श्रद्धेय सुधीजनो !
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-75 (डायमण्ड जुबली अंक) जोकि दिनांक 14 जनवरी 2017 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.
इस बार के आयोजन का विषय था – "किसान".
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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1.आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
विषय आधारित प्रस्तुति (घनाक्षरी छंद)
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देवों की है कर्म भूमि, देश है ये धर्म भूमि, नदियाँ पवित्र सभी, गंगा वरदान है।
खेती है प्रधान यहाँ, लाखों हैं किसान यहाँ, शस्य श्यामला धरा ये, भारत की शान है॥
सीमा पर जवान हैं, मेहनती किसान हैं, रक्षक औ’ पालक ये, दोनों भगवान हैं।
मौसम की मार भी है, बैंकों से उधार भी है, शासन की बेरुखी से, मरते किसान हैं॥
भ्रष्टाचार मूल मंत्र, भ्रष्ट यहाँ सारा तंत्र, आत्महत्या करने को, बाध्य काश्तकार हैं।
उद्योग है व्यापार है, किसान ही आधार है, इंसान पशु पक्षी के, ये पालनहार हैं॥
मजदूर क्या किसान, जिसे देखो परेशान, निर्दयी अधिकारी हैं, रोना भी बेकार है।
गरीबों की उपेक्षा है, कैसी अपनी शिक्षा है, देती नहीं ध्यान कभी, अंधी सरकार है॥
चुनावों के दिन आये, रोज नई घोषणायें, किसानों को ठगना तो, नेता का कमाल है।
बनती जो योजनायें, फाइलों की धूल खायें, धीरे धीरे मरती हैं, साल दर साल है॥
दुबले को दो अषाढ़, कभी सूखा कभी बाढ़, खेत बिका औ’ मकान, भूख से बेहाल हैं।
हैरान काश्तकार हैं, निकम्मी सरकार है, अधिकारी नेता सब, देश के जंजाल हैं॥
जोताई हो बोवाई हो, निंदाई हो रोपाई हो, लहलहाते खेतों में, स्वेद है किसान का।
मेहनत का काम है, मिलता कम दाम है, उधार पूरी जिन्दगी, खेद है किसान का॥
शीत गर्मी बरसात, काम करे दिन रात, चिंता नहीं तन की ना, मान अपमान का।
हमेशा मुस्कुराता है, इस धरा से नाता है, खेती कर्म धर्म गीता, वेद है किसान का॥
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2. आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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चीर रहा वह विस्तृत भू को,
गिरे स्वेद उसके तन से छन |
झेल थपेड़े सदा प्रकृति के,
करे सुगंधित वो जग-उपवन ||
सार्थक जीवन करता प्रतिपल
हाय! स्थूल अस्थि चर्ममय तन |
घेरें सदा आपदा उसको
फ़िर भी अर्पित करता तन मन ||
तन उसका झुलसता जेठ में
ठिठुरता पूस की सर्द रात |
भीगता खूब वह सावन में
देता हँसकर मुसीबत मात ||
सुख से वंचित चिंतित उदास
झंझावातों में बन कठोर |
विचलित हृदय नही करे कभी
सुगम्य पथ करता लगा जोर ||
देख बिखरते निज के सपने
असहाय खण्डहर भी रोते |
हलधर के स्वेद प्रतिफलों से
धन-पति महलों में हैं सोते ||
कर्ज बोझ में दबा हुआ वह
जीवन गिरवी रख देता है |
सेठ महाजन मौत बाद भी
सूद मृत देह से लेता है ||
कौन भला है यहाँ चाहता
वह खुद में बने एक किसान ||
हलधर की पगड़ी में दिखते
दिल के बिखरे हुए अरमान ||
कोई न गर्व महसूस करे
पढ़ लिख कर भी गर हो किसान |
नौकरी व्यापार अगर न हो
झेलता घृणा और अपमान ||
किसान मरता नही भूख से
मरता बस वह तिरस्कार से |
ऋण की गठरी में उलझ उलझ
जूझता वह साहूकार से ||
हूँ कवि मैं, किसान बेटा भी
लिखता हूँ पर्चे पर पर्चा ||
बदहाली बदस्तूर जारी है
झूठी संसद करती चर्चा ||
अर्थतंत्र की इस दुनिया में
कंगाल बना रोता किसान |
कलम आज भी फिर कहती है
हलधर ही साक्षात भगवान ||
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3. आदरणीय समर कबीर जी
दोहा छंद
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इक इक का मुँह देखता, हसरत से दहक़ान
फ़सलें चौपट हो गईं , मुश्किल में है जान
होती रहे किसान को, क़दम क़दम जब मात
देश तरक़्क़ी क्या करे ,जब हों ये हालात
जो भी सुनता बात ये,वो होता हैरान
मिहनत करके भी सदा,भूका रहे किसान
देखो हुवे किसान पर ,इतने अत्याचार
पत्थर दिल इंसान भी ,रो देता है यार
सोने की चिड़िया कभी,था ये हिन्दुस्तान
अब ये हालत है यहाँ,भूका मरे किसान
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4.आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
नवगीत
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कठिन हुआ
जीवन उसका
कष्टों की भरमार है।
उसका रक्त हुआ पानी
श्रम से करता साधना
उसके भाग्य में लिखा बस
बिना समय के जागना
शाक,कनक ,दूध सरीखे
