हिन्दी साहित्य की गद्याधारित विधाओं में नाटक, उपन्यास, कहानी और निबंध के बाद जीवनी आत्म-कथा, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, रहस्य-रोमांच के इतिवृत्त और रेखाचित्र का विशेष स्थान है और इन इतर विधाओं को एक ही पुस्तक में ढाल देने जैसे जादुई करिश्मे का नाम है – ‘पृथ्वी के छोर पर ’. भू –वैज्ञानिक डॉ0 शरदिंदु की इस कृति का आद्योपांत अवगाहन करने के उपरान्त जो पहली बात मेरे मन में आयी वह यह कि यदि लेखक भू-विज्ञानी नहीं होता तो वह आज साहित्य के आकाश में एक दीप्तमान नक्षत्र के रूप में जाना और पहचाना जाता. यह अत्युक्ति अथवा अतिशयोक्ति नहीं अपितु एक निस्पृह सच्चाई है, जिसका प्रामाणिक दस्तावेज है उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘पृथ्वी के छोर पर‘
पृथ्वी के छोर पर ’ भारत के उन चार अभियानों की गाथा है, जिसमें लेखक की भूमिका कभी सदस्य तो कभी टीम-लीडर के रूप में रही है . साहित्य चाहे जिस विधा में सृजित हो, उसमें कल्पना का उन्मेष अवश्य होता है पर ‘पृथ्वी के छोर पर’ सच्चे अभियानों की गाथा है, जिसमें स्मृति और स्फुट रूप से लिखी गयी डायरी की सहायता से रचना-कर्म हुआ है. अतः इसमें भले ही कहीं-कहीं पर भावात्मक भाषा-विधान हो पर काल्पनिक चित्र बिलकुल भी नहीं हैं. इसका तात्पर्य यह है कि प्रमाता इस पुस्तक के माध्यम से किसी स्वप्न-दीप नहीं अपितु अंटार्कटिका के अज्ञात, अद्भुत, रहस्यमय और जादुई सच्चाई से सीधा साक्षात्कार करता है . तब सचमुच अहमन्य मानव को अपनी उस क्षुद्रता का बोध भी होता है, जो उसका दृप्त मस्तिष्क प्रायशः कम स्वीकार करता है . इस पुस्तक से हम समझ पाते हैं कि प्रकृति वस्तुतः एक अप्रतिहत हाहाकार है और मनुष्य महज एक स्तब्ध सन्नाटा.
स्वीडन का मालवाही जहाज एम. वी. थुलीलैंड 27 नवम्बर 1985 को जब गोआ के वास्कोडिगामा शहर में स्थित मार्मुगाओ बंदरगाह से अंटार्कटिक की और प्रस्थान किया तो शहर का परिदृश्य गायब होते ही पूरे 360 ° में क्षितिज से क्षितिज के बीच सिर्फ और सिर्फ नील जलराशि के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं था . यहाँ लेखक अपनी पूर्वधारणा को ध्वस्त होते देख पाठक से जो पहला अनुभव साझा करता है वह यह कि - ‘ मेरी यह धारणा भी गलत साबित हुयी कि समुद्र में खूब ऊंची लहरें होती हैं या उनमें बहुत तेज बहाव होता है . समझ में आने लगा था कि ऐसा तो केवल समुद्र और धरती के मिलन स्थल पर होता है अथवा समुद्र में तूफ़ान आने पर .” ( पृष्ठ 25 ) या फिर Roaring forties और Furious fiftees पर जहाँ भूमध्य रेखा से गर्म पानी और अंटार्कटिक से अत्यधिक ठंढे पानी के स्रोत का मिलन होता है .
डॉ0 शरदिंदु के अनुसार , यदि आप में प्रकृति के अपार सौन्दर्य को हृदयंगम करने की संवेदना है , यदि स्थूल शारीरिक कामनाओं को अपने रास्ते से दूर रखने की क्षमता है तो प्रकृति की गोद में एकाकी जीवन की मधुर स्मृतियों से भर जाता है . अंटार्कटिका की गोद में पहुँचकर किंग-पेंगुइन (king penguin),अडेली पेंगुइन(Adelie penguin), पेट्रेल(Petrel), अंटार्कटिक टर्न ( Antarctic tern), सील (Seal) और विशालकाय रायल एल्बाट्रॉस (Royal Albatross) में उस वातावरण के जीवन का स्पंदन दिखता है, जहाँ कभी रात ही रात होती है तो कभी दिन ही दिन. तब केवल घड़ी के काँटों से ही पता चलता है कि धरती के सामान्य जन जीवन की शाम कब ढली और भोर ने कब अंगड़ाई ली .
