"लघुकथा कौमुदी" - यथार्थ और कल्पना के बीच की ज़मीन पर पनपती लघुकथाएँ. . .
वर्तमान में लघुकथा, साहित्य की एक ऐसी विधा बन चुकी है जिसकी कथ्य शैली का विस्तार निरंतर बढ़ रहा है। बहुत से रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति को, पहले से तय मानकों से हटकर लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में भले ही वे किसी विशेष शैली को लेकर नहीं चल पाते लेकिन अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने में सफल अवश्य होते हैं, ये एक अच्छी बात है। ऐसे ही रचनाकारों में एक नाम है; काव्य विधा में स्थापित शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' का, जिनका लघुकथा सँग्रह हाल ही में मुझे पढ़ने के लिए मिला।
'सहित्यागार' द्वारा प्रकाशित एवं बहुरंगी हार्डबाउंड कवर से सुसज्जित, 'लघुकथा कौमुदी' नाम से आकर्षित करते इस सँग्रह में कुल 91 लघुकथाओं को शामिल किया गया है। शामिल लघुकथाओं के विषय सुंदर और सार्थक है। अधिकांश रचनाएँ समाज की विभिन्न विसंगतियों को उभारने का न केवल प्रयास करती हैं बल्कि यथा संभव उनका विश्लेषण भी करती नजर आती हैं। शामिल रचनाएं किसी एक विशेष शैली की न होकर कथ्य के हिसाब से अपनी बात कहती नज़र आती हैं, जिसे लेखिका के लेखन का एक सुंदर पक्ष कहा जा सकता है। इसका एक उदाहरण संग्रह की प्रथम रचना 'धानी चूनर' में भी देखा जा सकता है जिसमें एक सैनिक-विधवा के आदर्श और उसके समर्पण को, परिवार के लिए प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है।
संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ नारी विमर्श पर रची गईं हैं। इनमें 'घानी का बैल', 'भविष्य', 'सशक्त', 'सबको मार दिया' जैसी रचनाएँ सहज ही आकर्षित करती हैं। लघुकथा 'कवच' में एक विधवा द्वारा सजने संवरने के पीछे, उसका समाज की बेचारगी तथा लोलुप नजरों से बचने का कारण बताना विचारणीय है। एक और लघुकथा 'स्त्री' का कथन "बुद्ध और महावीर बनने से ज्यादा मुश्किल है स्त्री बनना" भी सोचने पर विवश करता है। लघुकथा 'आड़' और 'सरप्राइज़' युवा होते बच्चों के भटकते कदमों को दर्शाने के साथ लिव इन रिलेशनशिप के विषय को सामने रखती है। तो 'हवा' लघुकथा में गलत रास्ते पर जाती बेटी के संभलने का संदेश सुंदरता से दिखाया गया है। एक रचना 'गिरगिट' में बिना सोचे समझे ऐसे प्रेम में फंसकर पछताने का (लव ज़िहाद) कथानक बुना गया है।
नैतिकता के कथ्य पर ही रची गई 'काबिल' 'अलविदा' और 'बधाई' जैसी रचनाएं सहज ही ग़लत व्यक्ति के तत्काल विरोध करने का अपना संदेश देने में सफल रही हैं। ऐसी ही एक रचना 'विष बेल' में मां द्वारा बेटे की चरित्रहीनता पर लिया गया निर्णय "खानदान की विष बेल को और नहीं बढ़ने दूँगी" बहुत बड़ा संदेश दे जाता है। एक और रचना 'दाग' में भी एक माँ द्वारा बेटे के बजाए 'बहू' का साथ देना प्रभावी बना है।
सामाजिक सरोकार से जुड़ी रचनाओं में
एक है 'ओढ़नी का दस्तूर', जिसमें परिवार के मुख्य सदस्य की मृत्यु पर पगड़ी रस्म जैसी प्रथा के समानांतर स्त्री संदर्भ में भी इस प्रथा को अपनाने की पैरवी की गई है। इसी तरह एक लघुकथा 'अरमान' में बेटी के जन्म होने पर भी दादी को 'स्वर्ण सीढ़ी' प्रदान करने का कदम भेदभाव पर सही चोट करता है। 'खून' नामक लघुकथा में अनाथालय से बच्चे लेने के विषय पर अच्छा कथ्य बुना गया है।
वृद्धावस्था में बच्चों की बेरूख़ी के विषय पर मानवेत्तर रचना 'भीत' प्रभावित करती है तो
लघुकथा 'सफ़र' तथा 'दुआएं' में क्रमशः बेटे के सकारत्मक और नकरात्मक रूख़ का दिखाना अच्छा बना है। कोरोना काल में वेश्यावृत्ति से जुड़े प्रभाव पर रचित लघुकथा 'आग' तथा गरीब नौकर को चोर समझ लेने के कथ्य पर लघुकथा 'चोरी' सहित और भी 'संकल्प', 'सम्मान', 'पुलिस', 'दोषारोपण', 'अनर्थ', 'छतरी', 'प्रस्ताव', 'पत्थर' और बोझ जैसी कई लघुकथाएं सहज ही अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं।
कुछ लघुकथाएं विषय अच्छा होने बाद भी प्रस्तुति के स्तर पर काफी हल्की रही हैं, ऐसी लघुकथाओं में 'आहुति', 'बारिश की बूंद', भरोसा, 'सब्र', 'अंकुश', 'द्वंद', 'इतिहास', 'पर्दा', 'असर', 'पिंजरे', 'सपने' और 'लकीरें' रचनाओं को देखा जा सकता है।
रचनाओं के शीर्षक पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। मूली, उथल पुथल, मज़ाक जैसे शीर्षक लघुकथा की गंभीरता को कम करते हैं। सँग्रह में एक दो रचनाओं में कथ्य की समरूपता का आभास (पुलिस/सबको मार दिया, अलविदा/बधाई) भी असहज करता है। लेखिका को इस समरूपता और शीर्षकों के चयन पर भविष्य में और अधिक ध्यान देना चाहिए।
बहरहाल विषयों की विविधता और रचनाओं में यथार्थ के बीच काल्पनिक समावेश के साथ एक सार्थक सोच सहज ही लेखिका के सुंदर लेखन के प्रति आशान्वित करती है।
लेखिका के समृद्ध एवं उज्जवल भविष्य की शुभेच्छा के साथ. . .
हार्दिक शुभकामनाएं।
विरेंदर ‘वीर’ मेहता
8130607208
लघुकथा संग्रह - लघुकथा कौमुदी
पृष्ठ - 112
मूल्य - ₹ 200/
प्रथम संस्करण - 2022
संग्रह लेखिका - शकुंतला अग्रवाल 'शकुन'
प्रकाशक - सहित्यागार, धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर