For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नारी संवेदनाओं की अनूठी अभिव्यक्ति है – बंजारन

डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

********************

नारी पीड़ा को हिंदी साहित्य में अनेक कवियों ने बड़े अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है. जायसी का ‘नागमती विरह वर्णन’ तो हिंदी की थाती मानी जाती है. मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में उर्मिला के विरह वर्णन में एक पूरा सर्ग ही लिख डाला जो प्रबंध काव्य की मुख्य धारा में एक प्रक्षेप सा लगता है लेकिन उस अतिरंजित वर्णन में भी नारी के हृदय की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के ‘प्रिय प्रवास’ में मालिनी छंद के अंतर्गत यशोदा का प्रलाप ‘प्रिय पति मेरा वह प्राण प्यार कहाँ है, दु:ख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है’ में भी नारी पीड़ा अभिव्यक्त है परंतु यहाँ स्थायी भाव ममता या वत्सलता है. आचार्य विश्वनाथ ने ‘वात्सल्य’ को पृथक रस माना है, जबकि आचार्य मम्मट इसे श्रृंगार रस के अंतर्गत ही मानते हैं. परंतु यह बहस यहाँ पर प्रयोज्य नहीं है. इसी प्रकार अन्य महान कवियों ने भी नारी पीड़ा को अपने-अपने तरीके से अभिव्यक्ति दी है. परंतु नारी के मनोभावनाओं को व्यक्त करने वाली यह सारी उठा-पटक महज एक पुरुष दृष्टि है. कहना न होगा कि नारी मनोविज्ञान को समझने और उसे प्रकट करने का यह पुरुष प्रयास नि:संदेह अधूरा और अपूर्ण है. अधिकांशत: कवियों ने नारी पीड़ा के अंतर्गत वियोग के संचारी भावों का ही बहुलता से वर्णन किया है और उसमें उसे जो सफलता मिली उसका श्रेय इस सत्य को भी जाता है कि उन संचारियों का अनुभव एक प्रेमी के रूप में स्वयं कवि भी करता है. घनानंद और जयशंकर प्रसाद की स्वानुभूति ने ही उन्हें प्रेम की पीड़ा का चैम्पियन कवि बनाया. किंतु सही मायने में नारी के विशाल मन और उसकी गहन अनुभूतियाँ एक पुरुष के लिए अबूझ है. इसीलिए जब कोई नारी अपना हृदय स्वरचित कविताओं में उन्मुक्त करती है तो पुरुष स्तब्ध-निर्वाक हो जाता है. मीरा और अंदाल से लेकर महादेवी वर्मा तक जब भी नारियों ने अपने हृदय की पीड़ा को शब्दों का जामा पहनाया है पुरुषों का समुदाय उनके समक्ष नतमस्तक हुआ है. सुभद्रा कुमारी चौहान को एक दुर्घटना ने असमय हमसे छीन लिया वरना एक और सशक्त कवयित्री की पीड़ा उसकी रचनाओं के माध्यम से हमें आतमसात करने को मिलती. नयी पीढ़ी में कीर्ति चौधरी जिनका अभी हाल में ही निधन हुआ है और जिनकी कविताओं को तृतीय तार-सप्तक में प्रकाशित होने का गौरव मिला था, का नाम उल्लेखनीय है. इसके अतिरिक्त अनुराधा, शशि पाधा, शहनाज़ इमरानी, डॉ. प्राची सिंह और मिस हिडिम्बा भी नारी रचनाकार के रूप में स्थापित हो रही हैं. इस कड़ी में कुंती मुकर्जी एक उल्लेखनीय नाम है जिनकी प्रथम प्रकाशित कृति “बंजारन” ने तहलका सा मचा दिया है. यह रचना जिन-जिन हाथों में पहुँचती है वे इसके भाव शिल्प से अभिभूत तो होते ही हैं इसके प्रति अपने श्रद्धा पुष्प समर्पित करने को बाध्य हो जाते हैं.
