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महेन्द्र भटनागर के नवगीत - दृष्टि और सृष्टि // --सौरभ

महेन्द्रजी की कविताओं में जीवन के प्रति असीम राग है.

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छः दशकों के काल-खण्ड में क्रियाशील व्यक्ति की रचनाधर्मिता के संभाव्य नहीं, कुल प्राप्य पर चर्चा होनी चाहिये. इतने लम्बे काल-खण्ड में किसी सक्रिय रचनाकर्मी के शब्द-कर्म के प्रभाव को साहित्य के स्वरूप में आये परिवर्तनों के सापेक्ष आँकना अधिक उचित होगा. इस क्रम में शाब्दिक हुई मनोदशा या तदनुरूप मनोभावों के आगे, रचनाकर्म के शैल्पिक स्वरूप, कथ्य में निहित भावों में स्थायित्व, बिम्बों की पहुँच तथा प्रभाव, रचनाकर्म का उद्येश्य तथा लक्ष्य आदि जैसे विन्दु यदि चर्चा का आधार बनें, तो अवश्य ही रचनाकर्म के सापेक्ष रचनाकार के कई पहलू स्पष्ट होंगे. ऐसा कोई प्रयास वर्तमान के साहित्य-यात्रियों के लिए भी सार्थक मार्ग-इंगित होगा. महेन्द्रभटनागर की रचना-यात्रा छः दशकों से अनवरत है. उनके सामने हिन्दी पद्य-साहित्य ने विभिन्न परिवर्तनों को जिया है.

 

इन छः दशकों में गीति-काव्य की प्रासंगिकता तक पर प्रश्नचिह्न लगे हैं. यह अलग बात है कि अनुशासित गीत-रचनाएँ फिर भी उठ खड़ी हुईं. फिर भी, करीब तीन पीढ़ियाँ इसी भ्रम में गुजर गयीं कि गीत या गेयता पद्य-साहित्य का प्रमुख अंग है भी या नहीं. सही है, परिवर्तन शाश्वत है. साथ ही, यह भी सच है कि परिवर्तन सदा मनचाहा नहीं होता. वैसे, जो नैसर्गिक है, वही स्थायी होता है. गीति-काव्य में नवगीत का प्रादुर्भाव एक क्रान्ति का प्रारम्भ भी है. विदित ही है, इस क्रान्ति का सूत्रपात दो काव्य-आचरणों के विरोध में हुआ था. एक तो नयी कविता के नाम पर क्लिष्ट गद्य का असह्य अतिक्रमण था. तो दूसरा था, गीतों में स्वानुभूति के नाम पर गलदश्रु अभिव्यक्तियों से पटी लिजलिजी शृंगारिक रचनाओं का अतिरेक, साथ ही, वायवीय वर्णनों से हुई उकताहट तथा प्रकृति से लिए गये बिम्बों के माध्यम से संकेतों का क्लिष्ट से क्लिष्टतर किये जाने के लिए होता हुआ शाब्दिक व्यायाम ! अर्थात, गीत जनमानस या लोक-जीवन की दृष्टि में यथार्थ के धरातल से दूर हो गये थे. ये मूलभूत आवश्यकताओं, तदनुरूप सोच, का प्रासंगिक रुपायन रह ही नहीं गये थे. नवगीत इन दोनों काव्य-आचरणों को साध पाने में सफल हुआ, यह स्वीकारने में कोई संशय नहीं है.

 

