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‘‘कोहरा सूरज धूप’’ एक समर्थ कवि के आने की आहट

जीवन काल में बहुत कुछ प्रथम बार घटता है। कुछ घटनाये पूर्व नियोजित होती हैं और कुछ अप्रत्याशित। अप्रत्याशित पर तो किसी का कोई वश नही है परन्तु जो पूर्व नियोजित होती है उनमे पुरूषार्थ निहित होता है। किसी उदीयमान रचनाकार के लिए उसकी प्रथम कृति का प्रकाशन एक ऐसी ही घटना है। यह कृति ही रचनाकार के भविष्य-पथ का संधान करती है। मैथिलीशरण गुप्त को उनकी प्रथम काव्य कृति ‘‘जयद्रथ वध’’ से ही भरपूर पहचान मिली थी। कहते है पूत के पाँव पालने मे ही दिखते है अर्थात ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’। प्रथम कृति से ही कवि काव्य-निकष पर परखा जाता है । ‘कोहरा सरज धूप’ ऐसे ही एक उदीयमान कवि बृजेश नीरज की प्रथम अतुकान्त काव्य रचना है जिसमे शीर्षक के अभिप्रेत से जीवन के लगभग सभी तापमान अभिव्यंजित है या फिर कहे थोड़ी शीतलता है, थोड़ी आग है और कुछ गुनगनाहट भी है। इस काव्य मे वह सब खूबियाँ हैं जो रचना पर एक विहंगम दृष्टि डालते ही प्रमाता को सहसा जाग्रत कर देती हैं। दो-एक कविताएँ पढ़ते ही यह निश्चय दृढ़ होने लगता है कि हम किसी नौसिखिए की नही अपितु एक गंभीर चिंतक कवि की रचना पढ़ रहे हैं। यदि प्रथम प्रयास की यह गरिमा है तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि कवि का भविष्य उज्जवल है ओर वह काव्याकाश मे नये क्षितिजो का संधान अवश्य करेगा। इस कथन की पुष्टि मे ‘‘धारा ठिठकी’’ शीर्षक कविता का अध्वांकित अंश ही पर्याप्त है जिसमे कवि ने प्रदूषित गंगा के दर्द को शिद्दत से बयान किया है। यहाँ एक रूपक भी प्रच्छन्न रूप से विद्यमान है। जीवन भी तो एक नदी की तरह है।

 

“प्रवाह सरस, सरल नही

बस भौंचक है

अपने प्रारब्ध पर

 

पाँव थके हैं  

लेकिन

छाती पर उगे

ईट के जंगलो से

वेदना दिखती नही

 

बस

कभी-कभी

रात के सन्नाटे में  

एक कराह प्रतिध्विनित होती है

‘हे भगीरथ 

तुम मुझे कहाँ ले आए?’’

 

        उक्त पंक्तियाँ तो निदर्शन मात्र है। सम्पूर्ण काव्य में ऐसी ही मार्मिक वेदना का चित्रोपम वर्णन हुआ है। ‘‘उस पार’’ कविता मे परलोक को इस लोक के जीवन सदृश्य अथवा इससे भिन्न जो भी स्थिति हो, उस सत्य को जानने की जिज्ञासा है किन्तु उस पार अपनी ईच्छा से जा पाना संभव नहीं। कोई ऐसा गुरु-रूपी पंछी अगर मिल जाए तो वह राह-रूपी पंख प्रदान करे। एक अदद गुरु गरुड़ की तलाश है।

 

“जाए बिन

जाना कैसे जाए  

और जाने को चाहिए

पंख

पर पंख मेरे पास तो नही

 

चलो पंछी से पूँछ आएँ -

गरुड़ से

 

ढूँढते हैं गरुड़ को”

 

         प्रकृति और जगत में जो कुछ भी घटित हो रहा है, उस पर किसी का अंकुश नहीं है। इस सत्य के आधार पर कवि एक वातावरण की सृष्टि करता है। कवि का अपना कुछ भी कथ्य नहीं है, है तो बस केवल एक परिवेश। इस परिवेश से ही जीवन्त होता है एक मार्मिक व्यंग्य। कवि की इस अनिवर्चनीय कला का कायल कोई भी संवेदनशील पाठक हो सकता है। ‘‘आज़ाद हैं’’ शीर्षक कविता की एक बानगी इस प्रकार है-

 

“लोकतंत्र के गुम्बद के सामने

खम्भे पर मुँह लटकाए बल्ब

 

अकेला बरगद

ख़ामोशी से निहारता

अर्ज़ियाँ थामे लोगों की कतार

बढ़ता कोलाहल

पक्षी के झरते पर

 

गर्मी मे पिघलता

सड़क का तारकोल

 

सब आजाद है!”

