१. सौरभ पाण्डेय जी
पाँच दोहे
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देख शहर की रौनकें भौंचक हुआ किसान
भूखी बस्ती रो रही कहाँ गया सब धान
अबकी फिर माँ के लिए ’फले पूत’ वरदान
बिटिया बैठी ताड़ती बिन जनमे का मान
बादल आये झूम कर लेकिन बरसी आग
कहता ज़िद्दी खेत में मिहनत से मत भाग
वैसे सबको है पता इस चुनाव का जोग
पाँच बरस के नाम पर लेकिन जागे लोग
ढलता दिन संसार से करता है ताकीद
बची रहे संभावना, बची रहे उम्मीद
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२. चौथमल जैन जी
आस -निराश न मन में लावें , कर्म सदा ही करते जावें।
उम्मीद कभी न छोड़े अपनी , सदा प्रयास विफल न होवे।।
चाहें विफलता आये कितनी , हताश नहीं गर हम होवें तो।
ले सफलता आपने कर में , मंजिल खुद चलकर आयेगी।।
पाकर मंजिल अपने सम्मुख , विफलताओं को बिसराएँ।
खुशियाँ बाँटे सुधि जनों को , जीवन पथ में बढ़ते जावें।।
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३. अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
कुण्डलिया
हल्दी फेरे पाणिग्रहण, ये सब हैं बकवास।
बिन ब्याहे रहने लगी, ब्वाय फ्रेंड के पास।।
ब्वाय फ्रेंड के पास, लगा झटके पे झटका।
बेटी देकर गोद, एक दिन भागा लड़का।।
उतरा लव का भूत, पड़ी शादी की जल्दी।
जो भी करे पसंद, लगा लेगी अब हल्दी।।
दोहे
रिश्तेदारों मित्र से, रखें न ज्यादा आस।
काम न हो तो रंज हो, उस पर बढ़े खटास।।
आधी आजादी मिली, हिंदी बहुत उदास।
मैकालों के बाद अब, कालों से है आस।।
यहाँ भिखारी हैं सभी, कर न किसी से आस।
दाता तो बस एक हैं, उस पर रख विश्वास।।
युवा वर्ग की सोच में, लेन देन है प्यार।
करते हैं अब प्यार का, खुलकर कारोबार।।
एक पुत्र की आस में, हुई बेटियाँ चार।
रोज दहेज विरोध में, करते खूब प्रचार।।*
* संशोधित
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४. अशोक कुमार रक्ताले जी
आस
सुख दुख जीवन के पहिये दो, एक दूर तो दूजा पास
मिला कष्ट हर तुम सह लेना, मन में रखकर सुख की आस |
सद्कर्मों की राह चुनों तुम, हों चाहे जितने व्यवधान
कर्मों से ही मानव जग में, बनती है सबकी पहचान
मंजिल पाने की जिद रखना, हो ना जाना कभी उदास
मिला कष्ट हर तुम सह लेना, मन में रखकर सुख की आस |
कौन डिगा पाया है उसको, जिसने मानी कभी न हार
सूरज बनकर हरदिन दमका, घोर-रात्रि का काल बिसार
पीडाओं से जिसने सीखा, पाया है उसने विश्वास
मिला कष्ट हर तुम सह लेना, मन में रखकर सुख की आस |
खोना-पाना सच्चाई है, क्षण-क्षण का तुम जानो मोल