‘पृथ्वी के छोर पर‘ से हमे इस सच्चाई का भी पता चलता है कि- अंटार्कटिका हमारे ग्रह पृथ्वी का वह सुदूरतम महाद्वीप है, जहाँ मानव की कोई स्थायी बस्ती (colony) नहीं है. लगभग 1.4 करोड़ वर्ग किमी० क्षेत्र में फैले इस महाद्वीप का 98 प्रतिशत भाग बर्फ की चादर से ढंका हुआ है. एक ऐसे बर्फ की चादर से जिसकी औसत मोटाई दो किमी० है . पृथ्वी का आज तक का न्यूनतम तापमान (माइनस 89.6 डिग्री सेल्सियस) अंटार्कटिका में ही रिकॉर्ड किया गया है . इस महाद्वीप को घेरकर दक्षिण महासागर का रहस्यमय साम्राज्य प्रशस्त है. पृथ्वी के दक्षिण छोर पर होने के कारण यहाँ दिन रात का चक्र सदैव अन्यथा नियम से चलता है . ठीक दक्षिण ध्रुव पर छः महीना लगातार सूर्य की रोशनी मिलती है और अगले छः महीने तक लगातार अन्धेरा रहता है .
आलोच्य पुस्तक के अनुसार अंटार्कटिका में लेखक का भू-वैज्ञानिक के रूप में पहला अभियान था - वाल्थट हिम-श्रेणी (Wohlthat mountains) में ग्रूबर मैसिफ (Gruber massif) नामक जगह पर शिविर लगाना. पर वहां के अनिश्चित वातावरण में अचानक ऐसी परिस्थिति भी आयी जब अभियान दल के सदस्यों में इतनी भी चेतना शेष नहीं बची कि वे जीवन के लिए कोई संघर्ष कर सके. इस परिस्थिति का वर्णन लेखक ने ‘पृथ्वी के छोर पर‘ में इस प्रकार किया है –
‘देखते ही देखते तम्बू के कील उखड़ने लगे और हम सीधी हवा की चपेट में आ गए . एक मात्र खम्भे के सहारे खड़े तम्बू पर अब भरोसा करना व्यर्थ था . हमारे स्लीपिंग बैग भी इतने छोटे थे कि शरीर का एक तिहाई अंश बाहर ही था . हम सब फिर से अपने पैरों पर आ गए और अपना अपना स्लीपिंग बैग उठाकरकिसी बड़े पत्थर की आड़ ढूँढने के लिए चल पड़े . हवा का वेग 45 नॉट अर्थात 81 किमी० प्रति घंटा था और तापमान माईनस 20 से माईनस 25 डिग्री सेल्सिअस के आस पास .---हवा ने कम से कम दो बार मुझे जमीन से उठा दिया था.---हमें लग रहा था कि हमारे जीवन की वही आखिरी रात थी----- मुझे क्या हुआ था पता नहीं –शायद मैं बेहोश हो गया था ----जब आँख खुली तो कुछ देखने से पहले कानों को सुनायी दिया ‘थैंक गॉड ‘ . डॉक्टर मेरे चेहरे पर झुके हुए थे .’ (पृष्ठ 41 )
मौसम के बिगड़े मिजाज का कुछ सामना लेखक को काले –भूरे ओएसिस के फील्ड-वर्क के दौरान भी करना पड़ा. शिर्माकर अंटार्कटिका का मरु-उद्यान है. यहाँ अनेक खूबसूरत मीठे पानी की झीले हैं . भारत की पूर्व प्रधानमंत्री के नाम पर आधारित ‘प्रियदर्शिनी झील’ भी यहीं है. अंटार्कटिका अभियान के दौरान शिर्माकर वापस आने पर कवि ने अपने मनोभावों को एक कविता में इस प्रकार रूपायित किया -
‘प्रियदर्शिनी की मौन खिलखिलाहट
स्मृतियों के हजूम के
उमड़-घुमड़ कर आने की आहट
उल्लास का नकाब ओढ़े
थके हुए चेहरों का व्याकुल स्पंदन ‘ (पृष्ठ 182 )
‘पृथ्वी के छोर पर‘ पुस्तक के ब्याज से हम जान पाते हैं कि शिर्माकर ओएसिस एक लम्बी पथरीली पट्टी जैसा है, जो बहुत प्रशस्त नहीं है. यह एक ऐसा स्थान है जो बर्फ से ढंका हुआ नहीं है. लगभग 18 कि०मी० लम्बा और अधिक से अधिक 3 किमी० चौड़ा यह छोटा सा खुला हुआ भू भाग सफ़ेद बर्फ के रेगिस्तान में नखलिस्तान का आभास दिलाता है . इस ओएसिस की भी एक काव्यात्मक प्रस्तुति पुस्तक में उपलब्ध है.