 

      मानव जीवन क्या उसके वश में है या वह परिस्थितियों का दास है अथवा फिर कोई नियन्ता उसकी डोर थामे है। गोस्वामी तुलसीदास की माने तो- “उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत राम गोसाई।’’ इसके बाद भी जीवन-सागर मे हाथ पैर तो मारना ही पड़ता है। मानव प्रयास की कोई नियति नहीं है। दाँव कभी सीधा तो कभी उल्टा। भगवान कृष्ण कहते हैं हाथ-पाँव मारो परन्तु ‘‘मा फलेषु कदाचन’’। सारांश यह कि जीवन पर मनुष्य का कोई वश नहीं। इस भावना को ‘‘लकीर’’ नामक कविता में कवि बृजेश नीरज ने बखूबी उभारा है-

 

“बार-बार कोशिश है

सीधी लकीर खींचने की

लेकिन

कभी हिल जाता है

हाथ

कभी कागज मुड़ जाता है

तो कभी

टूट जाती है

पेंसिल की नोक

 

करूँ क्या?

 

पटरी रखकर

तो नही खीची जा सकती

जिन्दगी की लकीर”

 

      राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘‘साकेत’’ मे एक स्थान पर लिखा है- ‘‘दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि पतंग ही नही, दीपक भी जलता है।’’ कवि बृजेश नीरज की त्रासदी यह है कि वे इस चिरन्तन सत्य को समझ नहीं पाए और अपने प्रेम को उन्होंने इक तरफा समझा और बाद में जब समय ने उन्हें सही जानकारी दी तो समय निकल चुका था। जीवन की यह हताशा उनकी कविता ‘‘तुम्हारी आँखों में’’ भली प्रकार प्रकट हुई है। उदाहरण इस प्रकार है-

 

“तुम हमेशा ही

एक उम्मीद थी

मै ही आँख मूँदे मूंदे रहा

अपने सपनो से

जो हमेशा तैरते रहे

तुम्हारी आँखों मे।“

 

       एक चिरन्तन प्रश्न है कि ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों बनायी? आर्ष ग्रंथ कहते हैं यह उनकी लीला है। जब सोते है प्रलय हो जाती है; जागते है तो लीला रचते हैं। मनुष्य हतप्रभ होकर सोचता है, मैं क्या हूँ? मैं क्यों हूँ? ईश्वर ने मुझे क्यों बनाया? क्या केवल उदर पूर्ति कर मर जाने के लिये या मानव जीवन का कोई उद्देश्य भी है। संत मत कहता है मनुष्य का दुर्लभ जीवन ईश्वर की भक्ति या साधना कर मोक्ष पाने हेतु मिलता है। परन्तु ग्रंथ यह भी कहते हैं कि भक्त मुक्ति का आकांक्षी नहीं होता। वह तो जन्म-जन्मान्तर तक केवल भक्ति ही चाहता है। परन्तु जो भक्ति के स्तर तक नहीं पहुँचे हैं उन क्षुद्र मानवो के जीवन की गति क्या है? जाहिर है इस प्रश्न के उत्तर की तलाश अभी जारी है। मनुष्य विज्ञान के बल पर चाँद और मंगल ग्रह तक पहुँच गया परन्तु क्या वह अपने जीवन का उद्देष्य पा सका। ‘‘मैं क्या हूँ?’’ कविता में यही प्रश्न कवि अपने आप से करता है। परन्तु समस्या वही है कि क्या यह रहस्य कभी खुलेगा? कवि के शब्दों में -

 

“शायद हो जाऊँ हवा

और हवा के संग

यह धरती, आसमान

चाँद, तारे, सूरज

ग्रह, आकाश गंगा

सबको पार करते

पहुँच जाऊँ  

सुदूर ब्रह्माण्ड मे

या उसके भी आगे

 

तब भी समझ आयेगा क्या

यह सारा रहस्य”

 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के महाकाव्य ‘उर्वशी’ का नायक पुरूरवा एक स्थल पर कहता है-

 

“पर, न जानें, बात क्या है!

इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,

सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,

फूल के आगे वही असहाय हो जाता,

शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता

 

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से

जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से”

 

      सच ही तो है नारी के साहचर्य मे व्यक्ति क्षण भर के लिये अपनी व्यथा भूल सा जाता है। पर पुरूरवा की बात और थी वह इस धरती का शासक था। बड़े-बडे देवता उसके बल से थर्राते थे। मगर सामान्य मानव की व्यथा-कथा नारी साहचर्य के क्षणिक तोष से कहीं बड़ी है। बृजेश नीरज ने ‘‘तुम्हारा स्पर्श’’  नामक कविता में इस दर्द को बडी संवेदना के साथ रुपायित किया है -

 

“लेकिन

रात की इस शीतलता में भी

चुभती है एक बात कि -

शेष है

कल की रोटी का जुगाड़”

 

     जीवन की विभीषिका से तंग, थके-हारे व्यक्ति प्रायः अपना घर छोड़कर रोज़गार की तलाश में शहर आते हैं और नियतिवश यहीं बस जाते हैं। गाँवों में उनके घरों पर ताले लगे होते हैं। धीरे-धीरे वे घर देख-रेख के अभाव में नष्ट होने लगते हैं। खर-पतवार उग आते हैं। कबूतर अपना आशियाना बना लेते हैं। सब कुछ पुराना और जर्जर हो उठता है। पर कोई तो है जो उस सूने घर में भी नित्य आता है और किसी अप्रत्याशित आहट की तलाश करता है। कवि की संवेदना इस प्रसंग मे कविता ‘‘आहट’’ में देखते ही बनती है। निदर्षन इस प्रकार है -

 

“जगह-जगह उग आए हैं  

खर-पतवार

न शहनाई, न मातम

न बरता है दिया

देहरी पर

 

रोज साँझ ढले

अस्त होते सूर्य की

किरणें

आ जाती हैं  

टटोलने कोई आहट”

 

 बिहारीलाल जयपुर नरेश राजा जयसिंह के आश्रित दरबारी कवि थे। एक बार उनके दरबार में एक चित्रकार आया उसने राजा को एक चित्र दिखाया। चित्र में सर्प, मोर, हिरन और सिंह सब एक ही स्थान पर चित्रवत खड़े थे। चित्र के नीचे लिखा था- ‘‘केहिलाने एकत बसत अहि, मयूर, मृग, बाघ।’’ चित्रकार ने राजा से कहा क्या आपके राज्य मे कोई ऐसा विद्वान कवि है जो इस अर्द्ध दोहे को पूरा कर सके। निदान- बिहारी बुलाए गए। उन्होंने चित्र देखा। पल भर विचार किया और तत्काल दोहे को इस प्रकार पूरा किया- ‘‘जगत तपोवन सा किया दीरघ-दाघ-निदाघ।’’ अर्थात गरमी की शिद्दत से पशु आदि जीव भी इतने निश्चल और निष्क्रिय हो गए हैं कि वे अपने सहज स्वाभविक शत्रु अथवा आहार को भी छूने में समर्थ नहीं रहे और उनके इस व्यवहार के कारण संसार तपस्थली बन गया, जहाँ लोग अपना स्वाभविक बैर भी भूल जाते हैं। बिहारी के इस कथन मे उक्ति-वैचित्र्य अधिक है परन्तु कवि बृजेश ने ‘‘गर्मी’’ शीर्षक अपनी कविता में जिस कटु यथार्थ का वर्णन किया है वह प्रमाता के मानस को झकझोर कर रख देता है। बानगी पस्तुत है -

 

“वह सड़क कुछ दूर जाती है

फिर भाप बन उड़ने लगती है

तारकोल पिघल कर

पैरो मे चिपकने लगी है

 

लेकिन तभी दिखता है

एक आदमी

सिर पर ईंटें ढोता

कहीं पिघला न दे उसे भी

यह गरमी

लेकिन शायद

उसके आँतों का तापमान

बाहर के तापमान से अधिक है।“ 

 

      भूख और बेकारी देश की ज्वलन्त समस्या है इसीलिए अधिकांशतः यहाँ बचपन पैसा कमाने के लिये विवश है। किसी का परिवार अपने बच्चे का पेट भरने मे असमर्थ है तो कोई जन्म से अनाथ है। परन्तु क्या इस बचपन को पेट भरने के लिये भरपूर श्रम करने के बाद भी मजदूरी के लिये रिरियाते और बदले में पैसे के स्थान पर ठोकरें खाते देखने के बाद उस इन्तेहाई दर्द को हमने कभी महसूस किया। असंगति यह भी है कि बावजूद तमाम ठोकरें खाने के बाद यह बचपन अपने उसी कृत्य को दुहराने के लिये इस आशा में बाध्य है कि शायद उस बार नहीं तो इस बार पेट भरने लायक पैसे मिल जाएँ। बाल मजदूर के इस दर्दीले वैवष्य का बड़ा ही सुन्दर चित्रण कवि ने ‘‘बचपन’’ नामक अपनी कविता में किया है। दृष्य इस प्रकार है-

