आदरणीय साथियो,
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भविष्य
आज श्याम का मन काम पर जाने का नहीं कर रहा है। वह अपनी पत्नी से बोला - "आज हिम्मत नहीं हो रही है काम पर जाने की। पूरा बदन टूट रहा है।"
पत्नी सरला बोली- "कैसे मन करेगा। चार दिन से तुम बीमार ही चल रहे हो। फिर भी लगातार काम पर जा रहे हो। मैं तो कल ही मना की थी कि पहले दवा ले लो परन्तु तुम माने नहीं।"
श्याम लम्बी स्वांस लेते हुए बोला -"क्या मेरा मन नहीं करता कि दवा ले लूँ, परन्तु डॉ की फीस ही इतनी है कि जुगाड़ नहीं हो पा रहा है। जब से तुम पेट से हो, तुम्हारे दवा में ही इतना ख़र्च हो जा रहा है कि मेरी पूरी कमाई कम पड़ जाए रही है। एक दिन काम पर न जाऊँ तो इस महँगाई में घर का चूल्हा ही न जले। उस पर से रोहन की पढ़ाई का ख़र्च।"
सरला तुनक कर बोली -"तो क्या इस तरह बिना इलाज़ का मरना है? मैं तो तुमसे रोहन के पैदा होने के बाद से ही बोली थी कि कोई उपाय करो, अब हमें और बच्चा नहीं चाहिए। इस ग़रीबी में रोहन को ही पढ़ा लिखा कर उसका भविष्य बना दें, वही हम लोगों के लिए बहुत है। परन्तु तुम मेरा कहना माने ही कब?"
श्याम सरला को समझाते हुए बोला - अरे सरला, तुम सब जानते हुए भी अनजान बनती हो। मैं तो तुमसे बात किया था कि दो बच्चें होंगे तो भविष्य में एक दूसरे का सहारा बनेंगे। और इस बच्चे के बाद हम लोग कोई न कोई उपाय कर ही लेंगे"।
सरला फिर तुनकते हुए बोली- "भविष्य के चक्कर में वर्तमान भी बर्बाद कर दें क्या?" हम दोनों लोग काम करते तो घर कितनी आसानी से चल जाता लेकिन नहीं। रोहन भी ऑपरेशन से हुआ और उस समय कितना ख़र्च आया था। इस बार ऐसा हुआ तो हम लोग बिक ही जाएँगे।"
श्याम खाँसते हुए सरला के पास आकर बोला-"उसकी चिंता मत करो, मैं कुछ न कुछ उसके लिए बचा रहा हूँ।"
सरला -"बचा रहे हो तो उसी पैसे से अपना ईलाज क्यों नहीं करते? मेरे में तो अभी एक महीने का समय है।"
श्याम सरला का हाथ पकड़ते हुए बोला-"पर सरला इतना नहीं बचा पाया हूँ कि उसमें से ख़र्च करूँ। मुझे मामूली बुख़ार है और मैं धीरे -धीरे ठीक हो जाऊँगा। तुम्हारे आपरेशन में बहुत ख़र्च आएगा। अगर उसमें से पैसा उठा दिया तो उस समय किसके सामने हाथ फैलाऊंगा।"
सरला -"हमारे पास इतनी ग़रीबी है तो रोहन को अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाने की क्या ज़रूरत है? पास के स्कूल में भेजते। पढ़कर कौन उसको कलेक्टर बनना है। आये दिन उसके स्कूल में कुछ न कुछ लगा ही रहता है।"
श्याम फिर समझाने की मुद्रा बनाकर बोला -"देखो सरला, मैं तो अनपढ़ हूँ। 20 दिन काम करता हूँ फिर भी ठेकेदार 15 दिन की मजदूरी देता है। रजिस्टर पर अँगूठा लगवाता है। मैं पढा लिखा होता तो उसके सामने रजिस्टर खोल कर सही -सही दिन गिनकर उसको दिखाता। पर नहीं, वह जो कहता है मुझे मानना पड़ता है। मैं यह चाहता हूँ कि भविष्य में कम से कम रोहन को यह दिन न देखना पड़े। पास के स्कूल में रोज़ ही किसी न किसी बात पर छुट्टी रहती है और पास पड़ोस के बच्चे, आज गए तो कल नहीं। ऐसे माहौल में रोहन क्या कुछ पढ़ पायेगा। अपना क्या, किसी तरह गुजारा कर लेंगे परन्तु उसका भविष्य नहीं खराब करेंगे।"
सरला पति के मन के भावों को समझते हुए बोली - "आप हमेशा कल का सोचते हो। आपको समझाना बेकार है । फिर भी कहूँगी कि जिस तरह और सब काम हो रहा है, उसी तरह आगे भी होता रहेगा। जो पैसे आप भविष्य के लिए रखें हैं उसमें से कुछ लेकर दवा ले लीजिए। आप स्वस्थ रहेंगे तो बहुत पैसा आ जायेगा। अन्यथा भविष्य का तो पता नहीं, वर्तमान बिगड़ जाएगा।"
मौलिक व अप्रकाशित
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी जी सादर अभिवादन। हृदयतल से आभार आपका। अभी सीखने के क्रम में हूँ। लघुकथा के तत्वों को समाहित करने की कोशिश में लगा हूँ।