‘क्षितिज से क्षितिज तक
फ़ैली सफेदी में
बारीक सी काजल रेखा का उभरना
एक हल्की सी हलचल
मन ही मन’ (पृष्ठ 182 )
शिर्माकर के दक्षिण की ओर ग्लैशियर्स हैं और उत्तर में जमा हुआ समुद्र है. किन्तु अंटार्कटिका का यह एक महत्वपूर्ण स्थान है और आलोच्य पुस्तक के लिहाज से इसलिए ख़ास है कि यहाँ अभियान दल का आधार- शिविर (Base Camp) स्थापित था. यहाँ मौसम का सबसे भयावह रूप तब होता है जब समूचे वातावरण में बर्फ की धुंध के कारण शून्य दृश्यत्व (zero visibility) की अवस्था उत्पन्न हो जाती है . ‘पृथ्वी के छोर पर’ में मौसम की इस सरकशी के अनेक चित्र उपलब्ध होते हैं है . उनमें से कुछ चित्र इस प्रकार है –
‘मौसम का आलम यह था कि हवा लगभग 80 किमी० प्रतिघंटा की रफ़्तार से बह रही थी और सूखे बर्फ के कण उड़ा रही थी . इन उड़ते बर्फ के कणों की वजह से जमीन से लगभग 12 फीट ऊपर तक कुछ भी नही दिख रहा था.’ (पृष्ठ 51)
जैसे ही मैंने स्टेशन के बाहर कदम रखा , तेज हवा ने मुझे जमीन से उठाकर पटक दिया और एक सेकंड से भी कम समय में बर्फ के लाखों नुकीले कण मेरे अंटार्कटिक सूट के अन्दर घुस गए, मेरा स्नो-गॉगल तो ढँक ही चुका था , बर्फ के कण उसके पीछे मेरे नित्य व्यवहार के चश्मे पर भी छा गए . मुख के ऊपर सेमुखौटा हट जाने के कारण मेरे चेहरे पर भी बर्फ का आक्रमण हो रहा था . लेकिन सबसे तकलीफदेह बात थी मेरे नाक में बर्फ का घुस जाना , मेरा दम घुटने लगा था . (पृष्ठ 77 )
‘कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढें बन माहिं‘ – कबीर के दोहे की इस प्रथम पंक्ति से हिन्दी-प्रेमी मृग-मरीचिका के छल से परिचित हैं, जो रेगिस्तान की रेत में पानी का आभास देता है. पर अंटार्कटिका में दृश्यमान मिराज इफेक्ट (mirage effect) तो अद्भुत है . ‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक में इसके कुछ स्तब्धकारी चित्र इस प्रकार हैं.
किसी शहर की विशालअट्टालिकाओं की तरह वे (आइस बर्ग )सामने दिख रहे थे . अन्त्र्कातिका में दूरियां बहुत ही भ्रामक होती हैं . केवल सफ़ेद तथा ग्रे रंग और क्षितिज से क्षितिज तक सपाट बर्फ़ की जमीन होने के कारन किसी भी लैंडमार्क के अभाव में बहुत दूर की कोइ चीज बहुत नजदीक अथवा बहुत नजदीक की कोइ चीज दूर होने का भ्रम होना आमबात है . मरीचिका ( mirage effect) के कारण छोटी सी चीज बहुत बड़ी भी दिखती है , जमीन की चीज आस्मां में लटकी हई भी नजर आती है. (पृष्ठ 93 )
जब मैं ‘दक्षिण गंगोत्री’ की छत पर चढ़ा, तो सामने का दृश्य देख हैरान रह गया. तूफ़ान तेज चलने के बावजूद उड़ते बर्फ के कण अब मेरी दृष्टि को बाधित नहीं कर रहे थे , क्योंकि मैं जमीन से 15 फीट ऊपर था . समुद्र की तरफ मैंने देखा कि आसमान में एक जहाज उलटा लटका हुआ है . वास्तव में मैं ‘थुलीलैंड‘ की मरीचिका देख रहा था. इसे मिराज इफेक्ट कहते हैं. (पृष्ठ 51)
आसमान में बहुत ऊपर तक बहुत ही छोटे आकार के लाखों करोड़ों बर्फ के क्रिस्टल झालर की तरह लटके हुए हैं जिनसे परावर्तित होकर उगते हुए चाँद की किरणें आग की लपटों का भ्रम पैदा कर रही हैं. जैसे ही चाँद क्षितिज के ऊपर आयेगा यह दृश्य लुप्त हो जाएगा . (पृष्ठ 69)
अंटार्कटिका मनुष्य के लिए ऐसी विलक्षणताओं का स्वाभाविक केंद्र है. वहाँ का अनिश्चित वातावरण, वहाँ के ब्लिजार्ड, वहाँ का हिमपात, वहाँ के अप्रत्याशित लम्बे दिन और रात सभी मानव के लिए एक अप्रतिहत चुनौती की भाँति हैं और यदि मानव में प्रकृति को जानने और बूझने की जिज्ञासा इतनी स्पृहणीय न हो तो ऐसी दारुण चुनौतियों का सामना कौन करना चाहेगा, पर जब आप ऐसे अभियानों में किसी देश की नुमायन्दगी करते हैं, तो आप सामान्य मनुष्य नहीं रहते तब आप बन जाते हैं- पोलर-मैन. जो किसी भी साहसिक के जीवन का मिशन या सपना हो सकता है .
