओं(घटाओं. हवाओं, दुवाओं आदि )

 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 26 दिसंबर दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 27 दिसंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 26 दिसंबर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.comपर जाकर प्रथम बार sign upकर लें.


मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

Views: 12738

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

जब रात पिघलती है सुनसान फिजाओं में
आवाज कसकती है ख़ामोश सदाओं में

क्या बात न जाने थी पर मेरी ग़ज़ल सुन कर  
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में

जिस पेड़ की किस्मत में चिड़ियों की न हो खुशियाँ
चुपचाप खड़ा अक्सर रोता है दुआओं में

हरकत ही बताती है व्यवहार हथेली का
हर दीप परखता है तूफ़ान हवाओं में

अहसान भुला कर वो सम्बन्ध मिटा बैठे
अब खूब भुनाते हैं, अहसास सभाओं में

इतिहास के पन्नों में इक जिक्र नहीं, जिनका
आदम तो भला आदम, था ख़ौफ़ खुदाओं में

बंदूक कभी दुनिया बदली है न बदलेगी
कुछ लोग मगर करते व्यापार नफाओं में
*********************
(मौलिक और अप्रकाशित)

बहुत ही अनुभवी विचारों से सजी गजल। क्या कहूं मैं। नतमस्तक हूँ आदरणीय सौरभ सर जी। अशआर इतने उच्च कोटि के हैं कि मेरे पास कहने को शब्द ही नहीं है। शब्दों के जादूगर लगते हैं आप सर जी। मैं किसी एक शे'र को कोट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सभी के सभी १६ आने खरे हैं।

आदरणीय दिनेश कुमार जी, आपकी उन्मुक्त सराहना से मेरा उत्साहवर्द्धन हुआ है. आपके सम्मान से कृतार्थ हुआ. हमसभी इसी मंच पर एक-दूसरे से सीख रहे हैं.
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय

क्या बात न जाने थी पर मेरी ग़ज़ल सुन कर  
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में ............... बेहतरीन अशआर 

जिस पेड़ की किस्मत में चिड़ियों की न हो खुशियाँ 
चुपचाप खड़ा अक्सर रोता है दुआओं में ...... इस अशआर की जितनी तारीफ करूं, कम है ... बेहद उम्दा 

हरकत ही बताती है व्यवहार हथेली का 
हर दीप परखता है तूफ़ान हवाओं में .........क्या बात है सौरभ सर बड़ा शेर 


इतिहास के पन्नों में इक जिक्र नहीं, जिनका 
आदम तो भला आदम, था ख़ौफ़ खुदाओं में .....बेहतरीन शेर 

आदरणीय सौरभ सर इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ... एक से बढकर एक अशआर .... खास तौर पर कुछ  शब्दों को  बड़े ही सलीके से नगीनों की तरह जड़ा है आपने ... जैसे चिड़ियों की न हो खुशियाँ, ..... व्यवहार हथेली का ,...... हर दीप परखता है, ....... सम्बन्ध मिटा बैठे..... 

पुनः आपको हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए ....और नमन इस अनुभवी लेखनी को...

आदरणीय सौरभ सर, आप ओ बी ओ के मंच पर मेरे लिए गुरु है, लेकिन मैंने आपकी ग़ज़ल को एक शिष्य की हैसियत से नहीं बल्कि एक पाठक ही हैसियत से पढ़ा है. और  मैंने एक पाठक की हैसियत से चार अशआर जो मुझे बहुत ज्यादा भा गए, उन्हें कोट करने का दुस्साहस कर बैठा हूँ. ऊपर आदरणीय दिनेश कुमार जी ने अपनी टिप्पणी में एडिट आप्शन द्वारा  संशोधन कर " मैं किसी एक शे'र को कोट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सभी के सभी १६ आने खरे हैं।" यह एक ऐसा वाक्य लिख दिया कि अब मैं  अपने दुस्साहस पर अपराधबोध से ग्रस्त हो रहा हूँ. मेरे एडिट आप्शन की टाइम लिमिट समाप्त है. अतः जो अशआर मैं कोट नहीं कर पाया शायद वो मेरी मानसिक अवस्था से उच्च स्तर के होंगे जिनका मर्म  मुझे समझ ही नहीं आया हो. इसलिए  मेरी टिप्पणी में कोई त्रुटी परिलक्षित हो तो क्षमा का दायित्व आप पर है. त्वरित टिप्पणी की आदत किसी दिन ले डूबेगी मुझे. सादर.