आदरणीय सोनांचली जी, लघुकथा -समारोह में सहभागिता हेतु बधाई लीजिए। ज्वलंत मुद्दे बेताबी से उठे हैं। हां,थोड़ी कसावट से और निखार आएगा।
आद0 मनन कुमार सिंह जी सादर अभिवादन। आभार आपका
तीसरा दिन
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दिनांक: 29.12.022
मैं रोज की तरह सुबह की सैर पर निकला। कॉलोनी की बगल वाली गली से गुजरते हुए मेरी निगाह गुलाबी भवन की बाउंड्री वॉल पर रखे गमले में खिलती हुई एक गुलाब की कली पर पड़ी। मुग्धमन मैं ठिठक गया।अचानक उस बालकनी में जरा सा खटका हुआ।मेरी निगाह ऊपर उठी।गुलाबी गाउन में लिपटी नवयुवती से नजरें मिलीं।प्राची से सूर्य की लालिमायुक्त छटा बिखर रही थी।युवती का गोराभ मुखड़ा और ज्यादा दीप्ति मय हो गया।वह मुस्कुराई।मुझे लगा,मुझे देखकर मुस्कुराई। मैं मन ही मन मुस्कुराया।फिर एक नजर गुलाब की अधखिली कली पर गई। मैं आगे बढ़ गया।लगा,चहुं ओर फूल खिल रहे हैं,सूरज उन्हें सलामी देता है। उनमें ताजगी भरता है।
दिनांक:30.12.022
आज जरा सबेरे ही मैं सैर पर निकला।कल की खिलती कली अब फूल हो गई थी। गदराई पंखुड़ियों पर ओस कण स्पर्श सुख से धन्य हो रहे थे।मेरी नजर उछलकर सामने की बालकनी में पहुंच गई।किंचित प्रतीक्षा के बाद लालना -मुख दिखा।नजरें खिले गुलाब पर केंद्रित थीं।मेरी नजर का टकराव उससे नहीं हुआ।अचानक मुझे वह मुखड़ा बासी लगने लगा। मैं चलने लगा।उसकी नजर मेरी तरफ हुई।लगा,कुछ हूं मैं भी।सूरज की पहली किरण मुस्कुराई।
दिनांक:31.12.022: अलसाए मन से ही, मैं टहलने निकल।गली के गुलाब की उस डाल के पास पहुंचा।कोहरे की चादर में लिपटा वह फूल मुरझाया हुआ लगा। पंखुड़ियां ढीली पड़ी थीं। नित की भांति नजर बालकनी की तरफ मुड़ी,उठी।वहां भी फूल मुरझाया -सा लगा,श्रीहीन।उभय पुष्प की नजरें एक -दूसरे पर केंद्रित थीं।,मैं तो जैसे कहीं था हीं नहीं।सूरज की किरणों पर भी कोहरा सवार था।लगा, वे खुद रोशनी के लिए परमुखापेक्षी हो चली थीं। भग्न मन मैं आगे बढ़ गया,कल के सूरज की उम्मीद पाले।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
सादर अभिवादन। हार्दिक स्वागत। विषयांतर्गत बढ़िया भाषा-शिल्प में आकर्षक शैली में बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। ऐसे समय पर जबकि लघुकथा विधा की उन शैलियों पर रचनाधर्मिता की बात और लेखन चल.रहा है जिन पर या तो कम लघुकथा लेखन हुआ है, या जो उपेक्षित रही हैं इस नई सदी में या जिनका नवसृजन किया जा रहा या किया जा सकता है.. डायरी शैली की आपकी यह प्रविष्टि हमें प्रोत्साहित और मार्गदर्शित कर रही है। दो प्राकृतिक पुष्पों गुलाब के फूल और पुष्प रूपी नारी मुखड़े की बढ़िया तुलना करते हुए उनकी तीन अवस्थाओं और लेखक/पात्र की आत्मानुभूति बढ़िया सम्प्रेषित हुई है भविष्य इंगित करते हुए। कहीं-कहीं टंकण त्रुटियाँ रह गई हैं लेखनी के जोशीले प्रवाह में। स्पेसिंग या मात्रा या विराम चिह्न संबंधित। बासी/बासा? जरा सबेरे/सबेरे ज़रा ज़ल्दी ही.. पंखुड़ियां/पंखुड़ियाँ... आदि। सादर।
आदरणीय उस्मानीजी,आपका आभार ,नमन।लघुकथा का आपने लगभग संक्षिप्त सम्यक विश्लेषण किया है।यह मेरे लिए प्रेरक एवं उत्साहवर्धक है।इसके लिए मैं आपका पुनः धन्यवाद - ज्ञापन करता हूं। 'पंखुड़ियाँ' ही सही है। शेष ठीक है।टंकण जनित त्रुटि पर ध्यान दिलाने का अलग से आभार।
आद0 मनन कुमार सिंह जी सादर अभिवादन। बड़ी बखूबी से आपने लघुकथा की पटकथा लिखी। बालक आता है, जवान होता है और फिर बुढापा। 1 जनवरी भी आती है, जुलाई भी और अंत में 31 दिसम्बर भी। यही जीवन है। वाह वाह बधाई स्वीकार कीजिये
आपका आभार आदरणीय सोनांचली जी।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। अच्छी लधुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आपका आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण जी।
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