बंजारन नायिका में एक तड़प है. एक दिशाहीन भटकाव है. विरहिणी को यह ज्ञात ही नहीं कि वह कौन है, किंतु उसके चपल पाँवों में बला की गति है, एक निरंतर बहाव है, वह ठहरती नहीं, ठिठकती भी नहीं, वह किसी अज्ञात की तलाश में पूरी तन्मयता से गतिशील है. ऐसा सम्मोहन, ऐसा आकर्षण जिसमें जीवन का अस्तित्व ही विस्मृत हो जाए, साँसों में केवल प्रिय ही प्रिय बसे हों और वह प्रिय जिसका कोई अता पता न हो, यह है बंजारन. व्यभिचारी या संचारी भावों के ब्याज से देखें तो यह आवेग, जड़ता, अपस्मार, अमर्ष, उन्माद, व्याधि, चपलता और ग्लानि से उत्पन्न भाव-शबलता है. कहना न होगा कि यह भाव-शबलता कवयित्री की पसंदीदा मनोदशा है जो ‘बंजारन’ और ‘घायल मृगी’ सदृश कविताओं में अपने चरम पर है. यथा –
खुले केश लहराते
बंद आँखें, बिखरी खामोशी
दूर कहीं जंगल में गाती है एक कबूतरी
दर्द से भीगी अनंत प्रेम का संदेश देती
व्यथित मन लिए
स्त्री बंजारन
दूर बहुत दूर....खिंची चली जाती है
- ‘बंजारन’ कविता से
पुलक रहा मन का तार
गगन में हो रहा झलमल
मन कभी बाग हो
कपोत सा फुदक रहा
और कभी कोयल बन
आम्रकुंज में कुहुक रहा
“ढूँढ़ूँ कहाँ तुझे...?”
निर्मोही, एक बार तू अपनी झलक तो दिखा

- ‘घायल मृगी’ कविता से
रूपक और बिम्बों की योजना में कवयित्री को कमाल की महारत हासिल है. ऐसी सुष्ठु योजनाएँ सिद्धहस्त कवियों में भी मुश्किल से मिल पाती है, क्योंकि उनके पास उदात्त नारी मन नहीं होता. ‘चिरंतन सत्य’ नामक कविता में मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य को ऐसी प्रभविष्णु योजना के साथ प्रस्तुत किया गया है मानो मृत्यु एक प्रेमगीत है और ईश्वर बंजारन का प्रेमी. आत्मा-परमात्मा के मिथक को निम्नांकित उदाहरण में बड़ी खूबी से रूपायित किया गया है.
पवन ने स्पर्श किया फूलों को
फूलों ने जगाया मकरंद को
मकरंद ने संदेशा भेजा भँवरों को
भँवरे ने गुंजार किया हर दिशा में
उड़ चला मानस हंस
ले कबूतरी संग
सुबह की बेला थी
था सारा जग प्रकाशमान
ज़मीन पर रह गया एक पार्थिव शरीर
बंजारन थी वह
‘मुझे डोर से मत बाँधो’ शीर्षक कविता के भाव पक्ष के अनुसार कवयित्री किसी स्नेह-बंधन में बँधना नहीं चाहती, क्योंकि वह स्वयं को मानवी नहीं मानती. वह स्वयं अमूर्त प्रेम है और प्रेम तो बस एक छाया है. प्रेम सहज उन्मुक्त है. वह बंधन में कब बँधना चाहता है? प्रेम हवा है, अपार्थिव है, अदृश्य है. पर प्रेम एक सुगंध भी है जो प्रेमी की साँसों में घुलता है. इस प्रेम का परिचय कवयित्री से ही जान लेते हैं –
मैं कौन हूँ? इतना परिचय जानो
तुम्हारी सुप्त अंतरात्मा में जागी
मैं त्रिगुण हूँ तुम्हारे हृदय में स्थित
मुझे राग अनुराग से मत बाँधो
फूल के सुवास में रहूँ
या तारों के प्रकाश में
प्रिय मेरे
नारी स्वातंत्र्य की बहस आज़ाद भारत में पत्रकारिता जगत की एक बड़ी क्रांति बनकर उभरी और उसने सचमुच कुछ ऐसे ज्वलंत बिंदु उठाए जिनका उत्तर पुरुष प्रधान समाज के पास नहीं था. नारी जन्मना आश्रित ही रही है. पहले पिता या भाई और फिर पति की आश्रिता बनना ही उसकी नियति है. लोक विश्रुत है कि पति के घर उसकी डोली जाती है और फिर उसकी शवयात्रा ही बाहर निकलती है. आर्ष साहित्य नारी को पूज्या कहे, जयशंकर प्रसाद उसे श्रद्धा मानें और मैथिलीशरण गुप्त “एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी” का कितना भी उद्घोष करें पर उसकी नियति मानसकार के इन शब्दों में ही आबद्ध है – ‘कत विधि सृजी नारि जग मांहि, पराधीन सपनेहु सुख नाही’. तुलसी की यह अभिव्यक्ति इतिवृत्तात्मक है. इसमें नारी की पीड़ा निहित नहीं है. इसमें नारी के अंतस का वह भयभीत चेहरा नहीं है जो उसे पति के जीवन रक्षा के लिए करवा-चौथ अथवा कजरी-तीज का व्रत रखने को बाध्य करती है. उसे आजीवन यह भय सालता रहता है कि यदि किसी दिन वह निराश्रित हो गयी तो...? ‘एक सवाल’ शीर्षक कविता में कवयित्री ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर खंगालती प्रतीत होती है.