 

“पैसे के लिये हाथ फैलाते ही

बिखर गया बाल पिण्ड

 

सूखे होठों पर

किसी उम्मीद की फुसफुसाहट

 

लाल बत्ती हरी हो गयी

गाड़ी चल पड़ी

गन्तव्य को

बचपन पीछे छूट गया

एक कोने में खड़ा

कमीज को अपने

बदन पर डालता

 

आँखों में  

भूख की छटपटाहट

 

व्यवस्था के पहियों तले

दमित बचपन

बेचैन था वयस्क हो जाने को”

 

       मनुष्य के पुरुषार्थ की भी एक सीमा है। शाहजहाँ ने ताजमहल बनवाया तो इतिहासकारों ने प्रमाण मान लिया कि वह अपनी पत्नी मुमताज़ को इन्तेहायी मोहब्बत करता था। कोई प्रबुद्ध इस गल्प को कैसे माने। इतिहास गवाह है कि समय पड़ने पर भारतीय नारियों और उनके पतियों ने एक-दूसरे के लिए अपने प्राण दिये भी हैं और लिए भी। रानी सारन्धा और राजा चम्पतराय की कहानी हम भूले नहीं हैं। अपनी सामर्थ्य और सीमा का तथ्यांकन कवि बृजेश नीरज ‘‘तारे’’ नामक कविता में बड़े ही सहज भाव से करते हैं। परन्तु उसमें छिपा है एक दंष जो प्रमाता को हिलाकर रख देता है। उदाहरण निम्न प्रकार है -

 

“चाहता हूँ मैं भी

तोड़ लाना आसमान के तारे

तुम्हारे लिये

लेकिन क्या करूँ

मेरा कद है बौना

हाथ छोटे”

 

भारत की स्वतंत्रता असंदिग्ध थी पर वह स्वतंत्र नहीं हुआ था। उम्मीद की किरणें फैल चुकी थीं। मैथिलीशरण गुप्त ने इसे बड़े सांकेतिक शब्दों में व्यक्त किया- ‘‘सूर्य का यद्यपि नहीं आना हुआ। किन्तु समझो रात का जाना हुआ।’’ कुछ ऐसी ही सुरभित आशा कवि की कविता ‘‘उम्मीद’’ में मिलती है। जैसे-

 

“कसमसाते

करवटें बदलते

गुजर रही है रात

पल-पल

एहसास कराती अपनी गहनता का

खामोशी के साथ

 

हालांकि अब भी अँधेरे में हूँ  

लेकिन कुछ रोशनी आ रही है मुझतक

 

सुबह होने को है”

 

       कवि जिस दिन संतुष्ट हो गया समझो उसका अन्त हो गया। एक सतत पिपासा जब तक उसका पीछा न करे और भावों के पीछे जब तक वह बेतहाशा न भागे तब तक उसका प्रयास बेमानी है। सच्चा कवि वही है जो भाव पकड़ने की चाह में सदा अभावग्रस्त रहता है। भाव उसे अति भाव को पाने की प्रेरणा देते हैं। बृजेश नीरज ने ‘‘हर बार’’ नामक अपनी कविता में इस सत्य का जीवन्त चित्रण किया है। बानगी इस प्रकार है-

 

“कुछ है जो

कहने से रह जाता है हर बार

कोई सत्य है

अब भी समझ से परे

 

इतने शोर में तो

आगे बढ़ना भी मुश्किल है”

 

    देश की स्वाधीनता का जो स्वरूप अब उद्घाटित हुआ है उसे देखकर हम यह सोचने को बाध्य हो गए हैं कि क्या अंग्रेजों का शासन वर्तमान शासन से बेहतर था। बृजेश नीरज के अनुसार वह मात्र सत्ता परिवर्तन था। स्वाधीनता तो जनता को फुसलाने का एक स्वगठित मंत्र मात्र था। संभव है इस विश्लेषण से सब सहमत न हों परन्तु राजनीति को जो नैतिक पतन अब तक हुआ है वह निस्सीम है और वह हमें अन्यथा सोचने पर विवश करता है। कवि ‘‘आजादी’’ शीर्षक कविता में कहता है-

 

“कहाँ बदला कुछ

राजाओ के रंग बदल गए

भाषा वही है

सत्ता का चेहरा बदला

चरित्र नहीं

निरंकुशता समाप्त नहीं हुई

हिटलर ने मुखौटै पहन लिए बस”

 

