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आदरणीय सतविन्दरजी, आपकी लघुकथा का विन्यास तो कमोबेश सही है किन्तु प्रदत्त शीर्षक को यह प्रस्तुति कैसे संतुष्ट कर रही है कुछ अधिक समझ में नहीं आया. हो सकता है मैं शीघ्रता में हूँ.
बहरहाल, सहभागिता और बेलौस रचनाकर्म केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ
शुभेच्छाएँ
अवश्य आदरणीय सतविन्दरजी. पुनः देखता हूँ.
जय-जय
'बावला'
"ये करेगा श्राद्ध ?पल भर को एक जगह टिक कर बैठ नहीं सकता ये बावला "I 15 ,16 साल के मंद बुद्धि रघु को देख पंडित मिश्रा ने मुहँ बिचका दिया I"
"बच्चों जैसा भोला चंचल है ,पर हमारी तो ये ही संतान है Iचार साल का था जब इसके बाबूजी लाये थे इस अनाथ कोI आप तो सब जानते ही हैं भैया जी "I अपने से चिपक कर बैठे रघु को, माँ प्यार से थप थपा रही थीI
"अरे ,शक्ति भैया को कौन नहीं जानता बहन जी I दूर दूर तक उन जैसा तैराक नहीं था I कसम उठा रखी थी कि कम से कम इस घाट में तो किसी को डूबने नहीं देंगे I अपनी धुन के चलते बेचारे खुद ही भेंट चढ़ गए गंगा मैया की I उन जैसे व्यक्ति का श्राद्ध विधान से और सही हाथों से होना चाहिए कि नहीं ?"
"ये रघुवा भी अपने बाबूजी जी जैसा ही तैराक हैI,देख लेना आप किसी दिन "I माँ के भरोसे की ख़ुशी रघु की आँखों में चमकने लगी I
"वो सब ठीक है ,पर इसके जात धर्म का भी कुछ पता है ?"
"मिश्रा जी ,मेरा बेटा सुबह से उपवास में है Iआप श्राद्ध आरंभ करवा दें तो कृपा होगी I" भैया जी से मिश्रा जी...माँ का कड़क लहजा भांपने में चूक नहीं की पंडित मिश्रा ने I
"आ बैठ जा ,और संकल्प ले " तल्खी छिपा नहीं पा रहे थे पंडित जी I
रघु परेशान हो माँ को देखने लगा I
"कुछ पूजा पाठ करते हैं ना बेटा ,तो हाथ में जल और अक्षत वगेहरा लेकर पहले संकल्प लेते हैं उस पूजा को करने का I चल अंजुरी बना और हाथ बढ़ा I" पंडित जी की नज़रों को अनदेखा कर वो बेटे में ही व्यस्त थींI
रघु की अंजुरी में सामग्री रख वो कुछ श्लोक बुदबुदा ही रहे थे कि अचानक रघु बैचैन हो उठा I घाट में कुछ शोर हो रहा था I रघु झटके से खड़ा हुआ और घाट की तरफ दौड़ लगा दी Iअगले ही पल वो लहरों में था I
"देखा ,कैसे भाग गया संकल्प अधूरा छोड़ करI बावला कहीं का "I तसले में तैरते अक्षत रोली को देख पंडित जी भुनभुना रहे थे I
" वो ही तो पूरा कर रहा है भैया जी I देखिये , ला रहा है बचा के बाहर उस डूबते को I सच्चा बेटा है किनहीं अपने बाबूजी का "?
मौलिक व् अप्रकाशित
आदरणीय प्रतिभा जी शुरू-शुरू लगा कि लघुकथा बेकार ही विस्तार ले रही है मगर जब अंत तक पढ़ता गया तब लगा यह विस्तार जरूरी था ताकि लघुकथा को ठीक से समझाया जा सके. आप को इस अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई.
कथा को समय देकर प्रत्साहन देने के लिए हार्दिक आभार आपका आदरणीय ओमप्रकाश जी
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