आदरणीय मिथिलेशजी,

//आप ओ बी ओ के मंच पर मेरे लिए गुरु है, //

जी, ऐसा कत्तई न समझें. हम सभी का गुरु यह मंच है. यहाँ व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है. हम सभी मंच के कारण ही अपनी समझ को विकसित करने में लगे हैं.

// लेकिन मैंने आपकी ग़ज़ल को एक शिष्य की हैसियत से नहीं बल्कि एक पाठक ही हैसियत से पढ़ा है. और  मैंने एक पाठक की हैसियत से चार अशआर जो मुझे बहुत ज्यादा भा गए //

किसी सदस्य के अंदर के इसी पाठक की तो मंच को आवश्यकता है. अन्यथा, अन्यान्य मंचों या प्लेटफ़ार्मों की तरह यहाँ भी सूखी ’वाहवाहियों’ का दौर चल पड़ेगा. ऐसा माहौल यहाँ भी कई बार बनने लगता है. जिससे छुटकारा पाने में इस मंच को तनिक अधिक ज़ोर लगाना पड़ता है.
:-))
आपकी सदाशयता के लिए मैं हृदय से आभारी हूँ.

सौरभ जी .... मतले का शेर ही इतना धमाकेदार है की धार बना देता है ग़ज़ल की ... और जिस खूबसूरती से गिरह बाँधी है ... सुभान अल्ला .... बस वाह वाह ही निकलता है ... क्या बात है मुशायरे को बुलंदी दे दी आपने .....

आदरणीय दिगंबर भाई, आप द्वारा मिला उत्साहवर्द्धन मेरे लिए सम्मान की बात है.
हार्दिक आभार आदरणीय

जब रात पिघलती है सुनसान फिजाओं में
आवाज कसकती है ख़ामोश सदाओं में ..........दिल की कसक या  दिल का कसकना पढ़ा था आवाज़ का कसकना नया ताज्रिबा दिखा

क्या बात न जाने थी पर मेरी ग़ज़ल सुन कर  
ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में ........ अच्छी गिरह लगाई है

जिस पेड़ की किस्मत में चिड़ियों की न हो खुशियाँ
चुपचाप खड़ा अक्सर रोता है दुआओं में ............... पहला मिसरा कहना कुछ चाहता है अर्थ कुछ और निकल रहा है, जहाँ तक मैं समझ सका हूँ आप कहना चाहते हैं
// जिस पेड़ की शाख़ों पर चिड़िया न चहकती हों //...
अभी अर्थभाव भटक कर चिड़िया की ख़ुशी पर केन्द्रित हो रहा है
सानी में अक्सर शब्द पूरी तरह भर्ती का है

हरकत ही बताती है व्यवहार हथेली का
हर दीप परखता है तूफ़ान हवाओं में .................
दीप हवाओं में तूफ़ान को परखता है? या तूफ़ान दीपों को हवाओं में परखता है ?
दोनों में से कोई भी बात हो तूफ़ान और हवाओं में से एक शब्द भर्ती का है ...

अहसान भुला कर वो सम्बन्ध मिटा बैठे
अब खूब भुनाते हैं, अहसास सभाओं में ........... बढ़िया शेर है

इतिहास के पन्नों में इक जिक्र नहीं, जिनका
आदम तो भला आदम, था ख़ौफ़ खुदाओं में .......... शेर में संज्ञा नदारद है, खुदा को "बिम्ब" और "प्रतीक" रूप में बहुवचन किया जा सकता है, (जैसे - जमीन के खुदाओं, सब के सब खुदा बने बैठे हैं) अन्यथा खुदा को बहुवचन नहीं लिखा जाता   

बंदूक कभी दुनिया बदली है न बदलेगी
कुछ लोग मगर करते व्यापार नफाओं में.......... उला में "से" शब्द का अभाव है जिसकी वजह से अर्थ बदल जा रहा है, जो अर्थ सामने आ रहा है वो है - दुनिया ने अब तक न बन्दूक बदली है न आगे बदलेगी 

माज़रत के साथ ...


वाह !
भाई वीनसजी, आप एक अंतराल पर आये.. खुशामदीद !
शेर दर शेर तब्सिरा पढ़ कर मन खुश हो गया. वैसे एक-दो शेर पर आपकी बातें अस्पष्ट हैं. कारण, भाषाजन्य कई बातें हैं जो अत्यंत महीन होती हैं और उन्हें एक विशेष मनोदशा से देखा-समझा जाता है. जैसे,

रात है, आवारग़ी है.. खूब है
कब कहा हमने ठिकाना चाहिये .. ..