धैर्यवान बनकर रहना है , बोलो सबसे मधुमय बोल
चिंताओं के काँटे चुनकर , फैलाना है सदा सुवास
मिला कष्ट हर तुम सह लेना, मन में रखकर सुख की आस |
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५. प्रतिभा पाण्डेय जी
हर रंग गाथा जुदा है मेरी[ तुकांत ]
हूँ मानव उम्मीद मै तेरी
हर रंग गाथा जुदा है मेरी
ओल्ड होम में छोड़ चले
माँ को उसके ही अपने
लौट के फिर लेनेआयेंगे
हर दिन बुनती ताज़े सपने
हूँ मै उसके आँख की बदली
कभी संजीदा कभी हूँ पगली
अंक सूची में उलझा देखो
खड़ा हुआ एक युवा वहाँ
रोज़ी की चिंता में जिसके
सारे सपने धूआँ धूआँ
हूँ मै उसके हाथ का कंपन
और पिता के दिल की धड़कन
पक्का प्रॉमिस था पापा का
जब सरहद से छुट्टी आयेंगे
चाबी से चलने वाली वो
मुन्ना की गाड़ी लायेंगे
हूँ मै उस गाड़ी की छुक छुक
गुमसुम माँ के दिल की धुक धुक
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६. लक्ष्मण धामी जी
गजल
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सोच मत ये, रास्ते समतल न होंगे
इस समस्या के कहीं भी हल न होंगे । 1।
उस क्षितिज पर यूँ कभी तो धूप होगी
जो अँधेर आज बेढब कल न होंगे । 2।
जब समझ विस्तार पाएगी समय पर
आदमी के आदमी से छल न होंगे । 3।
फिर भरेगी स्नेह जल से झील मन की
आस के पंछी कभी ओझल न होंगे । 4।
बंद होगा युद्ध का इतिहास पढ़ना
और जग में युद्ध को ये दल न होंगे । 5।
कल खिलेगी धूप मानवता की खुलकर
जाति धर्मों के घने बादल न होंगे । 6।
मान होगा भाव समता का हरिक मन
सत्य जग में तब सबल निर्बल न होंगे । 7।
रख न संशय अब स्वयं पर तू तनिक भी
कर्म तेरे कल को नभ के फल न होंगे । 8।
तज निराशा और ढब उम्मीद रख तू
फिर जगत में स्वप्न ये धायल न होंगे । 9।
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७. शेख शहजाद उस्मानी जी
कुछ हाइकू रचनाएँ :
'मैं' हूँ बस 'मैं'
बने मेरे ही काम
शेष नाकाम
है प्रत्युत्तर
अन्याय अतिरेक
क्यों निरुत्तर
कौन हो तुम
धन-वर्षा कारक
सुस्वागतम्
व्यथा से कथा
मीडिया की कुप्रथा
निम्न व्यवस्था
है विचरण
स्वच्छंद आचरण
तुच्छ धारण
हुई दुर्लभ
आत्म-रक्षा सहज
शस्त्र सुलभ
है आगंतुक
वास्तविक ये प्रेम
स्वार्थ पूरक
मानसिकता
विकृत कुसंस्कृति
हो अवनति
साध लो चुप्पी
लाज रखो सबकी
ज़ुल्म-परस्ती
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८. नादिर खान जी
आस (क्षणिकाएँ)
(एक)
जब जब
घृणित हुयी राजनीती
आस्था धर्म से निकलकर
राजनीती के अखाड़े में आ गई
तब तब
इंसानियत शर्मशार हुई
लोग आहत हुये
आस टूटने लगी….
