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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-१४ (closed with 628 Replies)

परम आत्मीय स्वजन

इस माह के तरही मिसरे की घोषणा करने से पहले पद्म विभूषण गोपालदास 'नीरज' जी के गज़ल विषय पर लिखे गए आलेख से निम्नांकित पंक्तियाँ आप सबसे साझा करना चाहता हूँ |

 

क्या संस्कृतनिष्ठ हिंदी में गज़ल लिखना संभव है? इस प्रश्न पर यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो मेरा उत्तर होगा-नहीं | हर भाषा का अपना स्वभाव और अपनी प्रकृति होती है | हर भाषा हर छंद विधान के लिए उपयुक्त नहीं होती | अंग्रेजी भाषा संसार की अत्यंत समृद्ध भाषा है | लेकिन जिस कुशलता के साथ इस भाषा में सोनेट और ऑड्स लिखे जा सकते हैं उतनी कुशलता के साथ हिंदी के गीत, घनाक्षरी, कवित्त, सवैये और दोहे नहीं लिखे जा सकते हैं | इन छंदों का निर्माण तो उसमे किया जा सकता है परन्तु रस परिपाक संभव नहीं है| ब्रजभाषा और अवधी बड़ी ही लचीली भाषाएं हैं इसलिए जिस सफलता के साथ इन भाषाओं में दोहे लिखे गए उस सफलता के साथ खड़ी बोली में नहीं लिखे जा सके | हिंदी भाषा की प्रकृति भारतीय लोक जीवन के अधिक निकट है, वो भारत के ग्रामों, खेतों खलिहानों में, पनघटों बंसीवटों में ही पलकर बड़ी हुई है | उसमे देश की मिट्टी की सुगंध है | गज़ल शहरी सभ्यता के साथ बड़ी हुई है | भारत में मुगलों के आगमन के साथ हिंदी अपनी रक्षा के लिए गांव में जाकर रहने लगी थी जब उर्दू मुगलों के हरमों, दरबारों और देश के बड़े बड़े शहरों में अपने पैर जमा रही थी वो हिंदी को भी अपने रंग में ढालती रही इसलिए यहाँ के बड़े बड़े नगरों में जो संस्कृति उभर कर आई उसकी प्रकृति न तो शुद्ध हिंदी की ही है और न तो उर्दू की ही | यह एक प्रकार कि खिचड़ी संस्कृति है | गज़ल इसी संस्कृति की प्रतिनिधि काव्य विधा है | लगभग सात सौ वर्षों से यही संस्कृति नागरिक सभ्यता का संस्कार बनाती रही | शताब्दियों से जिन मुहावरों, शब्दों का प्रयोग इस संस्कृति ने किया है गज़ल उन्ही में अपने को अभिव्यक्त करती रही | अपने रोज़मर्रा के जीवन में भी हम ज्यादातर इन्ही शब्दों, मुहावरों का प्रयोग करते हैं | हम बच्चों को हिंदी भी उर्दू के माध्यम से ही सिखाते है, प्रभात का अर्थ सुबह और संध्या का अर्थ शाम, लेखनी का अर्थ कलम बतलाते हैं | कालांतर में उर्दू के यही पर्याय मुहावरे बनकर हमारा संस्कार बन जाते हैं | सुबह शाम मिलकर मन में जो बिम्ब प्रस्तुत करते हैं वो प्रभात और संध्या मिलकर नहीं प्रस्तुत कर पाते हैं | गज़ल ना तो प्रकृति की कविता है ना तो अध्यात्म की वो हमारे उसी जीवन की कविता है जिसे हम सचमुच जीते हैं | गज़ल ने भाषा को इतना अधिक सहज और गद्यमय बनाया है कि उसकी जुबान में हम बाजार से सब्जी भी खरीद सकते हैं | घर, बाहर, दफ्तर, कालिज, हाट, बाजार में गज़ल  की भाषा से काम चलाया जा सकता है | हमारी हिंदी भाषा और विशेष रूप से हिंदी खड़ी बोली का दोष यह है कि  हम बातचीत में जिस भाषा और जिस लहजे का प्रयोग करते हैं उसी का प्रयोग कविता में नहीं करते हैं | हमारी जीने कि भाषा दूसरी है और कविता की दूसरी इसीलिए उर्दू का शेर जहाँ कान में पड़ते ही जुबान पर चढ जाता है वहाँ हिंदी कविता याद करने पर भी याद नहीं रह पाती | यदि शुद्ध हिंदी में हमें गज़ल लिखनी है तो हमें हिंदी का वो स्वरुप तैयार करना होगा जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की दूरी  मिटा सके |

 

नीरज

१९९२

 

इस माह का तरही मिसरा भी नीरज जी की गज़ल से ही लिया गया है |

 

ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
221 2121 1221 212
मफऊलु फाइलातु मफाईलु फाइलुन
बह्र मजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ

क़ाफिया: आन (मकान, ज़बान, जहान, आदि)
रदीफ: की

विनम्र निवेदन: कृपया दिए गए रदीफ और काफिये पर ही अपनी गज़ल भेजें | यदि नए लोगों को रदीफ काफिये समझने में दिक्कत हो रही हो तो आदरणीय तिलक राज कपूर जी की कक्षा में यहाँ पर क्लिक कर प्रवेश ले लें और पुराने पाठों को ठीक से पढ़ लें| 