उपजाता सब खाद्य है
कृषक अन्नदाता कहते
जिसे, वही आराध्य है।
भूख मिटाने
मानव की
उसको लगे पुकार है।
सखी प्रकृति होती उसकी
देती उसका साथ जब
आँचल में करे कमाई
जिसके उसके हाथ तब
विषधर से पड़ता पाला
कीटों का जंजाल है
फटे पाँव टूटी जूती में
ऐसा उसका हाल है
रात व दिन
जीनस खातिर
रहती मारा-मार है
फसल पके वह हँस देता
खूब कमाई सोच ली
कीमत पूरी मिली नहीं
व्यापारी ने नोच ली
बिन वर्षा कुदरत मारे
आ जाती फिर बाढ़ है
बन जाती अरमानों की
कब्र यही प्रगाढ़ है
तंत्र और कुदरत
दोनों का
उसी पर प्रहार है।
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5. आदरणीय हेमंत शर्मा जी
अतुकांत
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हल्कू
कहीं मिल नहीं रहा था
पूरा गांव उसे ढूँढ रहा था
उसके परिवार के साथ
सुबह घर से निकला था
खेत पर जाने के लिए
पूरा दिन बीत जाने के बाद भी नहीं लौटा
खेत से
उसका बड़ा बेटा,
अभी चौदह पंद्रह वर्ष का ही था
अपनी माँ को समझा रहा था
तुझे दो तीन दिन से बुखार था
दवा लाने गये होंगे डॉक्टर के पास
झुटकी को कल,
क्लास से निकाल दिया था
मास्टरजी ने
उसकी किताबें लाने गये होंगे
हो सकता हैं वहीं से,
चले गये हों बैंक
कल ही तो नोटिस आया था
तीन साल से एक रूपया भी नहीं भरा
बैंक का ब्याज
तभी दौड़ते हुए आये
गाँव के कुछ लोग
पहला बोला
मिल गया हल्कू
दूसरा बोला
पेड़ पर लटका है
तीसरा बोला
पीपल के पेड़ पर
वही पीपल का पेड़
जो हल्कू के घर और खेत के बीच
चुपचाप खड़ा था
अपराधबोध से झुका हुआ
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6. आदरणीय चौथमल जैन जी
किसान
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जा खेतों में करता मेहनत , उठ भिन्सारे लेकर हल को।
बहा पसीना खेत जोतता , आराम नहीं करता इक पल को ॥
बीज बो आकाश को तकता ,दे बरसा मेघा अब जल को ।
पशु पक्षी कीटों ओ जनों से , करता रखवाली रातों-दिन को ॥
प्राकृतिक विपदाएं आकर , सदा डराती उसके मन को।
आनन्दित हो उठाता है वह , लह -लहाती देख फसल को
अन्न दाता है कहलाता , देकर अनाज सारे जग को
लुखी सूखी खाकर के ही , वह चलाता है जीवन को ॥
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7. आदरणीय डॉ विजय शंकर जी
किसान के पालनहार (अतुकांत)
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खेत बने ,
खलिहान बने ,
अन्न की वसूली हुयी ,
चौथाई से आधी तक ,
राजा बने , राजस्व बने ,
राजस्व के नियम बने ,
राज की आय बढ़ी ,
राज्य , बड़े राज्य बने ,
राजा की आय बढ़ी ,
उसकी चाह और बढ़ी ,
आय के स्रोत बढ़े ,
पर किसान का बोझ
कम नहीं हुआ ,
अन्न कमजोर हुआ ,
किसान लाचार हुआ ,
जिस अन्न से राज बना था ,
वही राज अन्न का पालनहार बना ,
किसान का पालन हार बना ,
किसान को राहत , कर्ज देने लगा ,
कर्ज माफ़ कर हुकूमतें करने लगा ,
हुकूमतें दुनियाँ चलाने वाले से बड़ी होने लगी ,
किसानों को जीवन देने लगी।
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8. आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी
किसान की पीड़ा (अतुकांत)
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बन बैठे हैं स्वार्थी नेता
इस देश का भाग्यविधाता,
खिला रहा है खट्टा-मीठा,
चटपटा भाषण,
बाँट रहा है स्वप्न
अच्छे दिन का आश्वासन |
चमचे खुश है
वे मस्त झूम रहे हैं,
पर भूखे मर रहे है
देश के अन्नदाता |
हाँ, अन्नदाता
वही जो अपने
खून पसीना बहाकर
प्रखर धूप और
मुसलाधार वर्षा में भीगकर
उगाता है अन्न,
भरता है पेट सबका,
वह है देश का किसान
देश का अभिमान |
किसान सबका पेट भर रहा है
पर खुद भूखा मर रहा है |
इसका सही कारण क्या है ?
जानने की ...
किसको परवाह है ?
खेत की जुताई
बुआई, निदाई, कटाई
फिर मढ़ाई. ढुलाई
खाद, कीट नाशक दवाई
सबको निगल गई
डायन महंगाई |
किसान लुटा गया है
एक मौन अनकहा
षड़यंत्र का शिकार हुआ है |
अनाज का उत्पादन मूल्य
जिसका दस रपये,
उसे मिलता है थोक में
केवल आठ रुपये,
बाज़ार में वही बिकता है बीस रुपये |
नफ़ा सब खा जाते हैं
सेठ और बिचौलिए |
किसान का मॉल
सेठ हो जाते है मालामाल |
किसान क्या करे ?
खेती करे ?
पलायन करे ? या
आत्महत्या करे ?
आर्थिक संकट गहरा है
छोटे किसान मुमूर्ष हैं
कभी यमदूत उसे बुला ले जाता है
कभी वही यमदूत को बुला लेता है |
आत्मा ह्त्या की कहानी
है बहुत पुरानी
पर कारण नई है,
नोट बन्दी ने
उसे और हवा दिया है,
रीड की हड्डी तोड़ दिया है |
वह आर्तनाद कर रहा है
चीख-चीखकर कह रहा है,
“कोई है ?