रीति रिवाजों के नाम पर
खींच दी तुमने सिंदूर की लम्बी रेखा
भाग्य ने लिख दिया माथे पर मृत्युदण्ड
चेहरे पर घूँघट खींच कर
मौत का कहीं नामोनिशान नहीं
खामोश है तक़दीर
एक अदृश्य भय मन को सालता
सुहाग बिंदि दर्पण से पूछती
“कब तक है अस्तित्व मेरा?”
बंजारन काव्य में प्रसाद गुण अधिक नहीं है. पूरा काव्य लक्षणा और व्यंजना से जकड़ा हुआ है. यही कारण है कि इसकी कविताएँ अधिक सुबोध नहीं है. उन्हें समझने के लिए कवयित्री के यूटोपिया तक पहुँच बनानी पड़ती है. यह काम केवल गम्भीर पाठकों के बस का है. इस दृष्टि से और बिम्ब एवं प्रतीकों की अतिशयता के कारण भी ‘बंजारन’ काव्य की सम्प्रेषणीयता कम हो सकती है किंतु पठनीयता नहीं और यह काव्य का नकारात्मक पक्ष भी नहीं है अपितु इससे काव्य की स्तरीयता प्रकट होती है. ये कविताएँ मनोरंजन के लिए नहीं हैं. इनसे नारी के मन की अतल गहराईयों एवं उनकी सघन संवेदनाओं का पता चलता है. इस काव्य में नारी जीवन की अबूझ पहेलियाँ पर्त दर पर्त जिस शिद्दत से खुलती जाती हैं वह पुरुष पाठक को हैरान करने में समर्थ है. ये वो पहेलियाँ हैं जहाँ अकेले किसी पुरुष कवि की पैठ नहीं है. ‘तुम क्यों नहीं आयी सखि मेले में’ का एक दृश्य प्रस्तुत है –
कैसे तोड़ूँ रिवाजों की डोर
आत्मा मेरी बँधी है
टिकी है वंश की आतुर आँखें
पाँव मेरे भारी हैं
सखी! नहीं चल सकती मेले में
‘बंजारन’ काव्य नारी संवेदना के उन अनछुए पहलुओं पर भी प्रमाता का ध्यान आकृष्ट करता है जो मानव जीवन से तो जुड़े हैं पर शायद ही किसी पुरुष सत्ता ने कभी उसमें झाँकने का प्रयास किया हो. एक नववधू जब ससुराल आती है उसका भव्य स्वागत होता है. उसके जेहन में यह सत्य उड़ेंल दिया जाता है कि यह घर उसी का है, वही इसकी मालकिन है. मगर यथार्थ में क्या होता है? उस नववधू का जीवन महज एक कमरे में क़ैद होकर रह जाता है. मन बहलाने के लिए वह आंगन या अन्य विकल्पों की तलाश करती है. महादेवी वर्मा ने भी इस संवेदना को अपने कालजयी शब्द दिए थे – “विस्तृत जग का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना/परिचय इतना, इतिहास यही/उमड़ी कल थी मिट आज चली/ मैं नीर भरी दुख की बदली”. इससे संक्षिप्त और इससे सारगर्भित क्या कोई कविता हिंदी साहित्य में नारी जीवन को रूपायित करने में समर्थ है? कवयित्री कुंती मुखर्जी के काव्य में नारी वेदना के यही तत्व हैं जो पूरे ‘बंजारन’ काव्य में बिखरे पड़े हैं. उक्त नववधू प्रसंग का एक चित्रोपम दृश्य ‘यह घर तुम्हारा है’ शीर्षक कविता से प्रस्तुत है –
कहने को जो घर मेरा था
वह मेरा था ही नहीं
दुनिया को दिखाने के लिए
मेरे पास सब कुछ था
पर मेरा कभी कुछ न था
एक शहर के बीच शोरगुल में
बाहर की जगमगाती रोशनी में
अँधेरे कमरे को किसने देखा?