     सुभद्रा कुमारी चौहान की एक प्रसिद्ध कविता है- ‘‘वीरों का बसन्त’’। इसकी कुछ काव्य-पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

 

“भूषण अथवा कवि चन्द नहीं।

बिजली भर दे वह छन्द नहीं।

है कलम बॅंधी स्वच्छन्द नहीं।

           फिर हमें बताये कौन हन्त।

           वीरों का कैसा हो बसन्त।“

 

       इस कविता की पंक्ति ‘‘है है कलम बॅंधी स्वच्छन्द नहीं’’ ध्यानव्य है। अंग्रेजो के शासन काल में लेखन स्वतंत्र नहीं था। सरकार के विरुद्ध लिखना देशद्रोह माना जाता था। आज संविधान की ओर से तो अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य है परन्तु अभ्यास में ऐसा नहीं है। सरकार के विरुद्ध लिखने पर लेखक अथवा प्रकाशक को टारगेट किया जा सकता है। इस दर्द को भी कवि ने अपनी कविता ‘‘शब्द’’ में बखूबी उतारा है। यथा-

 

“लेकिन शब्द हैं कि बोलते नहीं

उन्हें इंतजार है कवि का

उठाए कलम

लिख दे उन्हें

फटे कागज के टुकड़े पर

और वे चीख पड़ें

 

पर वह कवि

मजबूर है

काट दिए गए हैं

उसके हाथ

शाहजहाँ द्वारा”

 

       समाज में जो आज असंगति है,  भ्रष्टाचार है, वैषम्य है, अराजकता है, राजनीति का क्षरण है और इनके कारण लोक जीवन में जो कुंठा, निराशा, भुखमरी और दैन्य है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वास्तव में ईश्वर नाम की कोई चीज है भी अथवा नहीं और यदि वह जगत नियन्ता वास्तव में है तो कहाँ सो रहा है। ’’ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥’’ का उद्घोश करने वाले कृष्ण और ‘‘जब जब होय धर्म के हानि। बाढ़े असुर अधम अभिमानी।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।’’ वाले राम, कहाँ हैं या पाप का घड़ा अभी पूरा भरा नहीं। कवि बृजेश नीरज ‘‘राम कहाँ हो’’ नामक कविता में इसी प्रश्न को उठाते हैं।

 

“धन-शक्ति के मद में चूर

रावणके सिर बढ़ते ही जा रहे हैं

 

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

 

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा है आज फिर

राम ! तुम कहाँ हो?”

 

       ‘कोहरा सूरज धूप’’ काव्य में ऐसी ही अनेक मार्मिक कविताएँ हैं परन्तु उन सबका उललेख कर पाना इस संक्षिप्त लेख में संभव नहीं है। किन्तु कुछ कविताएँ जैसे- ‘‘तीन शब्द’’, ‘‘जमीन’’, ‘‘प्रश्न’’, ‘‘उस समंदर तक’’, ‘‘चेहरे’’, ‘‘आस’’, ‘‘दम तोड़ देगी’’, ‘‘मित्र के नाम’’, ‘हाथी’’, ‘‘वह सड़क बन्द है’’, ‘‘दीवार’’, ‘‘जागोगे तुम’’, ‘‘खोज’’ और सबसे विशेष ‘‘अर्थ’’ आदि अनेक ऐसी कविताएँ हैं जो हृदय को तो झकझोरती ही हैं परन्तु इनके झरोखों से निकट भविष्य में एक पुख्ता कवि के आने की आहट मिलती है।

 

                        - डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

                        ई एस-1/436, सीतापुर रोड योजना

                          अलीगंज, सेक्टर-ए, लखनऊ।

 

 

 

 

 

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Replies to This Discussion

  एक व्यापक और बड़ी ही प्रबुद्ध समीक्षा की है आदरणीय श्री गोपाल नारायण जी ने ।

पुस्तकका सार समझने के लिए आपकी समीक्षा जहाँ  पर्याप्त सिद्ध होती है वहीं पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा को भी हवा दे रही है।

आदरणीय गोपाल सर ने आपकी पुस्तक की इतनी गहन समीक्षा कर इसके महत्व में चार चाँद लगा दिए हैं।

आपको स्वर्णिम भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनायें....

सादर

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

"कोहरा सूरज धूप" पर मेरे विचार पुस्तक में ही उपलब्ध हैं. आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी की समीक्षा पढ़ कर ज्ञान और आनंद के नए रस से सराबोर हो गया हूँ....भाई बृजेश जी की कृति को एक विद्वान की स्वीकृति मिली है....हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाएँ.

आदरणीय शरदिंदु जी आपका बहुत-बहुत आभार!

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