जो सुन सके, समझ सके
इस गरीब की जुबान ?
छीन लो हम से
‘अन्नदाता’ का मान
हमें दो अन्न और
बचा लो हमारी जान |
हम नहीं कर सकते
लम्बी इंतज़ार
हर दिन के नोन तेल लकड़ी के लिए
हमें है नगद की दरकार |
हमें दो अनाज का उचित दाम
कमजोर हम पर इस देश का अवाम |”
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9. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
ग़ज़ल
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सदा किश्त से लौ लगाए किसान|
रहे इश्क़ पर कैसे जाए किसान |
वो सर्दी की शब हो या गर्मी के दिन
कहाँ बाज़ मेहनत से आए किसान |
नहीं मा सिवा खेती धन्दा कोई
ग़रीबी को कैसे मिटाए किसान |
उठी फस्ल होता है ऐसा गुमां
खुशी यूँ न घर में मनाए किसान |
पड़े सूखे सब खेत पानी बिना
लबों पर हँसी कैसे लाए किसान |
सभी खाएँ जिसकी बनी रोटियाँ
वो खेतों में गल्ला उगाए किसान |
यूँ ही फस्ल तस्दीक़ होती नहीं
पसीना ज़मीं पर बहाए किसान |
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10. आदरणीय अहमद हसन जी
कविता (सॉनिट )
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यह गुबार और बुखारात कहाँ से आए
बादे सरमा समेत काइनात जम सी गयी
ठंड ना क़ाबिले बरदाश्त फ़ज़ा थम सी गयी
जिस्म ठठरा दिए दहक़ाँ में ज़िंदगी लाए
डाल रक्खा है अंगीठी पे ठंड ने जो असर
ठंड से जम से गये नर्म नर्म गर्म लिहाफ़
खेत खलियान हैं ओढ़े हुए बर्फ़ीले गिलाफ
खेत की सम्त चला हर किसान कस के कमर
हर शजर ठहरा ठहरा नीज़ ये कि यख बस्ता
हर तरफ धुन्द ठहरी ठहरी फ़ज़ा को सकता
राह चलना भी है दुश्वार मुसाफिर के लिए
फिर भी यह धुन्द धुएँ हर किसान के जलते दिए
तन पे ढकता हुआ कुहरे की सर्द चादर को
देख लो हर किसान निकला घर से बाहर को
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11. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी
सरसी छंद आधारित गीत
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आनी जानी हैं ऋतुएँ सब, हो जाती कुछ ख़ास
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
जेठ तपे तो करता है वह, कृषक भूमि तैयार |
और चाहता है असाढ़ से, पानी की बौछार ||
सावन माह बुझा देता है, जब धरती की प्यास,
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
हरियाली लाते हैं मौसम, उपजाते हैं अन्न |
हर्षित होता कृषक तभी फिर, रहता नहीं विपन्न,
दाम फसल के देते उसको, और अधिक उल्लास,
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
कड़ी धूप हो या हो जाडा, रुके न उसके पाँव |
देकर सारे जग को खुशियाँ, पायी उसने छाँव,
कष्ट भोगता उसका जीवन, हो फिर कोई मास,
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
दाम न होते खाद बीज के, तब होता है शोक |
कर्जा लेने से भी खुद को , कब पाता वह रोक,
सावन-भादों रूठें तो फिर, होता कृषक उदास,
नहीं बुझा पाते सर-सरिता, जब धरती की प्यास ||
करता है वह अंतिम क्षण तक, अनथक सदा प्रयास
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
चकाचौंध भी नए समय की, खींच रही है ध्यान |
कैसे इस आकर्षण से हो , कोई विलग किसान,
नहीं छोड़ता सुख सुविधा का, कभी किसी को पाश,
हो जाता है इसकारण भी, कोई कृषक निराश ||
दूर हताशा के होने का, होता जब आभास
तब किसान के मन जगती है, थोड़ी-थोड़ी आस ||
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12. आदरणीय टी. आर. शुक्ल जी
गीत
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घुट घुट कर निकले अपने सब जीवन के दिन रैन,
सपने में भी कभी न आया मन को क्षण भर चैन।
प्रकृति के परिवर्तन लख मैं मन को बोधित करता आया,
घूरे के दिन भी फिरते यह बारम्बार सिखाता आया।
दिन पर दिन , फिर भी मेरे बस, रोये सूखे नैन। सपने....
संघर्षों के समर क्षेत्र नित बहुविधि यंत्रण देते आये,
जीने की पर प्रबल चाह से प्राण स्वयं ही बचते आये।
कालचक्र की क्रूर द्रष्टि भी हुई बहुत बेचैन। सपने...
अन्तर्मन में व्यथित वेदना करुणा के पट करुण कर रही,
वर्षों से सुख शान्ति निबिड़ की नयी कथा का सृजन कर रही।
सतत मेघ से स्रावित होते पलपल चंचल नैन। सपने ...