कवि की अनुभूति का प्राबल्य ही कविता को समर्थ बनाता है. अनुभूतियाँ जितनी ही गहरी और संवेद्य होंगी, वेदना उतनी ही ऊर्जस्वित होगी. ‘बंजारन’ काव्य में अनुभूतियाँ इतनी सूक्ष्म और हृदयग्राही हैं कि पाठक आश्चर्य और संशय में पड़ जाता है, उसके पास व्यक्त संवेदनाओं के समक्ष समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं बचता और हृदय से बस यही आवाज़ निकलती है – अद्भुत, अजगुत, असंभव. ‘एक लड़की’ शीर्षक कविता में कवयित्री ने नारी के बालपन से लेकर उसके जीवन विकास के सभी सोपानो का जो चित्रोपम वर्णन किया है वह सचमुच अनिर्वचनीय है. वह व्यक्त करने की नहीं अनुभव की चीज़ है और उसे जानने के लिए प्रमाता को उस कविता तक पहुँचना होगा. लगभग यही स्थिति परवर्ती कविता ‘एक लड़की पगली सी’ की भी है.
‘बंजारन’ काव्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें नारी वेदना कवियों के प्रिय विरह-वियोग रूपी परम्परागत अधिकरण पर अवलम्बित नहीं है. इसमें किसी प्रोषितपतिका या प्रवस्यतपतिका के दर्द भरे उच्छ्वास नहीं है. इसके विपरीत इसमें वेदना है, आँसू नहीं है, सीत्कार नहीं है. एक मस्ती है. पागलपन है. आवारगी है. नारी जीवन में पग-पग पर जो बंधन है, उसके साथ व्यक्ति और समाज की जो बेईमानी है उस दर्द को ‘बंजारन’ काव्य की कविताएँ बखूबी बयाँ करती हैं. यथा –
दूर कहीं बादल भटकते
कुछ यादें शूल से चुभते
बाग में पत्रहीन वृक्ष भीड़ में खड़ा
हरीतिमा बीच रोता अकेला
...
बचपन से यौवन तक
ज़िंदगी के भीड़ में कितने
रिश्ते टूटे और जुड़े
सोचती हूँ और खो जाती हूँ
- ‘पिघलता क्षण’ कविता से
रूस के प्रख्यात कथाकार लियो टॉल्स्टॉय की एक कहानी है – ‘How much land does a man need’. इस कहानी के कथानायक पैहोम को ज़मींदार से यह आश्वासन मिला कि वह सूर्यास्त से पूर्व जितना दौड़ लेगा वहाँ तक की ज़मीन उसकी हो जाएगी. पैहोम लालच में दौड़ता ही रहा और सूर्यास्त होने तक दौड़ता रहा परंतु इतना श्रम उसका शरीर बर्दाश्त नहीं कर सका और उसने दम तोड़ दिया. अंत में उसे केवल दो गज ज़मीन मिली. कुछ इसी प्रकार के भाव ‘बंजर ज़मीन का टुकड़ा’ शीर्षक कविता में कवयित्री ने उठाए हैं और जीवन की भाग-दौड़, छल-प्रपंच तथा झूठ-फरेब को अनपेक्षित और अनावश्यक बताया है. आखिर मनुष्य किस सनातन उपलब्धि के लिए इतने मिथ्याडंबर रचता है जब कि जीवन के अंत में उसे इसी मिट्टी में मिल जाना है.
जीवन शुरु होता है संघर्षमय
जंग रहता है आजीवन जारी
बचा रहता है क्या, हाथ में आया तो बस,
बंजर ज़मीन का एक टुकड़ा
और ऊपर नीला आसमान.