उपर्युक्त शेर के ’खूब है’ को आपने एक समय पुरज़ोर तरीके से ख़ारिज़ कर दिया था कि ’खूब है’ भरती का है. जबकि इसी ’खूब है’ में पूरे शेर की जान थी. इस बात की हामी आगे चलकर ग़ज़ल को ’भाषा के हिसाब से भी’ जानने वाले कई जानकारों और विद्वानों ने की, जिसमें आपसी जानकारों में आदरणीय एहतराम इस्लाम साहब, आदरणीय पंकज सुबीरजी, आदरणीय योगराजभाईजी जैसे लोग भी हैं.

मेरा यह नहीं कहना कि आपने जो कुछ कहा है उससे मैं असहमत हूँ, बल्कि कुछ शेर भाषायी तौर पर शब्दों के विशेष प्रयोग से विशिष्ट हो जाते हैं. इसी कड़ी में ’पेड़ और चिड़िया’ या ’दीप और तूफ़ान’ वाले’ शेर हैं.

यह सत्य है, कि ’चिड़ियों की खुशियाँ’ पर ही बात केन्द्रित है. जिस पेड़ की शाखों पर चिड़ियाँ न चहकती हों मात्र से बात नहीं बनती. तथा, इस शेर में ’अक्सर’ जैसे शब्द को भरती का मान लेना, इस शेर के निहितार्थ को न समझने जैसा है. उस परिवार को या उस परिवार के मुखिया की भावनाओं को समझियेगा जिनके बीच ’चिड़ियाँ’ (बच्चे) न हों. वो ’अक्सर’ ही ’फील’ करते हैं.

दूसरे, ’दीप को तूफ़ान परखता है’, यह एक आम घटना या फेनोमेनन है, वीनस भाई.

यहाँ दीप (भोली जान का परिचायक, जिसका सेंस डेवेलप हुआ भी तरह तो किस तरह !) भी सामान्य दिखती हुई हवा में निहित तूफ़ान (घटिया विचार) को बखूबी महसूस करता है. इसी से उला में ’हरकत ही बताती है व्यवहार हथेली का’ कहा गया है.
आगे, आप पुनः देखिये-समझियेगा.

इतिहास के पन्नों में इक ज़िक्र नहीं, जिनका.. . इस शेर में संज्ञा क्यों ग़ायब लगी ? सर्वनाम ’जिनका’ किसको इंगित कर रहा है ? यहाँ ’उनका’ करके ’जिनका’ किया जाय तभी संज्ञा स्पष्ट होगी तो भी शेर की शेरियत कहाँ गयी ? अलबत्ता, इस शेर के संदर्भ में ’खुदाओं’ यानि खुदा के बहुवचन प्रारूप पर अवश्य ही जानकारों और विद्वानों की राय समझना-सुनना चाहूँगा, कि ऐसे में 'खुदाओं' का प्रयोग अमान्य है या मान्य. क्यों कि इस तरह के शब्दों के प्रयोग पर मैं अपनी समझ पर आत्म निर्भर न रह कर सुनी-सुनायी पर बहुत निर्भर करता हूँ.  

बंदूक कभी दुनिया बदली है न बदलेगी... . ऐसे में करण कारक की विभक्ति ’से’ की इतने आवश्यकता है ? मैं बाज़ार गया था के कर्म कारक को बताया जाता है ? क्या 'मैं बाज़ार को गया था' ही कहना आवश्यक है ? फिर जैसा आप समझ रहे हैं, उस हिसाब से तो दुनिया के साथ कर्ता की विभक्ति ने भी आवश्यक हो जाती है.