मनुष्य चाहे कितनी ही विषम परिस्थिति में क्यों न हो, न तो उसकी जिजीविषा कभी समाप्त होती है और न मुदिता वृत्ति . वह जंगल में भी मंगल मनाने की युक्ति ढूँढ़ ही लेता है. अंटार्कटिका में भी उन दुर्गम हिमाच्छादित क्षेत्र में लोगों ने मिलकर एक दूसरे के जन्म दिन मनाये. सांस्कृतिक एवं रंगारंग कार्यक्रम किये और जून के माह में Mid winter day का आनंद लिया. इतना ही नहीं ‘हिमवात’ नामक एक पत्रिका भी निकाली . उस दुर्गम क्षेत्र में अन्य देशों के अभियान दलों के साथ बजरिये नवाचार (Protocol) और सद्भावना (Bonhomie) सौहार्द्र पूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर विश्व बंधुत्व की एक मिशाल भी वहाँ भारतीय दल ने कायम की. स्वयं लेखक ने किसी की बेटी के जन्म दिन पर कविता रची, ‘हिमवात‘ पत्रिका का सम्पादन किया और हिदी की साहित्य परंपरा का निर्वाह करते हुए ‘अंटार्कटिका’ का मानवीकरण कर एक अद्भुत कविता लिखी , जिसकी बानगी यहाँ प्रस्तुत है –
‘नमस्ते अंटार्कटिका देवी , शुष्क शुभ्र वसुंधरा
नमस्ते रहस्यावृता धरणी , भयंकरा माँ अनुर्वरा
नमस्ते देवी गरिमामयी , निष्कलुष तुषारावृता
नमस्ते क्षुब्ध मातृका, मोहिनी रूपेण वन्दिता
नमस्ते माँ अभागिनी , शस्य श्यामल वंचिता ‘ (पृष्ठ 92 )
डॉ0 शरदिंदु के अनुसार पांचवें और छठें अभियान के दौरान वाल्थट पर्वतमाला में एक बड़े भू-भाग का मानचित्रण किया गया . यह एक महत्वपूर्ण कार्य था, जो परवर्तीकाल में शोध-कार्य का प्रमुख आधार बना . यहाँ पुस्तक के अध्ययन क्रम में सहसा एक ठहराव आता है मानो रोमांच की यह शौर्य गाथा समाप्ति की ओर अग्रसर है और इसे पुष्ट करते हैं लेखक की माँ के ये उद्गार – ‘और नहीं बेटा. बहुत हो गया “
भविष्य सदैव ही अनिश्चित, अंधकारपूर्ण और नाटकीय होता है. अगले पल क्या अजगुत घटने वाला है, यह कोई नहीं जानता. डॉ0 शरदिंदु भी नहीं जानते थे कि उनकी प्रथम अंटार्कटिका यात्रा तो महज एक शुरूआत थी. उन्हें अभी इस स्वप्निल भूभाग की कई यात्रायें और करनी थी. निदान दूसरी यात्रा ‘वेडेल समुद्र अभियान’ के रूप में हुयी और इस बार अभियान दल मॉरमुगाओ बंदरगाह से नार्वे के छोटे किन्तु अतिविशिष्ट जहाज पोलर बियार्न (POLAR BJORN ) द्वारा अंटार्कटिका के वेडेल समुद्र की ओर रवाना हुआ .इस जहाज का वर्णन पुस्तक में कुछ इस प्रकार हुआ है
‘थुलीलैण्ड के विशाल आकार(186 मी0 लंबा ) की तुलना में मात्र 49 मीटर लंबा पोलर बियार्न एक छोटी सी नाव की तरह पानी में बिना लहरों के ही झूम रहा था. -----पानी की सतह के नीचे अर्थात बेसमेंट में अभियात्रियों तथा जहाज के नाविकों व् अफसरों के लिए कमरे बने थे जो इतने छोटे थे कि अन्दर सीधे खड़े रहना भी कष्टदायक था . इन कमरों में शीशे की खिड़की (पोर्ट होल ) अवश्य थी लेकिन पूरी तरह से सील की हुयी . उन्हें खोलने का सवाल ही नहीं उठता था . समुद्र का नीला हरा पानी हर समय उन शीशों पर लहरों के थपेड़े मारता था.’ (पृष्ठ 130 )
‘खिलौनानुमा जहाज होने के बावजूद हमें पता चला कि ‘आईस ब्रेकर’ श्रेणी के अंतर्गत ‘पोलर बियार्न’ विश्व के श्रेष्ठतम जहाजों में से एक है . जहाज के चीफ आफीसर ने मुझसे कहा था कि जहाज दोनों तरफ यदि 35° तक भी झुक जाये तब भी सुरक्षित है , बस खुद को गिरने से बचाना होगा .’ (पृष्ठ 130-31 )
‘समुद्री तूफ़ान का कहर -----रात से ही शुरू हो गया था , अड़तालीस घंटे बाद उसका विकराल स्वरुप देखने को मिला , हमारा जहाज ‘पोलर बियार्न’ एक व्हेल मछली की तरह समुद्र में मानो गोता लगाता हुआ चल रहा था . वह बहुत देर से लगातार आगे-पीछे (Pitching )और फिर दाहिने-बायें (Rolling )करता हुआ मौसम का सामना कर रहा था ,’ (पृष्ठ 143 )