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13. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
कुण्डलियाँ छंद
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हरियाली के बीच में ,हँसता हुआ किसान
नेता जी ने जीप में ,चित्र रखा है तान
चित्र रखा है तान , साथ में नारा भारी
हम किसान के मित्र , हरेंगे विपदा सारी
है कुर्सी की दौड़ ,भरी वादों की थाली
पहुँचे सत्ता द्वार ,भूल जाते हरियाली
जीवन में क्या गड गयी ,इस किसान के फाँस
फंदे में जो झोंक दी ,उसने अपनी साँस
उसने अपनी साँस, सभी दल खबर भुनायें
ले घटना की ओट, मगर के अश्क बहायें
इक दूजे की बैठ ,उधेड़ रहे हैं सींवन
इनकी है शतरंज ,दाँव पर उसका जीवन
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14. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी
उल्लाला छंद
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हल किशान का ना रुके, मौसम का जो रूप हो।
आँधी हो तूफान हो, चाहे पड़ती धूप हो।।
भाग्य कृषक का है टिका, कर्जा मौसम पर सदा।
जीवन भर ही वो रहे, भार तले इनके लदा।।
बहा स्वेद को रात दिन, घोर परिश्रम वो करे।
फाके में खुद रह सदा, पेट कृषक जग का भरे।।
लोगों को जो अन्न दे, वही भूख से ग्रस्त है।
करे आत्महत्या कृषक, हिम्मत उसकी पस्त है।।
रहे कृषक खुशहाल जब, करे देश उन्नति तभी।
है किशान तुझको 'नमन', ऋणी तुम्हारे हैं सभी।।
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15. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
गीत (दोहा छंद)
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रुदन करे ये लेखनी,हिलती नहीं जबान।
धरतीसुत के हाल को,कैसे करूँ बयान।।
माघ पूस की रात है,जाड़े की भरमार।
गद्दे मखमल ना मिलैं, जीना है दुश्वार।
बिखर गए हैं स्वप्न सब,बिखर गए अरमान।धरतीसुत -----
टूटी जूती पैर में,करती हरदम तंग।
स्वेद खेत में डोलता,लाता है जो रंग।
पाई पाई जोड़कर,रखता है अरमान।धरतीसुत------
थाली में रोटी नहीं,नहीं चिलम में आग।
परहित खातिर रात दिन,करता भागम भाग।
घर में चूहे खेलते,बेटी हुई जवान।धरतीसुत------
सूदखोर की भौंह जो,हिलती है इक बार।
सारा भय से सूखता,हाड़ मांस का सार।
बीते पल को याद कर,चिन्तित हुआ किसान।धरतीसुत-------
भोली धरती गाँव की,कहती है झकझोर।
जागो हल्कू नींद से,आ पहुँची है भोर।
अबकी अच्छी है फसल,कर दो कन्यादान।धरतीसुत------
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16. मिथिलेश वामनकर
गीत
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मुग्ध क्यों कवि ग्राम्य जीवन के लिए?
भूमि की अनुभूति में सोंधी महक
और बरगद के खगों की वो चहक
स्वप्न से बाहर निकलकर देखिये
झूलता फंदे पे होगा इक कृषक
ग्राम मधुमय अब न लेखन के लिए
बूँद वर्षा की प्रथम इक तीर सी
ये समस्या फिर लगी गम्भीर सी
चूँ रही खपरैल आँखों को चुभे
फिर खड़ी फसलें दिखी तस्वीर सी
मृत्यु आमंत्रण ये निर्धन के लिए
जब उगलता अग्नि सूरज ग्रीष्म का,
गाँव अनथक जो, लगे अब तो थका
जल बिना सब कंठ सूखे ही रहे
खो गया सौन्दर्य भी तालाब का
बन श्रमिक निकले है यापन के लिए
शीत-लहरें, हाड़-कंपन हर दिशा
साथ पाले के उतरती है निशा
अंकुरण को कुछ तरसते खेत हैं
याचना में देखते अम्बर दिशा
ग्राम अब अभिव्यक्त निर्जन के लिए
जो अरबपति उसका ऋण तो माफ़ है
पर कृषक को यह न सुविधा, साफ़ है
पाई पाई के लिए तरसा किया
अर्थतंत्रों का अजब इंसाफ है
यह व्यवस्था स्वावलंबन के लिए?
अन्न उपजायें वही भूखे खड़े
जो बनायें घर, सड़क पर हैं पड़े
और संतति ज्ञान से वंचित यहाँ
गाँव के कब हो सके चिकने घड़े?
मत लिखों अब गीत कीर्तन के लिए
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द्वितीय प्रस्तुति : ग़ज़ल
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सदा परीक्षा की अग्नि में भी सहज चला जो, किसान है वो
गिरा हजारों ही बार लेकिन तुरत उठा जो, किसान है वो
कई दिनों से नदी, सरोवर, नहर, कुएँ सब पड़े हैं सूखे
मगर सजल दो नयन झुकाकर खड़ा हुआ जो, किसान है वो
न बीज उन्नत, न खाद उत्तम, न कीटनाशक ख़रीद पाया
कहाँ थी फुर्सत, कतार में ही लगा रहा जो, किसान है वो
ये अर्थतंत्रों की नव-व्यवस्था भी किस दिशा में निकल पड़ी है
विकास चक्की चली तो लेकिन प्रथम पिसा जो, किसान है वो
अगर पसीना जो कम पड़े तो वो सींच देता है रक्त से भी
विकट दशा में भी खेत सारा रखे हरा जो, किसान है वो
लहू से अपने ही शुष्क-माटी को सींचकर जो उगाया सोना
उसे ही माटी के दाम मंडी में बेचता जो, किसान है वो
न वो महाजन, न कोई बैंकर, न वो प्रशासक, न कोई नेता
पहाड़ सा ऋण चुका न पाया, अभी मरा जो, किसान है वो
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17. आदरणीय रामबली गुप्ता जी
कुंडलिया छंद
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उपजाते फल-सब्जियाँ-अन्न धरा को चीर।
कृषक न श्रम से हारते, कभी न छोड़ें धीर।।
कभी न छोड़ें धीर, प्रकृति के कष्ट सहे नित।
अनपढ़ और गरीब, सदा पर सोचें परहित।।
गर्मी हो या ठंड, न किंचित ये घबराते।
मृदा स्वेद से सींच, स्वर्ण भू से उपजाते।।1।।
बेशक अपने देश में, कृषक बड़े बेहाल।
सरकारी सहयोग तो मिलना हुआ मुहाल।।
मिलना हुआ मुहाल, योजनाएं बनतीं नित।
पर क्या सच में भ्रात! कभी होता इनका हित?