(दो)
एक ने कहा हम खतरे में है
दूसरे ने कहा हम
सच तो ये है भाई
इन्हीं लोगों से
इंसानियत खतरे में है
भाईचारा खतरे में है
मुल्क खतरे में है
और आस
भगवान भरोसे है ।
(तीन)
जब दादरी का अख़लाक़
दम तोड़ रहा था
मुम्बई के मंदिर में
इलियास और नूर के बच्चे ने जन्म लिया
जब माँ के लाल शर्मशार कर रहे थे
इंसानियत को
तब माँ - बहनों ने बुझने नहीं दी
इंसानियत की मसाल
जब तक माँ बहने एक हैं
आस जिंदा है ।
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८. वैशाली चतुर्वेदी जी
देवदासी (सामान्य रचना)
देवदासी
मैं कला थी
मैं प्रथा थी
क्या कहूँ मैं
इक व्यथा थी
मैं बसी पर घर नही
आँगन नही देहरी नही
पूज्या मुझको बनाया
फिर कहो क्यूँ भोग्या थी
गोद में ममता पाली
कब खिल वो इक कली
डस गया था काल जिसको
मैं वो कड़वी सत्यता थी
भेद गहरे तुम बताओ
मान्यता अपनी बताओ
नारी को देवी कहा
मुझको दासी की सजा थी
तुम पुरुष नियम तुम्हारे
तुमको प्रिय बस सुख तुम्हारे
देवता का वास्ता था बस
तृप्त होती इक क्षुधा थी
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९. डॉ० विजय शंकर जी
इनकी आस , उनकी उम्मीद
गरीब को दिन फिरने की आस है ,
उन्हें गरीब से कितनी आस है ,
वही तो है जो
उनके दिखाए सपनों में जीता है
और उनकें सारे सपने पूरे करता है।
पीढ़ियाँ गुजर गईं , गरीब के स्वप्न
देखते देखते। वही सपने ....
जो कल भी वही थे ,
आज भी वही हैं ,
वो बदले नहीं ,
दिखाने वाले बदलते रहते हैं।
उनकीं अपनी उम्मीदें हैं ,
गरीब की अपनी आस है ,
टूटती नहीं , क्योंकि
आस है तो जीवन है ,
गरीबी है , किसी की उम्मीद .......
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१०. सचिन देव जी
आस/उम्मीद पर चंद-दोहे
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जीवन में दुख देख कर, होना नही उदास
जबतक तन में सांस है, बाकी रहती आस
बिन पानी के सूखते, सभी खेत खलिहान
आशा भरी निगाह से,अम्बर तके किसान
नेता जी इस आस पर, लड़ते सभी चुनाव
कभी किनारे पर लगे, डगमग होती नाव
एक बहू से सास को, रहती है ये आस
बिस्तर पर खाना मिले, उनको बारह मास
आशिक छत महबूब की, तके इसी उम्मीद
दिख जाये मुख चाँद सा, हो आशिक की ईद
अच्छे दिन की आस में, बीते अठरह मास
कहीं नही आता नजर, परिवर्तन कुछ ख़ास
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( संशोधित )
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११. सुशील सरना जी
जीत पर मुस्कुराती है …
रात के स्याह अँधेरे में कोई जुगनू
किसी की अलसायी आँखों को
मयंक सा नज़र आता है
कहीं बुझते दिए की आखिरी लौ पर
किसीका इंतज़ार कहर ढाता है
कहीं रेत पर लिखा
मुहब्बत भरा पैगाम
लहर के कहर से मिट जाता है
अजब तमाशा है ये ज़िंदगी
उम्मीदों की बैसाखियों के सहारे
ये साँसों का सफर तय कर जाती है
रहती है जब तलक ज़िंदा
अपने वजूद पर इतराती है
कर्म के दर्पण में
गुनाहों के साये नज़र नहीं आते
हर तरफ उसे बस ज़न्नत नज़र आती है
रुक जाती है अचानक ठिठक कर
किसी मोड़ पर ज़िंदगी
जब उसे बेरहम अज़ल नज़र आती है
जिस्म बेबस हो जाता है
जिस्मानी ज़िंदगी
ज़मीनी ज़न्नत में दफ़्न हो जाती है
रूह आसमानी ज़न्नत की आस में
जिस्म को भूल जाती है
उम्मीदों के पंख
समय कुतर देता है
खबर ही नहीं होती
कब उम्मीदों के ढलान पर
ज़िंदगी साँसों से हार जाती है
न जिस्म रह पाता है
न रूह साथ निभाती है
बस दूर कहीं क्षितिज पर उम्मीद
अपनी जीत पर मुस्कुराती है
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१२. डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
बरवै
रूप-रंग सब ढरिगा रही न वास
फूल डारि पर अटका पिय की आस
कितनी बार उमर भर आयी ईद
आन मिलेंगे अब सो का उम्मीद ?