‘पृथ्वी के छोर पर‘ के अनुशीलन में यदि लेखक की मित्र मॉरीशस की कवयित्री नीता पार्बोतीया की जिक्र न किया जाये तो पाठ नीरस ही नहीं अधूरा भी रहेगा. वेडेल समुद्र अभियान की यात्रा के दौरान जब ‘पोलर बियार्न’ने मॉरीशस के तट पर विश्राम किया और यात्रियों को सात घंटे की मोहलत मिली. इस अवसर पर जब लेखक ने अपने कवयित्री मित्र को फोन कर अपने आगमन की सूचना के साथ ही साथ मिलने की ईच्छा का मुजाहिरा किया तो –
‘टेलीफोन के दूसरी छोर पर उनकी आवाज में आश्चर्य, आनंद और एक अविश्वास की भावना की मिश्रित गूँज थी . खुद को सँभालने के लिए यह कहकर उन्होंने थोड़ा सा समय ले लिया कि वे कुछ काम में व्यस्त हैं , यदि मैं एक घंटे बाद उनके घर पहुँच सकूं तो खुशी होगी . ‘(पृष्ठ 134 )
प्रसंग विस्तार से पुस्तक में इस गुह्य रहस्य का उद्घाटन धीरे धीरे स्वतः होता जाता है कि नीता पार्बोतीया डॉ0 शरदिंदु- के जीवन में स्त्री- पुरुष के स्वाभाविक एवं नैसर्गिक आकर्षण का पर्याय थी. उन लम्बे रोमांचक अभियानों के प्रवास-काल में इस स्नेहिल अहसास को दोनों ने इतने दिनों तक अकेले किस शिद्दत से जिया होगा इसकी कुछ झलक लेखक की स्वरचित कविता में एक धरोहर की भाँति सुरक्षित है, जिसका एकांश यहाँ निदर्शन हेतु प्रस्तुत किया जा रहा है –
‘स्तब्ध रहे कुछ पल हम दोनों , पलकों पर थी थिरकन
नीरव होठों पर मुस्काहट थी और नयनों में सजग सपन
शुरू हुआ भावों का रिसना हृदय कमंडल से धीरे
बेचैन रगों से होकर पुलकित शांत मुख मंडल पर धीरे ‘(पृष्ठ 138 )
समुद्री पक्षियों में रॉयल एल्बाट्रॉस (Royal albatross ) संभवतः सबसे विशालकाय, खूबसूरत और अद्भुत पक्षी है . ये पक्षी प्रायः किसी जहाज को देखकर उसके पीछे अपने लम्बे डैने फैला कर मीलों तक उड़ते रहते हैं . ‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक में इनकी मनोहारी छटा के कई अद्भुत चित्र है . जैसे -
‘हमारे जहाज के ठीक पीछे समुद्र का विशालकाय पक्षी रॉयल एल्बाट्रॉस (Royal albatross) अपनी अलौकिक मुद्रा में पंख फैलाये लगातार उड़ता चला आ रहा था . उसके साथ उसके कई और साथी भी थे . ये बेहद खूबसूरत पक्षी कहाँ से और कब हमारे हमसफ़र बने नहीं पता .-------जहाज से जब कोइ खाना समुद्र में फेंका जा रहा था, एल्बाट्रास बहुत गरिमामय अंदाज में झुककर अपनी चोंच से खाना उठा लेता और मीलों बिना रुके बिना थके उड़ने के बाद संभवतः विश्राम हेतु ही , कुछ पल के लिए पंख समेट कर समुद्र की लहरों पर राजहंस की तरह बैठा रहता . इनके पूरे खुले हुए डैने बारह फीट तक फैल जाते .’ (पृष्ठ 142)
भारतीय वेडेल समुद्र अभियान का प्रमुख उद्देश्य यह था कि क्या भारत वहां अपना कोई ऐसा स्टेशन बना सकता है, जिसके सहारे डूफेक पहाड़ ( Dufek massif ) और ट्रांस अंटार्कटिक माउंटेन्स श्रेणी में भूवैज्ञानिक-शोध संभव हो सके. इसके लिए यह आवश्यक था कि भारतीय दल पहले फिल्चनर आईस शेल्फ (Filchner ice self ) तक पहुंचे. यह वह स्थान है जहाँ प्रथम मानव के रूप में जर्मन के अभियात्री विल्हेम फिल्चनर (Wilhelm Filchner ) पहुँच सके थे. यह विशाल शेल्फ एक हिम -उभार ( ice rise ) द्वारा दो भागों में विभक्त है. बर्कनर द्वीप (Berkner Island ) पृथ्वी का सबसे ऊँचा हिम-उभार है इसके पूर्व में जो शेल्फ-आईस है उसी को फिल्चनर आईस-शेल्फ (Filchner ice self) के अभिधान से जाना जाता है .