अभाव का भाव बड़ा विचित्र होता है. अनेक कल्पनाएँ मन में ऊभ-चूभ करती हैं. मेरे जीवन में माँ का अभाव रहा. यह तो मुझे याद है कि सन 1959 में वे मुझे पिता के सहारे छोड़ गयी परंतु मेरी कल्पना में उनकी मूर्त्ति नहीं उभरती. चेहरा याद नहीं. मेरी कल्पना ने शब्दों का एक रूप गढ़ा –
मैं हत-भाग्य, मलिन, शापित हूँ
म्लानमना हूँ, अधभासित हूँ
हाय ! प्रसूता की ममता का मुझको अंश नहीं मिल पाया
नहीं मिली माँ जिसने जाया
कवयित्री कुंती के जीवन में संतान का अभाव रहा. हम जानते हैं कि नारी जीवन की सार्थकता और उसकी सबसे महान जीवनोपलब्धि उसके माँ बनने में है. परंतु यह क्या मनुष्य के वश में है? सारे सुख देकर नियन्ता कभी एक ऐसी कमी कर देता है जिसका दंश व्यक्ति और परिवार को आजीवन सालता रहता है. मैथिलीशरण गुप्त जब ‘द्वापर’ काव्य की रचना कर रहे थे तब उनके पुत्र का निधन हो गय. ‘द्वापर’ की रचना थम गयी. कवि पत्नी का बुरा हाल. फिर हृदय दृढ़ कर कवि ने रचना पूर्ण की और पत्नी को समर्पण करते हुए यह कालजयी पंक्ति लिखी –

कर्म-विपाक कंस की मारी, दीन देवकी सी चिरकाल
लो अबोध अंत:पुरी मेरी, अमर यही माई का लाल.
कुंती मुखर्जी का यह दर्द जो उनकी कविता ‘जीवन एक सत्य’ में भली-भाँति रूपायित हुआ है, अध्वांकित है –
प्रारब्ध की कोई भूल थी
या पूर्व जन्मों के श्राप थे
वर्तमान जन्म सज़ा तो नहीं
फिर क्यों
ज़िंदगी चली सिसकते-सिसकते
...
न दोष दे किसी को
यह तो अपने ही कर्मों की त्रुटि
बंद वातायन के घेरे में
भरा दीपक रहा जलते-जलते
आज के वैज्ञानिक युग में पुनर्जन्म अथवा जन्म-जनमान्तर के संबंधों की मान्यता नहीं है. परंतु जो आर्ष ग्रंथों पर विश्वास करते हैं उन्हें न केवल पुनर्जन्म में यकीन है बल्कि वे जन्म-जन्मान्तर संबंधों पर भी विश्वास करते हैं. भारतीय संस्कृति में हिंदू विचार धारा के अंतर्गत अभी भी यह कामना बलवती है कि हमारा यह पति जो इस जन्म में प्राप्त है वही जन्म-जन्मान्तर तक हमें मिले. इसके अपवाद हो सकते हैं परंतु नारियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर पति के लिए जो अनेक व्रतादि किए जाते हैं वे सम्भवत: इसी सत्य के प्रमाण हैं. कवयित्री भी इसी परम्परा की पोषक प्रतीत होती हैं. उनकी कामना उनकी कविता ‘तुम और मैं’ में अभिव्यक्त है. उससे उनके हृदय के राज सामने आते हैं.
तुम और मैं कितने सदियों में
हाँ, और कितने जन्मों में
कितने चेहरे और रूप लिए
कभी भूले से, कभी अंजाने में
......................................
फिर एक सुबह ऐसी आयी
अनगिनत रातों को भेदती
हम दोनों के मधुर मिलन की
फैसला कर गयी ज़िंदगी
...
तुम और मैं फिर एक हुए
धरती आकाश का हुआ मिलन
आनंद के रस में स्नात
जीवन पुष्पित है, प्रेम चिरंतन.
‘हवा’ शीर्षक कविता का कथ्य इतना व्यापक है कि उसे शब्दों में समेट पाना संभव नहीं. पूरी कविता उद्धृत करना भी अप्रासंगिक है. इतना ही कहा जा सकता है कि कविता के मर्म को समझने के लिए कविता के शरीर में प्रवेश करना होगा तभी पता चलेगा कि किसी ने ‘खुशी को खजूर में अटका हुआ देखा है’ या नहीं अथवा नारी की कुक्षी में अमृत प्रवाहित होता है, सृष्टि का उद्भव और विलय होता है. इस कविता में नारी चेतना को जाग्रत करने का हाहाकार तो है ही साथ ही अस्तित्व की रक्षा का संदेश भी है.