आस लिए धनि आयी थी ससुराल
वन-विहंग अब पिंजर में बेहाल
कभी बुझेगी चातक आकुल प्यास ?
जब तक है यह जीवन तब तक आस
मन के हो तुम काले सचमुच कृष्ण
आस भरी वह राधा मरी सतृष्ण
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१३. मनन कुमार सिंह जी
गजल
2122 2122 2122 212
आपका ऐसे यहाँ आना ठिकाना हो कभी
खिल उठे बगिया मिलन का तो बहाना हो कभी।
धूप का धोया पथिक मैं जल रहा हूँ रात दिन
रूप के जी नेह जल से अब नहाना हो कभी।
लय भरे थे दिन कभी फिर लय भरी थी रात वो
लौट आयें दिन वही फिर से तराना हो कभी।
भाव मन का भाँप लें हम बिन कहे बातें बनें
आ चलें फिर आजमा लें क्यूँ बताना हो कभी?
वक्त ने कितना सताया याद कर लें आज हम
छक चुके अबतक बहुत अब क्यूँ छकाना हो कभी?
कह रहा हर पल कथाएँ आज रह रह प्यार से
हो चुका अबतक बहुत फिर से फ़साना हो कभी।
नेह की बातें पुरानी पड़ सकी हैं कब भला
आज से आ फिर करें नजरें-निशाना हो कभी।
हो रहे बेघर बहुत अब बेरू'खी की मार से
हो अगर तो आपका दिल आशियाना हो कभी।
भूलता कब है जमाना जो हुआ करता सुखद
साथ हों गर आप तो सपना सजाना हो कभी।
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१४. कांता रॉय जी
आस
स्नेह के आँचल तले
एक बीज बोया था
आस की अभिलाष पाले
एक भूल बोया था
नींद से जागते ही
उम्मीदों के जल से
रोज सींचा करती थी
रोज आँखों से
नापती थी उसको
टक टकी लगा कर
रोज सोचा करती थी
आने वाला कल हरा होगा
आँचल मेरा भरा होगा
उम्मीदों की क्यारियाँ सजेंगी
जीवन कलियाँ ,पँखुडियाँ होंगी
मौसम ने ली अँगड़ाई
आस अभिलाष की हुई लड़ाई
खूब गरजी खूब बरसी
बाग बगीचे कर गई मिट्टी
हो गये सब गिट्टी गिट्टी
नमक डाल कर बोझल कर गयी
सपने सारे ओझल कर गयी
आस हो गई जल थल ,जल थल
टीस रह गई पल पल ,पल पल
ढूंढ रही हूँ दोमट मिट्टी
काली कादो कीचड़ मिट्टी
फिर रही हूँ आँचल आँचल
बीज की अभिलाष लिये
एक नई फिर आस लिये ॥
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१५. जयनित कुमार मेहता जी
(अतुकांत कविता)
हर “आम” के दिल में
दबी होती है कहीं
“ख़ास” होने की चाह
इसी “चाह” में
निहित होते अक्सर
खास-रूपी वृक्ष के बीज
ज़रुरत है
बोने की इसे
प्रयास-रूपी भूमि में
अंकुरित होगा
अल्पकाल में ही
एक नन्हा,प्यारा पौधा
बस अब,
चाहिए देखभाल पूरी
ध्यान रहे
कम न हो कोशिशों की बौछार
वरना,दम तोड़ देगा
सूख जाऐंगी
उम्मीदों की पत्तियां
सहेज कर रखना
मिलेगा प्रतीक्षा का फल
नियत समय पर
लहराएगा विशाल वृक्ष
और, तमाम नन्हे और पौधे
उसी की बदौलत
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१६. कल्पना भट्ट जी
आस
यह प्यास न बुझने पाएगी ,
नदी की लहर,
पहाड़ों की गूँज ,
पक्षियों का कलरव ,
न भूलने देगी |
एक दिन पर्बतों पर
बादलों को छूने की चाहत
सूरज से आँख मिंचोली
न भूलने देगी|
कहीं लम्बे पेड़,
कहीं रंग बिखेरती धरा ,
कहीं पपीहे की गूँज,
न भूलने देगी |
भंवरों का गुंजन,
एक गीत मधुवन का,
तितलियों की गुनगुन
न भूलने देगी |
इन वादियों की पुकार
इन हवाओं की किलकारियाँ
यह मखमली चादर
मेरी आस को पूर्ण होने देंगी?