सामान्य भर्ती नागरिक के रूप में अपने घरों के आरामदायक वातावरण में सुकून से चाय की चुस्की लेते हुए हम देश की आन ने मर मिटने वाले वीरों , वैज्ञानिकों , अन्तरिक्ष यात्रियों की रोमांचक गाथा को बड़े निस्पृह भाव से समाचार पत्रों में पढ़कर पृष्ठ बदल देते हैं . हम कभी भी गंभीरता से उनके अदम्य साहस, जूनून और उनकी दीवानगी के बारे में विचार नहीं करते. पर वे हमारे लिए इतिहास रचते हैं. उस समय तक फिल्चनर आईस-शेल्फ (Filchner ice self) तक पहुँचना सिर्फ भारत ही नहीं समूचे विश्व के लिए एक चुनौती थी . भारतीय दल के लिए भी यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था. अतः भारतीय नौ-सेना का हेलीकाप्टर ‘चेतक’ जब फिल्चनर आईस-शेल्फ के ऊपर मंडराया तो बर्फ का विध्वस्त साम्राज्य नीचे बिखरा पड़ा था. उसके नीचे अनगिनत दरारों की अनवरत श्रृंखला थी . अनिश्चय की ऐसी स्थिति में जब डॉ0 शरदिंदु ने ‘चेतक ‘ के कमांडर से एक विशेष स्थान पर हेलीकाप्टर को कुछ देर के लिए स्थिर करने को कहा तो उनकी मंशा समझ कर सभी स्तब्ध हो गये. यह सरासर मौत के मुख में अपने को झोंक देने जैसा कार्य था. किन्तु जूनून में सभी अजगुत कार्य व्यापार होते हैं और नया इतिहास रच जाता है . आगे का दश्य पुस्तम में इस प्रकार दर्शित है –
‘जमीन से 25 फीट ऊपर हेलीकाप्टर ले जाकर कमांडर ने उसे रोका . मैंने अपनी और का दरवाजा खोला और जेब में वाकी –टाकी तथा हाथ में जिओलाजिकल हैमर लेकर छलांग लगा दी . यह निश्चित रूप से पता नहीं था कि जहाँ मैं उतरूंगा वहां दरार है या नहीं , बस दो स्पष्ट दरारों के बीच में यह चौड़ी सी जगह थी , जहां मुझे कोई ख़तरा ऊपर से नजर नहीं आ रहा था . मैंने सबसे कह दिया था कि छलाँग लगाने के बाद यदि मैं न दिखाई दूं तो वे हेलीकाप्टर लेकर उतरने की गलती न करें और जहाज में वापस चले जांये .’ (पृष्ठ 154)
नीला समुद्र सदैव से ही कवियों का प्रमुख आकर्षण रहा है . कालिदास इसकी शोभा से अभिभूत रहे . जयशंकर प्रसाद ने सागर-सौंदर्य से अनुप्राणित होकर ‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ’ जैसी कालजयी रचना की . फिर यह कैसे न होता कि कवि हृदय डॉ0 शरदिंदु समुद्र के विविध रूपों और अपरूपों का निरंतर साक्षात् कर उसके सम्मान में कोई कविता न रचते. उनकी एकाधिक रचनायें हैं, जो समुद्र को आलंबन मानकर लिखी गयी हैं. एक बानगी यहाँ पर प्रस्तुत है –
‘सागर का उल्लास कैसा !
श्वेत मुकुट ले शीश पर
इन लहरों का गगन को
पाने का प्यास कैसा
सागर का उल्लास कैसा !’ (पृष्ठ 148)
‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक के अनुसार बर्कनर द्वीप का भू वैज्ञानिक अध्ययन करने के बाद इस अभियान दल का अगला लक्ष्य ह्वासेल बे (Vahsel Bay) के मोल्टके नुनाटक (Moltke Nunatak) तक जाना था जो बर्फ की दीवार के बीच से निकला धरती का एक टुकडा है, जिसके ऊपर सैकड़ों टन बर्फ़ एक नाग के फन की भाँति लटका हुआ था. इस अभियान में अचानक मौसम ख़राब हुआ और दल प्रमुख ने साहसिकों को लौट आने का आदेश भी दिया. परन्तु अभियात्रियों ने आदेश की अनदेखी कर मोल्टके नुनाटक (Moltke Nunatak) को पदाक्रांत किया और वहां के महत्वपूर्ण नमूने संग्रहीत किये एक इतिहास रचा जो अद्यतन जानकारी के लिहाज से अभी भी एक कीर्तिमान है. जिन तीन अभियात्रियों को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ उसमें एक अभियात्री स्वयं डॉ0 शरदिंदु थे. इस दल की इच्छा और आगे ठेरान पर्वत (Theron mountains) तक जाने की थी और उनका जहाज राईजर लार्सेन आइस-शेल्फ (Riiser Larsen ice shelf) तक पहुँचने में कामयाब भी हुआ पर ‘चेतक’ हेलीकाप्टर का ईंधन लीक कर जाने से इस प्रयास को बीच में ही स्थगित करना पड़ा. चूंकि अभियान दल का कार्यकाल समाप्त हो चुका था अतः मोल्टके नुनाटक (Moltke Nunatak) तक पहुँचना इस मिशन की विशिष्ट उपलब्धि रही .