प्रकृति और मानव के चिरंतन संघर्ष में हमेशा प्रकृति की विजय हुई है. परंतु मानव सदैव उस पर अत्याचार ही करता आया है. प्रकृति जड़ है, मौन है, पंगु है पर असहाय नहीं है. वह एक ऐसे राक्षस की भाँति है जो यूँ तो सोता रहता है परंतु जब कदाचित वह जागता है तो अपने पर हुए हर अत्याचार का बदला लेता है. आज पुराने टिहरी गढ़वाल का नामोनिशान तक बाकी नहीं है. उत्तराखण्ड के धामो में जो कहर बरपा हुआ वह शिवशंकर के त्रिनेत्र का उन्मीलन नहीं था वह भी मानव द्वारा किए जा रहे प्रकृति के अति दोहन का भयावह परिणाम था. ‘प्रकृति का नर्तन’ शीर्षक इस कविता में कवयित्री के नज़रिए उत्तराखण्ड की विपदा का एक दृश्य इस प्रकार है –
किसकी त्रुटि थी जो इतनी हुई
प्रचंड कालिका
किसने आह्वान किया इस तड़ित का
शैल-पुत्री और गंगा का
तरना था या तारना था क्या पता
जन्म कहाँ और मरण कहाँ
नियति की विनाश क्रीड़ा में
दो गज कफ़न भी नहीं मिला
स्थिरप्रज्ञ हिमालय ने देखा प्रकृति नर्तन
और, भागीरथ के संतान को तरते हुए
‘बंजारन’ काव्य एक सुमिरनी की तरह है. इसमें गीतों के मौक्तिक पिरोये हुए हैं. गजब है कि इसमें कोई माल खोटा नहीं है. सभी स्वच्छ-धवल मोती, ताज़गी और प्रकाश लिए हुए. चाहे वह ‘ख्वाबों के दिन हो’ या ‘ऐसी ही एक शाम थी’. इस सुमिरनी के कुछ महत्त्वपूर्ण मोती इस प्रकार हैं – ‘देवता मुझे शरण दो’, ‘अतीत के मटमैले परदे पर’, ‘ज़िंदगी के फलसफ़े’, ‘नर-नारी संवाद’, ‘अचानक’, ‘स्वर्णिम बेला’, ‘मेरी पाती पढ़ देना सखी’, ‘शरद ऋतु की एक गुलाबी शाम’, ‘क्षितिज कभी नहीं मिलते’, ‘फूल गुलाब के’ और ‘कनक चम्पा’. सभी रचनाएँ इस सत्य के प्रामाणिक दस्तावेज हैं कि ‘बंजारन’ की रचना के पीछे एक गम्भीर विचारधारा है और एक परिपक्व लेखन. इससे कवयित्री का जो व्यक्तित्व निखर कर सामने आता है उसे महादेवी वर्माके शब्दों में अगर कहें तो ऐसा होगा –
जन्म से है साथ मेरे, मैंने इन्हीं का प्यार जाना
स्वजन ही समझा दृगों के अश्रु को पानी न माना.

***********************************

ई एस-1/436, सीतापुर रोड योजना
अलीगंज, सेक्टर – ए, लखनऊ

Views: 3952

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Vikas is now a member of Open Books Online
yesterday
Sushil Sarna posted blog posts
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह वाह ..  प्रत्येक बंद सोद्देश्य .. आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, आपकी रचना के बंद सामाजिकता के…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाई साहब, आपकी दूसरी प्रस्तुति पहली से अधिक जमीनी, अधिक व्यावहारिक है. पर्वो-त्यौहारों…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी  हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। आपकी सार्थक टिप्पणी से हमारा उत्साहवर्धन …"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंद पर उपस्तिथि उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार। दीपोत्सव की…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय  अखिलेश कॄष्ण भाई, आयोजन में आपकी भागीदारी का धन्यवाद  हर बरस हर नगर में होता,…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी छन्द पर उपस्तिथि और सराहना के लिए हार्दिक आभार आपका। दीपोत्सव की हार्दिक…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service