सर्वोपरि, पुनः, मैं उपरोक्त बातें कह कर जबर्दस्ती अपनी बातें नहीं मनवाना चाह रहा हूँ. बल्कि, ग़ज़ल के शेरों के परिप्रेक्ष्य में भाषायी तथा भावजन्य निहितार्थ और भावार्थ को स्पष्ट कर रहा हूँ.
आपके ’पाठक’ के प्रति सदा से मरे मन में सम्मान के भाव हैं.. . :-))
शुभ-शुभ

आदरणीय आपने ग़ज़ल कही है, ऐसा तो नहीं कि आपने शेर दर शेर कोई ज़मीन न तैयार की होगी, कोई कथ्य न बुना होगा
एक पंक्ति की व्याख्या के लिए 10 पेज खर्च किये जा सकते हैं, पाठक तक परोक्ष रूप से क्या अर्थ पहुच रहा है यह जानना भी ज़रूरी है, यह जानना और भी ज़रूरी है कि कोई अर्थ पहुँच रहा है या नहीं
साहित्यिक चर्चाओं की ये खासियत होती है कि यहाँ किसी लिखित अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचना अनिवार्य नहीं होता
पाठक और श्रोता चर्चा का मंथन करके स्वयं अपना अंतिम निष्कर्ष प्राप्त कर सकते हैं, जो बिलकुल भिन्न भी हो सकता है

कहा वहीँ जाता है जहाँ पता हो कि सुना जाएगा इसलिए खुलकर कहा

चर्चा के दोनों पक्ष प्रस्तुत हो चुके हैं लोगों को अपने निष्कर्ष तक पहुँचने दीजिये

//चर्चा के दोनों पक्ष प्रस्तुत हो चुके हैं लोगों को अपने निष्कर्ष तक पहुँचने दीजिये//

हाँ, यह बात सही है.
दूसरे, मेरी वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से ये सारी बातें हड़बड़ी में हुई हैं. अतः हड़बड़ी में गड़बड़ी न हुई हो, यह संभव भी नहीं है. अतः, मैं किसी तथ्य पर अपनी बात मात्र कह रहा हूँ. न कि अपनी बातों पर दृढ़वत हूँ. लेकिन, इसके साथ ही, जो है, भाई, वो तो है. उसमें विशिष्टता तो रहेगी.

//कहा वहीँ जाता है जहाँ पता हो कि सुना जाएगा इसलिए खुलकर कहा //

अलबत्ता, ओबीओ जैसे साहित्यिक मंच पर साहित्यिक चर्चा नहीं होगी तो और क्या होगी या होगा ? इसी तरह की चर्चाओं का सार्थक ढंग से होना या न होना किसी मंच को प्रासंगिक या अप्रासंगिक कर देता है.
यह मंच यदि प्रासंगिक है तो ऐसी ही चर्चाओं से, जहाँ रचनाकार के साथ-साथ जागरुक पाठकों की भी ’सोच’ विकसित होती है.
यह 10 पन्ने खर्चने वाली बात नहीं है. कत्तई नहीं.. .. :-))

ऐसा नहीं है कि मैंने विन्दुओं पर कोई 'मनाही' संप्रेषित कर दिया है. बल्कि अपने कथ्य के आयाम प्रस्तुत किये जिसके कारण ऐसे मंतव्य बने हैं. अन्यथा इन्हीं शेरो पर कई और सकर्मक या अकर्मक तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं.
सर्वोपरि, मेरे लिए ऐसे मानक, जोकि एक शुरु से बन गये हैं (!), मेरी ’सोच’ और ’कहन’ में कितनी गहनता लाते हैं. इसका भान मुझे लगातार पढ़ने वालों को सहज होता होगा.  

मैं अन्य शेरों के साथ-साथ निम्नलिखित शेरों पर बातें की, जिसके लिए मैं आदरणीय एहतराम भाईसाहब का हार्दिक तौर पर आभारी हूँ. उसके बाद दो शेरों में यों परिवर्तन किया है, ताकि स्पष्टता और बढ जाये. बकिये शेरों पर आदरणीय एहतराम साहब की धारणा भी वैसी ही थी, जैसी कि मैंने आपसे साझा की है. दोनों शेर पर भाईसाहब के कहे को भी उद्धृत कर रहा हूँ.

इतिहास के पन्नों में कुछ जिक्र नहीं, जिनका
आदम तो भला आदम, था ख़ौफ़ खुदाओं में .........खुदा का बहुवचन खुदाओं के लिए कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये.

बंदूक ने ये दुनिया बदली है न बदलेगी
कुछ लोग मगर करते व्यापार नफाओं में ........... हिन्दी में नफा का नफाओं सदा मान्य है. वर्ना, उर्दू के अनुसार नफा वस्तुतः नफ़्अ होता है. इसे बहुवचन नफ़्ओं होता है. 

देखिये, बातचीत और साहित्यिक चर्चा से कितना लाभ होता है !
शुभेच्छाएँ.

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service