डॉ0 शरदिंदु की तीसरी अंटार्कटिका यात्रा इस लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण थी कि इस बार वह अभियान दल के सदस्य नहीं अपितु उसके मुखिया थे. इस अंतर को स्पष्ट करते हुए वे कहते है –
‘छः साल पहले इसी मार्मुगाओ बंदरगाह की इसी दस नंबर जेटी पर जिस अनुभव से गुजरा था उसकी पुनरावृत्ति हो रही थी 27 नवम्बर 1991 के दिन . फर्क सिर् इतना ही था कि उस बार मैंने पुल पार किया था नदी नहीं . आज नदी पार कर रहा था नदी में धंसकर .’ (पृष्ठ 179 )
लेखक की यह भावना शत-प्रतिशत लखनऊ के प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना की कविता ‘पार’ से अनुप्राणित है , जिसका जिक्र ‘ पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक में यथास्थान हुआ है. यहाँ पर उस कविता को सन्दर्भ के लिए आवश्यक समझ कर उद्धृत किया जा रहा है -
‘पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती .
नदी पार नहीं होती
नदी में धंसे बिना ‘ (पृष्ठ178)
वैज्ञानिक मान्यता है कि सूर्य की सतह और उसके परिमंडल में अनवरत जबरदस्त रासायनिक क्रिया होती रहती है. इसके फलस्वरूप सूर्या से बहुत भारी मात्रा में विद्युत् आविष्ट कण सौर-मंडल में फैलते हैं. इनका एक अंश हमारे ग्रह पृथ्वी के वायुमंडल के बाहरी स्तर (Magnetosphere) में पहुँच कर वहां उपस्थित विद्युत् आविष्ट कणों से टकराता है, जिससे रासायनिक क्रिया द्वारा ऊर्जा उत्पन्न होती है. इस ऊर्जा को हम ऑरोरा (Aurora) के प्रकाश के रूप में देखते हैं .ग्रीक भाषा में इसका अर्थ होता है - भोर (Dawn) अर्थात प्रभात. आर्कटिक में इसे (Aurora Borealis )और अंटार्काटिका में (Aurora Australis) कहते हैं. डॉ0 शरदिंदु के दल को सौभाग्य से अंटार्कटिका में (Aurora Australis) के दर्शन हुये. उस समय की अनुभूति को शब्दों में समेट पाना यूँ तो मुश्किल है पर उस उल्लास का प्राकट्य ‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक में इस प्रकार हुआ है –
‘आसमान में हरे प्रकाश का लहराता आँचल. इतनी तेजी से वह पूरे आसमान में फैला कि हम उतनी तेजी से घूमकर दूसरी और मुड़ नहीं पाए
फिर VIBGYOR के सातों रंग नहीं , न जाने कितने असंख्य अनजाने रंगों में बंटकर वह प्रकाश हमें लुभाता रहा . हम खुशी के मारे लगभग पागल हो गए थे . हम सब चिल्ला रहे थे. हाथ पैर पटक रहे थे .हेलीपैड पर लेटकर जिससे पूरा आकाश एक बार में देख सकें और वः झूमता झूलता ओलाह्राता स्वर्गिक प्रकाश किसी विशाल डिस्को में आगे पीछे होती रंगीन रोशनी को भी लजा देने वाला था .(पृष्ठ 201)
अंटार्कटिका की एक यात्रा भी गौरव और सौभाग्य का विषय है और डॉ0 शरदिंदु अब तक तीन सफल यात्राएं पूर्ण कर चुके थे. नियति फिर भी उन्हें विश्राम देने के हक में नहीं थी. निदान माह नवम्बर 2009 में जब ब्राजील के अंटार्कटिक अभियान में भारतीय प्रतिनिधि के चुनाव पर विमर्श हुआ तो ‘राष्ट्रीय अंटार्कटिक तथा समुद्री अनुसंधान केंद्र’ (NCAOR) ने पुनः लेखक का नाम प्रस्तावित किया जो स्वीकार कर लिया गया . राजकीय-सेवा के बचे हुए अंतिम कुछ वर्षों के लिहाज से लेखक के लिए यह अंतिम अवसर था . इसमें लेखक की भूमिका एक अतिथि और वैज्ञानिक के रूप में थी .
‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक में पाठक भू विज्ञान की अनेक पारिभाषिक शब्दावली से तादात्म्य करता है , जिसे जाने बिना कथानक को सही ढंग से समझ पाना संभव नहीं लगता . इनमें से कुछ शब्द इस प्रकार हैं -
पैक आइस (Pack ice), आइस फ्लोज (Ice floes), पॉलिनिया (Polyniya), फ़ास्ट आइस (Fast ice), ब्लिजार्ड (blizzard), नुनाटक ( Nunatak), वाइट आउट( white out ) ,सास्त्रुगी ( sastrugi), ब्लू आईस (Blue ice) , ग्राउलर (growler ), सरफेस ड्रिफ्ट (surface drift) , प्रेशर रिज (pressure ridge) , कैटाबेटिक विंड (katabatic wind) आदि ,
‘पृथ्वी के छोर पर’ पुस्तक के अन्य अनेक रोचक और रोमांचक प्रसंगों में, ज्वार आने के समय समुद्र की लहरों के आघात से शेल्फ-आइस में दरारें पड़ने और कदाचित टूटने से उत्पन्न शब्द तरंग से गोली चलने की आवाज का भ्रम होना , पेशे से इंजिनियर भारतीय सेना के मेजर का तेज बुखार और उसकी अद्भुत चिकित्सा, मैकेनिक हवलदार का मशीन मरम्मत के समय आदतन पेंच का मुख में डालना और फिर वापस खींचने पर सलाइवा जम जाने के कारण जीभ सहित उसका बाहर आना, भारतीय सेना के लाजिस्टिक टीम के असंतुष्ट सदस्य की कथा, उस हवलदार की गाथा जिसके कान के नीचे ठंडी हवा के आक्रमण से दर्दनाक फोड़ा विकसित हुआ, अपने खगोलीय चक्र में शुक्र ग्रह (वीनस) का पृत्वी के अत्यधिक निकट आने से उसके प्रकाश का वायुमंडल में बर्फ के कणों से होने वाला परावर्तन जिसने किसी गाड़ी के हेड-लाइट का आभास देकर लोगों को भ्रमित किया और अंतर्राष्ट्रीय सौहार्द्र की वह अद्भुत मिसाल जिसके अंतर्गत एक रूसी अभियात्री के एपेंडीसाईटिस का आपरेशन एक भारतीय चिकित्सक ने सीमित और अपर्याप्त संसाधनों से सफलतापूर्वक सम्पन्न किया तथा वेडेल समुद्र अभियान के दौरान एक वैज्ञानिक के अल्सर फटने (ulcer burst) एवं उसके चामत्कारिक उपचार की कथा, मैत्री के नए जेनशेड में आग लगना , ट्राईक्लोराइड विष के प्रभाव से नौ सेना के एक अधिकारी के पेट के अंदर की झिल्ली गलकर उल्टी के साथ बाहर आना और उसका उपचार आदि अनेक घटनायें प्रमुख हैं जो प्रमाता को सहसा मन्त्र मुग्ध कर देती हैं. सौहार्द्र की बात करें तो पुस्तक के कुछ अंश हठात मस्तिष्क में गूँज उठते हैं . यथा-‘
‘चौदह सदस्यों के इस दल में छोटा सा भारत समाया हुआ था . अभियान की सफलता के पीछे एक बड़ा कारण था कि विविधता के रहते हुए भी कभी किसी की पद मर्यादा को लेकर कोइ चर्चा नहीं होती थी. सभी को विश्वास था कि उसकी अपनी विशेषता ही उसे अंटार्कटिका तक ले आई है और सबको उस राष्ट्रीय यज्ञ में समान रूप से भाग लेना है.’ (पृष्ठ 81)
अंटार्कटिका की गाथा कभी समाप्त नहीं होगी . विश्व के तमाम देशों से नए-नए अभियान दल सागर के प्रशस्त साम्राज्य में अवस्थित उस स्वप्निल हिम-धरती पर जाते रहेंगे. प्रकृति के नवीन रहस्य सर्वथा उद्घाटित होंगे और विज्ञान के जटिल दस्तावेजों में उनके जिक्र भी होगा किन्तु जन-सामान्य के लिए अनुभूतियों का ऐसा दस्तावेज शायद फिर न तैयार हो और यदि भविष्य में कभी होगा भी तो वह किसी कवि-हृदय भू -वैज्ञानिक की कलम से ही निःसृत होगा. ऐसा मेरा विश्वास है . डॉ0 शरदिंदु ने अपने अभियान-चतुष्टय में अंटार्कटिका की धरती पर अपने जुझारूपन और दीवानगी के बल पर कई मिथ (Myth ) तोड़े हैं, इतिहास की रचना की है,जो सरकारी अभिलेखों में दर्ज हैं. उसी श्रृंखला में ‘पृथ्वी के छोर पर’ का भी अपना एक वजूद है जो निश्चय ही चिरकाल तक भारतीय अभियात्रियों का आकाश-दीप बना रहेगा.
ESI /436, सीतापुर रोड योजना कालोनी
अलीगंज सेक्टर-ए लखनऊ .
मोबा0 न. 9795518586
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