भ्रष्ट तंत्र का दैत्य गटक लेता सारा हक।
पर कृषकों की बात, दिखे दावों में बेशक।।2।।
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18. आदरणीया सीमा मिश्रा जी
शाश्वत-व्यथा (अतुकान्त)
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मैं दबा हूँ, मैं उगा हूँ
मैं कब पनपा, कब बड़ा हुआ, याद नहीं
पर हुआ हूँ, पल्लवित-पुष्पित
जरा सा ख़ुशी से भी पगा हूँ!
कभी तृषित कभी हर्षित, चकित भी हुआ!
खरपतवारों से लड़ा मैं, और शोषित भी हुआ हूँ!
मौसम भले कोई आये या जाये
अतिवृष्टि, पाला और कोहरा
जड़ों को गाड़कर मै बस खड़ा हूँ!
खडी है लीलने मेरे हिस्से की भूमि
चारों ओर से लपलपाती बलाएँ
और मैं काठ की तलवार लेकर
रणभूमि में अकेला ही अड़ा हूँ!
बंजर कर रही है मुझे कुछ लालसाएं
दिखाकर स्वप्न कोरे, स्वर्णिम दिनों के
आशा से हताशा से, हरियाली देखता खड़ा हूँ!
इस प्रश्न का उत्तर दे सको कोई, तो दे दो
मैं खेत हूँ कृषक का, या कृषक हूँ खेत का
मैं माटी के मोहवश, गहरे गड़ा हूँ!
बस खड़ा हूँ!
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19. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी
ग़ज़ल
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रात गयी, न विहान हुआ कुछ
अपने हाथ विधान हुआ कुछ।
बलि वेदी पर जान निछावर
करता रोज, जवान हुआ कुछ?
तर्पण खेतों में जीवन कर
पढ़ता पाठ, किसान हुआ कुछ?
वेद-पुराण पखार निकलता,
कहिये टेर विज्ञान हुआ कुछ?
अनपढ़ और अजान बढ़े हैं,
कर में एक निशान हुआ कुछ।
झकझोरे हम खाते आये
अच्छा दिन इमकान हुआ कुछ।
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20. आदरणीय अभिषेक कुमार सिंह जी
गज़ल
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जड़, निरंकुश, मूढ़ शासक बन न जाये
चोर फिर से राज्यपालक बन न जाये
बात करनी अब जरूरी हो गयी है
अन्नदाता है वो याचक बन न जाये
एक चिंगारी जो ठंढ़ी है फिजां मे
क्षोभ की गर्मी से दाहक बन न जाये
मौन का उपहास करना बंद कर तू
हो मुखर ये प्राणघातक बन न जाये
क्रांति को फिर हमे मजबूर मत कर
डर! की कोई लोकनायक बन न जाये
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द्वितीय प्रस्तुति : किसान
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भाग्य के वश मे नही वो
कर्म को पहचानता है
तुम न जानो,हम न जाने
खेत उसको जनता है
अन्नपूर्णा मां को अपने
मां के जैसा मानता है
पुत्र का क्या धर्म होता
पूर्णतः पहचानता है
बारिशों मे आंधियों मे
खेत के रक्षार्थ रहता
हो फसल आबाद मन मे
बस यही एक स्वार्थ रहता
खून बन जाये पसीना
मुख से कब है आह करता
पैर मे कांटे चुभे हों
वो नही परवाह करता
पर किसानो को कहाँ ये
राष्ट्र है सम्मान देता
स्वार्थ निर्मित नीतियों से
नित्य नव अपमान देता
जो दलाली कर रहे हैं
कर रहे धन की उगाही
कर्ज मे डूबे हुए हैं
खेत के जो हैं सिपाही
बन रहे मजदूर आकर
फैक्टरियों मे जो किसान
क्या सुनायें ये बिचारे
अपने दिल की दास्तान
मैं नही हूँ जनता कब
ये बंद हाहाकार होगा
कब दशा बदलेगी इनकी
कब देश का उद्धार होगा
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21. आदरणीय सुशील सरना जी
धरती पुत्र किसान (अतुकांत)
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झूठ है
सामंतवादी युग
समाप्त हो गया
कल भी
गिरफ्त में था
आज भी
गिरफ्त में है
कर्ज़े के
जानलेवा जाल में
तिलमिलाता
धरती पुत्र
किसान
अन्धकार का
साथ देते
वादों के सूरज को
रोज निगल
अपनी भूख मिटाता
वो देखो
टूटे छप्पर के नीचे
अपने हल को
सिरहाना बनाये
आसमान को निहारता
चुपचाप सोया
असहाय
धरतीपुत्र
किसान
ढूंढता है
आज वो उस शख़्स को
जिसने
जय जवान जय किसान के
एक ही नारे से
बना दिया था उसे
किसान से भगवान्
वक्त की गर्द में
नारे कहीं सो गए
ज़मीनें सिकुड़ती गयी
कंक्रीट के जंगल बढ़ते गए
कभी अकाल
कभी कर्ज़
कल भी इन्हीं से
लड़ता था
आज भी इन्हीं से
लड़ता है
कभी कभी
हार के
स्वयं को साँसों से
मुक्त कर देता है
पूरे मानव जन का
पेट भरने वाला
धरती पुत्र
किसान
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22. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
सदा काम को दे अन्जाम (वीर/आल्हा छंद)