मुशायरे की शुरुआत दिनाकं २८ अगस्त दिन रविवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक ३० अगस्त दिन मंगलवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |


अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन से जुड़े सभी सदस्यों ने यह निर्णय लिया है कि "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक १४ जो तीन दिनों तक चलेगा उसमे एक सदस्य आयोजन अवधि में अधिकतम तीन स्तरीय गज़लें ही प्रस्तुत कर सकेंगे | साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि नियम विरुद्ध  और गैर स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकेगा, यह अधिकार प्रबंधन सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा और जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी |  

फिलहाल Reply बॉक्स बंद रहेगा, मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ किया जा सकता है |
"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह


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Replies to This Discussion

मोहतरम योगराज जी! आपके इस खूबसूरत तबसिरे के लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ मैं आपका, बस यूँ ही आशीर्वाद से नवाज़ते रहियेगा।


भाई इमरान, बहुत ही संजीदा ग़ज़ल कही आपने. ये शेर तो सियासी सच्चाई को बेबाकी से बयां करता है
//कल इकरार किया था, आज तोड़ दिया है,
है औकात भला क्या सियासी बयान की।//

हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये.

आपका हार्दिक धन्यवाद धरम जी

जो शेर समझ में आये, वो ये है -

//हमने खेल दिलों के, खेले हैं प्यार से,
याँ कोई तलब नहीं तरकशो कमान की।//

बहुत खूब..  क्या ना कहा,  जब कह दिया नज़रों से ही !

यहाँ  ’याँ’ का बाकमाल प्रयोग हुआ है. बधाई.

 

//कल इकरार किया था, आज तोड़ दिया है,
है औकात भला क्या सियासी बयान की।//

यह अशार बहुत कुछ हालिया सुना गया. बहुत खूब. बहुत-बहुत बधाई.

 

//सर बारगाहे खुदा में 'इमरान' झुकाएँ,
आ रही हैं सदायें वहीं से अज़ान की।//

वाह.. वाह !! .. सबा तक पाक हो गयी. बहुत उम्दा.

 

इमरानभाई, बाकियों को समझ लूँगा तो उन पर भी कहूँगा.  जो समझ पाया उसके हिसाब से शेरों पर आपकी मशक्कत जारी रहे.

हार्दिक शुभकामनाएँ.

 

आदरणीय सौरभ जी! आपकी टिप्पणी हमेशा बाइसे मसर्रत होती हैं और आपके बाद तो जैसे लिखने की ख्वाहिशात (अहवा) और भी ज़ोर मारने लगती है, आपको मेरे कुछ टूटे फूटे अल्फाज़ पसंद आये ये जानकर ही मैं आसमान की उड़ान (परवाज़) पर हूँ। बस इसी तरह आप अपने तजरिबात से रोशनास कराते रहेंगे ऐसी उम्मीद है मेरी। शुक्रिया आपका

अरे भाई, हमने कुछ और भी कहा है अपनी प्रतिक्रिया में.

आभारी होने में बिसर गये हैं शायद आप.

 

जी बहुत बहुत आभार आपका.. मशक्कत करता रहूँगा बड़े भाई, वैसे मैं आपको बताऊँ इस तरही मुशायरे के लिए लिखना मेरे लिए बड़ा मुश्किल रहा इसलिए कुज tough अल्फाज का सहारा लेना पड़ गया,
..और भाई मुझे तो कम से कम सारी बात खुलकर बताया करें वो ये है के मैं थोड़ा नादान हूँ अभी :-)

अच्छा. तो नादान जी ग़ज़ल कहने निकले हैं.. :-)  .. कोई बात नहीं. मज़ाक कर बैठा.

 

जिन शेरों को या मतले को हमने अपने तब्सिरे में शामिल नहीं किया है उनके मानी कह दें वहीं. समझा ही नहीं तो बहुत खूब कहने का कोई मतलब भी नहीं न.. !?

/के बाइसे परवाज़, यही है जहान की,
ये शायरी ज़बाँ है किसी बेज़बान की।/
बाइसे परवाज़- दुनिया की उड़ान का कारण
यही शायरी है जो किसी बेज़बान की है

हम लम्हों की ख्वाहिशें, बता ही नहीं पाये,
'तरजुमान' ये स्याही, 'अहवा' ए ज़मान की।
हमसे बोल कर तो अपनी चाहत बताई ही नहीं गई,
जबकि हमारी स्याही 'अनुवादक' है पूरे ज़माने की 'ख्वाहिशात' की।
अब नज़रे सानी करके बताइयेगा कुछ कमी हो तो।

बहुत-बहुत शुक्रिया, इमरान भाई.

फिर तो मतला और पहला शेर दोनों लाज़वाब हैं.  मुबारकां.

बहुत शुक्रिया भाई साहब .. आपका तात्पर्य शायद 'मतला और दूसरे शे'र' से है...

जी बहुत बहुत आभार आपका.. मशक्कत करता रहूँगा बड़े भाई, वैसे मैं आपको बताऊँ इस तरही मुशायरे के लिए लिखना मेरे लिए बड़ा मुश्किल रहा इसलिए कुज tough अल्फाज का सहारा लेना पड़ गया,
..और भाई मुझे तो कम से कम सारी बात खुलकर बताया करें वो ये है के मैं थोड़ा नादान हूँ अभी :-)

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