उतर दुष्ट और नीचे आ तू अब न तुझे मैं छोडूँगा
आज तो तेरे हाथ पैर मैं इस डंडे से तोडूंगा
रोज़ चुराता आम बाग़ से शर्म नहीं तुझको आती
कैसे तेरे घर वालों को तेरी आदत है भाती
डाल गले में रस्सी तुझको खींच के घर ले जाऊँगा
तेरे पापा को जाकर मैं सारी बात बताऊँगा
पिंटू थर थर कांप रहा था चीख रहा था जब माली
मन ही मन वो बोल रहा था जय दुर्गा जय जय काली
नाम सुना जब पापा का तो डर का बादल बिखर गया
मन जो उसका सहम गया था पल भर में हो निडर गया
पेड़ के ऊपर बैठे बैठे बोला ओ माली कक्का
क्यूँ तुम इतना चीख रहे हो कैच करो मेरा छक्का
पापा को सब बात बताने व्यर्थ कहाँ घर जाओगे
उनको भी तुम इसी बाग़ में किसी पेड़ पर पाओगे
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हाहाहा
इतनी प्यारी कविता, अंत में मज़ा आ गया ..... //पापा को भी इसी बाग़ में किसी पेड़ पर पाओगे// हार्दिक बधाई इस सुन्दर कविता पर आदरणीया सीमा जी
हहाहहाहा कविता को पढके मजा आ गया और अंत में तो बस क्या कहूँ हंसी का फव्वारा ही छूट गया बहुत ही मजेदार बहुत बहुत बधाई सीमा जी
सुंदर कविता हास्य भी व्यंग भी और सन्देश भी, बधाई हो सीमा अग्रवाल जी, देखे -
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