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उपजाता है अन्न खेत में, श्रमिक सरीखा उसका काम,
शीत पड़े, आतप से झुलसे, सदा काम को दे अन्जाम |
दोहन करके कृषक समय पर, करे खेत में समय व्यतीत,
अमृत वर्षा फले तभी तो, तभी कृषक की होती जीत ||
धर्म मानता खेती को ही, लिए फावड़ा जोते खेत,
बैलों की जोड़ी को पूजे, सोना उगले जिसकी रेत ||
बूँद बूँद को आज तरसते, खाली अब सारे नल-कूप
पाँव-पसारे शहरों ने जब, उजड़ गए खेतो के रूप ||
शीत कांपता था जिससे ही, परेशान वह आज किसान
आतप ठण्डा पड़ जाता था, बिगड़ गयें उसके दिनमान ||
सदा उदार दुनिया का भरते, संकट में अब उसके प्राण
लील रहे उद्योग जमीनें, बढ़ते जहाँ नगर पाषाण ||
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23. आदरणीय मुनीश ‘तन्हा’ जी
ग़ज़ल
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हक मिलेगा किस तरह अब किसान को
लूटते हैं हर जगह जब किसान को
देख भाषण ही मिले और कुछ नहीं
खाद पानी है मिला कब किसान को
भाव भी तो गिर गए जब फस्ल हुई
दाम कम दें आढती अब किसान को
रोज उसके नाम पर हो रहा दगा
हैं समझते वोट ही सब किसान को
सर्द मौसम औ पशु खेत चर गए
मारने पे है तुला रब किसान को
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24. आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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आँख तके नभ की ओर, बाट देखत किसान
बरखा कब तुम आ रही ,कब बहरे खलिहान
मौसम हो बरसात का, मृदा महक सब ओर
रखकर कांधे हल को, चला खेत की ओर
भरे दूसरो का पेट, देकर अपनी जान
नेता सब कुछ लुट गया, श्रमिक बना किसान
कर्ज भूख से है तंग, देता अपनी जान
पेट भरता मानव का, बने देश की शान
मिले गेहूँ की लागत, जब धातु से भी कम
डोरी बनी फंदा फिर, नहीं किसी को गम
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25. आदरणीय दयाराम मेठानी जी
मुक्तक
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सौ सौ दुखड़ों के संग वतन में जीता है किसान,
भूख गरीबी का भी सदा जहर पीता है किसान,
कभी मौसम ने तो कभी कर्ज ने है मारा उसे,
है अन्नदाता पर सदा सुख से रीता है किसान।
मेहनत का उचित फल किसान को कभी मिलता नहीं,
इस कारण घर में दो वक्त चूल्हा भी जलता नहीं,
विधाता ने ये किन कर्मों का फल दिया किसान को
कि दुख दरिद्रता कर्ज का सूरज कभी ढलता नहीं।
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26. आदरणीय सतीश मापतपुरी जी
विषय आधारित प्रस्तुति
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देश है कृषि प्रधान , जय किसान नारा है ।
फिर किसान ही यहाँ , क्यों बना बेचारा है ?
सुनते थे बड़ों से उत्तम कर्म ही किसानी है ।
मध्यम व्यवसाय अधम चाकरी निभानी है ।
पर उलट ही बह रही , समय की कैसी धारा है ?
फिर किसान ही यहाँ , क्यों बना बेचारा है ?
सबका पेट भर रहा जो सबको ही खिलाता है ।
उसके बच्चे भूखे हैं ये कैसा अन्नदाता है ।
खुदकुशी वो कर रहे हैं , कौन हत्यारा है ?
फिर किसान ही यहाँ , क्यों बना बेचारा है ?
पानी की जगह जो फसलें खून से हैं सींचते ।
लू की जो थपेड़े सहते बारिशों में भींजते ।
फसल जो उगाता वो , बिचौलियों का मारा है ।
फिर किसान ही यहाँ , क्यों बना बेचारा है ?
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27. आदरणीय राजेश कुमारी जी
गीत
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मन्दिर में बजती घंटियाँ ,मस्जिद में पाक अजान
गन्ने जब लाता खेत से ,बुग्गी में एक किसान
झिलमिल नव बूँदें ओस की, वाष्पित अद्दभुत विन्यास
रहट तलैया नल बावड़ी,सूरज की हरते प्यास
हँसती माटी भी खिलखिला ,छेड़े जब घुघ्घी तान
गन्ने जब लाता खेत से ,बुग्गी में एक किसान
नव गुड़ की खुशबू गाँव में ,फैले जब चारो ओर
क्रेशर औ मिल के नाद से , जागे नव उजली भोर
शक्कर गेहूँ गुड़ दाल से,ऊर्जित है हिन्दुस्तान
गन्ने जब लाता खेत से ,बुग्गी में एक किसान
चिलचिलाती गर्म धूप हो ,सर्द कँपकपाती रात
ओला अंधड़ भूकंप हो , या आँधी हो बरसात
विचलित ना होता लक्ष्य से ,श्रद्धये वो मनुज महान
गन्ने जब लाता खेत से ,बुग्गी में एक किसान
.
