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आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी, बाल-साहित्य केलिए आपका प्रयास स्तुत्य है. बाल-रचनाओं का सदैव स्वागत है.
लेकिन यह भी उतना ही सही है कि ’बाल’ शब्द का प्रयोग मात्र हो जाने से कोई रचना श्लाघनीय नहीं हो जाती. विद्वानों का तो यह भी कहना है कि सबसे कठिक साहित्यकर्म बाल-रचनाएँ ही हैं. अर्थात ऐसा नहीं है कि कोई जैसे-तैसे, बचपना करता हुआ कुछ भी कह दे और वह बच्चों केलिए उपयुक्त हो जायेगा. इस संदर्भ में आपदेखें कि आपकी प्रस्तुत रचना में साइकिल की तुकान्तता पर समान्तता क्या है ? कुछभी नहीं ! ऐसे यह कविताकर्म में बाल-गान (राइम) कैसे हुआ ? आपसे आग्रह है, कि विधा और विधान पर उपयुक्त अध्ययन कर, बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए रचनाकर्म करें.
सादर शुभकामनाएँ
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