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१७. सुनील वर्मा जी
बहाना
मैं चुप हूँ तब भी कोई फसाना ढूँढ लेती है..
शातिर लोगों की ये दुनिया कोई बहाना ढूँढ लेती है..
ना पानी से खास मतलब है जमीं को..
खून पसीना सब सोख लेती है !!
कितना भी कमजोर कहो औरत को..
पत्थर बन जाती है जब कोख देती है !!
उदासी के पल में तराना ढूँढ लेती है
शातिर लोगों की ये दुनिया कोई बहाना ढूँढ लेती है..
चिडिया ना करती है कमायी कोई..
वो हौसले से आबो दाना ढूँढ लेती है !!
उठाती है खतरा जो डूब जाने का..
वो कोशिश समंदर मे खजाना ढूँढ लेती है !!
शातिर लोगों की ये दुनिया कोई बहाना ढूँढ लेती है.
मैं चुप हूँ तब भी कोई फसाना ढूँढ लेती है..
शातिर लोगों की ये दुनिया कोई बहाना ढूँढ लेती है..
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१८. ईशान पथिक जी
आशा
पतझड़ की सूनी शाखों को
नित है हरियाली की आशा,
फिर से मानवता लौटेगी
जोह रहा पथ "पथिक" उदासा|
आजादी की आशा लेकर
वीरों ने दे दी कुर्बानी,
पर भारत के लोगों का है
मरा आज आँखों का पानी |
शहर-शहर है दहशत फैला
बस्ती-बस्ती आग लगी है,
अपने पुत्रों की करनी पर
भारत माँ स्तब्ध ,ठगी है |
घोर विषमता की बेला है
हर इन्सां का मन मैला है,
बीत गई वह हँसी-ठिठोली
कैसा सन्नाटा फैला है?
पर लौटेंगे स्वर्णिम दिन फिर
धीर धरो रे! प्यारी आशा,
द्वारे वन्दनवार सजाए
लिये आरती मेरी आशा |
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१९. मिथिलेश वामनकर जी
तनिक सम्भावना है शेष, प्रियवर आस बाकी है
न मानो हार जीवन से,
कठिन है पर बहुत उत्तम
जरा श्रम से संवारों तो
नहीं इससे भी कुछ अनुपम
चले बस सत्य के पथ पर,
करें परहित सदा मिलकर
अगर इस साधना के साथ कुछ विश्वास बाक़ी है
तनिक सम्भावना है शेष, प्रियवर आस बाकी है
घना तम घेर कर बैठा
मनुजता को मगर सुनियें
नई किरणों से सपनों की
चदरिया एक तो बुनियें
कि जिसकी छाँह में सुन्दर
सलोना विश्व का मंजर
नए युग की मशालों में अभी उजियास बाक़ी है
तनिक सम्भावना है शेष, प्रियवर आस बाकी है
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आदरणीया प्राची जी , संकलन में मेरी रचना के प्रस्तुतीकरण में संशोधन चाहती हूँ , जिस तरह से उत्सव में रचना रखी गई थी संकलन में उस तरह से नहीं आ पाई है , ओल्ड होम , बेरोजगार युवा और बच्चे के एहसासों के के बीच का गैप गायब है ,उसी तरह से ऊपर की दो भूमिका वाली पंक्तियों और शेष रचना के बीच का गैप भी नहीं है ,कृपया देख लें सादर
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