सियासतों के अब जाल में , है फँसा कृषक लाचार
बन काल सर्प क्यूँ आजकल , डसता इनको बाजार
इनसे भारत की शान है , इनसे ही है सम्मान
गन्ने जब लाता खेत से ,बुग्गी में एक किसान
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द्वितीय प्रस्तुति : अतुकांत
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वो सूरज की अगन से
भूख मिटाता है
अनुद्विग्न चन्द्र की
शीतलता से प्यास बुझाता है
रक्त नलिकाएं बदन में
मैराथन करती हैं
वो पसीने की नदिया बहाती हैं
माटी से यारी रखता है,
उसके नयन शब्द भेदी बाण हैं
जिनसे मेघ विच्छेदन करता है
वो पाताल से अमृत घट लाता है
माटी की प्यास बुझाता है
धरा की मांग बीजों से भरता है
वो बंजर धरा को,
मातृत्व का सुख दिलवाता है
फसल उसकी संतान है
वो रात दिन लालन पालन करता है
वो रोटी का टुकड़ा,
जन जन के मुख तक पहुँचाता हैI
वो अद्वित्य मानव है ,वो कर्मवीर है,
वो श्रधेय कृषक है, वो श्रधेय कृषक है II
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28. आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी
क्षणिकायें
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(1)
कृषि की
उन्नत तकनीक
किसानों के खेत
जोत रही है
मगर उनकी
आत्म हत्याएँ
देश के मुँह पर
कालिख पोत रही है।
(2)
देश
बदल रहा है
देश तरक़्की
कर रहा है
अन्नदाता
अभावों में
पल रहा है।
(3)
अथाह अन्न भंडार
सड़ रहे गोदाम
वोट की डिमांड
लेकिन
किसान के घर में
पड़ा अकाल।
(4)
देश के
सुदूर गाँव से
जब किसान की
ख़ुदकुशी की
ख़बर आती है
तो मीडिया
सिर फुटौवल नहीं करता
क्योंकि यह तो
अब संस्कृति बन चुकी है।
(5)
किसान खेत में
बीजों को ही नहीं बोता
बल्कि-
भ्रष्ट व्यवस्था
उचित मूल्य का अभाव
और कर्ज़दारी भी
साथ में बो देता है।
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29.आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
गजल
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सारे जहाँ की भूख तो हरता किसान है
ये भी है सच कि भूख से मरता किसान है
खेती महान यज्ञ है बहुजन हिताय भी
अध्वर्यु-कर्म भाव से करता किसान है
मौसम से और गाँव के ठाकुर दबंग से
बेटी के हुस्न आब से डरता किसान है
कांटो भरी तमाम उम्र काटनी उसे
हर पाँव फूंक-फूंक के धरता किसान है
खुद काटता है जिदगी सारी अभाव में
भण्डार किन्तु सेठ का भरता किसान है
सूखी फसल तमाम बढ़ा बोझ कर्ज का
पतझर के सूखे पात सा झरता किसान है
लुटती है बेकसी में जो जोरू की आबरू
आंसू की एक बूँद सा ढरता किसान है
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30. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी
हाइकू
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[१]
भाव न ताव
जवान या किसान
पाता अभाव
[२]
अपनी सेना
अपनी काश्तकारी
आर या पार
[३]
स्वप्न सलोने
लहलहाते खेत
किसान बोने
[४]
सोन चिरैया
ज़मीन किसान की
गुम या फुर्र
[५]
काश्तकारियां
फसल बाकमाल
देश निहाल
[६]
रोता किसान
भरोसे भगवान
दान, विज्ञान
[७]
पत्थर दिल
उद्योग, उपभोक्ता
भूखे किसान
[८]
आर या पार
श्रम, साधना, त्याग
कृषक भाग
[९]
पत्नी, सन्तान
शहर मार्ग पर
ताके किसान
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31. आदरणीय सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी
राम आसरे की बदरंग टोपी (अतुकांत)
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कहने को नदी भरपूर बहती है
न जाने क्यों राम आसरे के खेत की धरती
साल दर साल सूखी ही रह जाती है .
राम आसरे अपनी बदरंग टोपी के साथ
बड़े सरकारी अफसर से पूछता है
साहब आपके दफ्तरी बाबू की
फाइल ने बताया है कि
ऊपर से नदी में भरपूर जल छोड़ा जाता है.
फिर क्यों मेरे खेत तक आते - आते
नदी का सारा जल सूख जाता है .
सरकारी अफसर महंगे सूट के अंदर
अपनी मोटी और खूबसूरत टाई को
ठीक करते हुए कहता है
राम आसरे , बाबू की फाइल झूठ नहीं बोलती
बाकि सब तुम्हारी नजर का फेर है
नदी ही तो है , उसकी चंचल धारा का क्या भरोसा
क्या पता अपना सारा जल
राह में बैठे जंगली जानवरों के साथ
ढेर सारे मगरमछों को दे आती हो .
राम आसरे अपनी आँखों को मीच कर पूछ बैठता है
साहब , जल तो आप नदी में मेरे लिए छुड़वाते हो
फिर जंगली जानवरों पर नदी इतनी कृपालू क्यों
राम आसरे इतनी सी बात
अगर मैं तुम्हे समझा पाता
तो तुम्हारी टोपी इतनी बदरंग और
मेरी टाई में इतनी उमंग न होती .
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32. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
कुण्डलिया छंद
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जिसके जीवन से जुडी, भारत की पहचान|
कृषि-प्रधान बन विश्व में, उभरा देश महान||
उभरा देश महान, श्रेय जिसको है जाता|
वह भारत का लाल, सपूत किसान कहाता||
सत्य गिनाये नाम, व्यर्थ आखिर फिर किसके|
देश जगत पहचान, बनी जीवन से जिसके||
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समाप्त
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आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी हीरक जयन्ती समारोह में प्रस्तुतियों के त्वरित संकलन एवम सफल आयोजन के लिए हार्दिक बधाई। मेरी प्रस्तुति को संकलन में सम्मिलित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका. सादर
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका. यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित. सादर
घ) आदरणीय मिथिलेश जी, आपकी पहली रचना एक सधी हुई नज़्म है जिसकी भाषा तत्सम शब्दावलियों के बाहुल्य के बावज़ूद हिन्दुस्तानी है. शिल्प की दृष्टि से सधी हुई नज़्म कृषक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को उभारती हुई बढ़ती जाती है. अंत तक आते-आते पाठक विवशकिसान की विडंबनाओं पर निरुपाय हुआ स्वयं को कोसता रह जाता है. इस दशा में नज़्म की आखिरी पंक्ति ’मत लिखो यह गीत कीर्तन के लिए’ को अवश्य ही ’मत लिखो अब गीत कीर्तन के लिए’ होना था. कीर्तन और विरुदावलियों से मुग्धावस्था में पड़ा प्रशासन तनिक सुधि लेता नहीं दिखता, मन कसैला हो जाता है. यही इस प्रस्तुति की सफलता है.
आपकी कोशिश बिला शक बार-बार बधाई की पात्र है.
दूसरी प्रस्तुति ग़ज़ल है. और मैं इस ग़ज़ल के अशआर के कहन पर दंग हूँ. क्या शेर हुए हैं !
ये अर्थतंत्रों की नव-व्यवस्था भी किस दिशा में निकल पड़ी है
विकास चक्की चली तो लेकिन प्रथम पिसा जो, किसान है वो
अगर पसीना जो कम पड़े तो वो सींच देता है रक्त से भी
विकट दशा में भी खेत सारा रखे हरा जो, किसान है वो
लहू से अपने ही शुष्क-माटी को सींचकर जो उगाया सोना
उसे ही माटी के दाम मंडी में बेचता जो, किसान है वो
न वो महाजन, न कोई बैंकर, न वो प्रशासक, न कोई नेता
पहाड़ सा ऋण चुका न पाया, अभी मरा जो, किसान है वो
कई बार सीधी-सादी सपाट बातें वो असर करती हैं जिस असर की समाज को वाकई ज़रूरत होती है. आपकी इस ग़ज़ल के शेर इसी ज़रूरत को पूरा करते हैं. मैं आपकी रचनाओं के पाठक के तौर पर आपकी एक कामयाब रचना से मुग्ध हूँ. हार्दिक बधाइयाँ ..
ङ) भाई रामबली गुप्ता जी की दोनों कुण्डलिया छंदों की रवानी और उनका कथ्य प्रसंग और प्रदत्त शीर्षक के सापेक्ष है. हार्दिक बधाई.
च) आदरणीया सीमा मिश्राजी की अतुकान्त कविता प्रभावित करती है. कविता को और कसा जा सकता था. इससे इसका प्रभाव और व्यापक होता. वैचारिक कविताओं में शब्दों और भावों के दुहराव से जबतक बहुत ही आवश्यक न हो बचना चाहिए. वैसे आपकी सोच और उसकी अभिव्यक्ति ध्यानाकृष्ट करती है. हार्दिक बधाई.
छ) आदरणीय मनन जी, मात्रिक विन्यास में सधी आपकी ग़ज़ल भली-भली लगी. डायमण्ड जुबली अंक में प्रभावी सहभागिता हेतु हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ
ज) आदरणीय अभिषेक सिंह की पहली प्रस्तुति प्रदत्त शीर्षक को कत्तई संतुष्ट नहीं करती. वस्तुतः इस रचना को आयोजन के संकलन में होना चकित भी करता है. अलबत्ता, दूसरी प्रस्तुति काव्य महा-उत्सव के प्रदत्त शीर्षक के अनुसार शाब्दिक हुई है इस हेतु हार्दिक बधाई. वैसे ग़ज़लकार से बहर को निभाये रखने की अपेक्षा होती ही है. चाहे वो नज़्म ही क्यों न हो. दूसरी रचना रमल के मुज़ाहिफ़ सूरत में निबद्ध है, इसीलिए कह रहा हूँ.
झ) आदरणीय सुशील सरना जी, आपकी अपनी शैली है, जिसके माध्यम से आप स्वयं को रचना के सापेक्ष अभिव्यक्त करते हैं. हार्दिक बधाई आदरणीय.
वैसे पंक्तियों को अनावश्यक न तोड़ा जाता तो कविता और पठनीय होती.
शुभ-शुभ
क्रमशः
जय-जय ..
आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरी प्रस्तुतियां पसंद आई, मेरा प्रयास सार्थक हो गया. प्रथम प्रस्तुति में आपके मार्गदर्शन अनुसार 'यह' को 'अब' कर दिया है. आपकी प्रशंसा पाकर अभिभूत हूँ. उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन
जय हो ..
सुप्रभात सर,
निवेदन ..... एक प्रश्न - नज़्म के अंतर्गत गीत आता है?
हिंदी का गीत उर्दू में नज़्म कहलाता है। उर्दू बहरों पर निबद्ध पंक्तियों से बनी रचना नज़्म होती है।
उस हिसाब से कई गीत-नवगीत नज़्म ही तो हैं। लेकिन उनका गठन तत्सम-देसज शब्दों में होता है।
आभार सर
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