इन मतों के आलोक में डॉ. महेन्द्रभटनागर की रचना-यात्रा के मील-पत्थरों को ध्यान से पढ़ना आवश्यक हो जाता है. इस हेतु कसौटी पर गीत-काव्य-मनीषी देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ द्वारा सम्पादित एवं अभिव्यक्ति विश्वम के सौजन्य से अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित, काव्य-संग्रह ’महेन्द्र भटनागर के नवगीत : दृष्टि और सृष्टि’ है. सम्पादक के तौर पर देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ जी ने महेन्द्रभटनागर की न केवल रचना-यात्रा एवं अभीष्ट को रेखांकित किया है, बल्कि नवगीत के क्षेत्र के अन्य दस मान्य पुरोधाओं के विचार भी संकलित किये हैं. ’इन्द्र’जी के अलावा कुमार रवीन्द्र, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ’यायावर’, डॉ. जितेन्द्रनाथ मिश्र, मधुकर अष्ठाना, डॉ. श्रीराम परिहार, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, डॉ. विष्णु विराट, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा तथा डॉ. शिवकुमार मिश्र ने इन रचनाओं के माध्यम से महेन्द्रजी के रचनाकर्म पर सारगर्भित विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं. विवेचनाएँ कमोबेश उपर्युक्त वर्ण्य विन्दुओं के सापेक्ष ही हुई हैं तथा महेन्द्रजी की रचनाओं को नवगीतों की कसौटी पर परखने का सार्थक प्रयास हुआ है. इन विवेचनाओं को यदि ध्यान से देखा जाय तो सभी मान्यवर समवेत स्वर में यही कहते हैं, कि महेन्द्रजी की रचनाओं में जहाँ एक ओर युवा मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है, तो दूसरी ओर जीवन-पथ पर चलते-गिरते-उठते आमजन की हताशा, अवसाद, उसकी असमंजस या छटपटाहट भी है. विश्वासी मन की ललकार है, तो अव्यवहार के विरुद्ध चेतावनी के ठोस स्वर भी हैं. इन रचनाओं में भविष्य के प्रति आशा है, तो वयस्क मन के स्थावर हो चुके अनुभव, तदनुरूप संतुलित सोच भी है. जहाँ एक ओर समाज की घृणित विरूपता और विद्रूपता है, तो समय की क्रूरता से विचलित मनोदशा भी है, जहाँ अपरिहार्य प्रगति के दबाव भी हैं. ऐसी किसी लंगड़ी प्रगति में न चाहते हुए भी बहने की विवशता भी है. परन्तु, यह भी सही है कि आपकी रचनाओं में शाश्वत आचरणों के प्रति गहन आस्था है. सर्वोपरि, सबने इस तथ्य को अवश्य स्वीकारा है, कि, महेन्द्रजी की कविताओं में जीवन के प्रति असीम राग है. रचनाओं में जीवन के प्रति यही रागात्मकता आश्वस्त करती है, कि जीवन प्रकृति का श्रेष्ठतम वरदान है. महेन्द्रजी इस वरदान को हर तरह से स्वीकार करते हैं. कहना न होगा, महेन्द्रजी के रचनाकर्म में जीवन अपने विभिन्न रूपों में दिखने के बावज़ूद अपने स्थायी स्वरूप में ही विद्यमान है.

 

छायावादोत्तर काल की रचनाओ में भी प्रकृति से लिये गये बिम्बों का प्रारूप कई वर्षों तक पूर्ववत ही बना रहा था. यद्यपि रचनाएँ यथार्थ के धरातल उतरने लगी थीं. किन्तु, मानवीय आचरण को रुपायित करते गीतकार तब भी वन-प्रांतर से लिये गये बिम्बों के माध्यम से मनस-रहस्यों के जाल बुन रहे थे. यह अवश्य है कि कवियों का एक वर्ग वर्तमान की विसंगतियों के विरोध में आमजन के मन की खौंझ को शाब्दिक करने के प्रयास में रचनारत था. अभिव्यक्ति के नये साधन ढूँढे जा रहे थे. इस क्रम में यदि कहा जाय कि नवगीत अपने प्रोटोटाइप रूप में ही सही, परन्तु, दिखने लगा था, तो अतिशयोक्ति न होगी. गीत नये बिम्बों और शिल्प में अपनायी जा रही नवता तथा काव्य-चेतना में आयी प्रखरता के कारण नये कलेवर में प्रस्तुत हो रहे थे. इन नये गीतों का भी स्थायी शैल्पिकता गेयता ही थी. परन्तु कथ्य और इंगितों में बहुआयामी परिवर्तन के रंग-ढंग दिखने लगे थे. व्यक्तिवाची भाव लोक और समाज की भावनाओं को स्वर देने का प्रयास कर रहे थे. तथा, ’मनुष्य’ रचनाओं के केन्द्र में स्थापित हो चुका था. महेन्द्रजी इस समूचे काल-खण्ड और इन समस्त घटनाओं के साक्षी हैं ! उनकी प्रस्तुतियों के शिल्प और कथ्य इस नयेपन से अछूते नहीं थे. प्रस्तुत काव्य-संग्रह की भूमिका में वीरेन्द्र आस्तिक कहते भी हैं – ’मनुष्य कितने रूपों में समाज में समादृत है, उसका हिसाब-किताब है महेन्द्रभटनागर का रचना-लोक ! उनके रचनाकर्म का एक ही लक्ष्य है आदमी का सर्वांग विकास’. गीत के कलेवर में हो रहा यही व्यापक अंतर आगे चल कर विन्दुवत परिभाषित हुआ. गीत की भावभूमि से उठा यथार्थवादी वैचारिक दृष्टिकोण ’नवगीत’ के रूप में सामने आया. गीत तथा नवगीत के मध्य विधागत अंतर को रेखांकित करते हुए डॉ. भारतेन्दु मिश्र ने कहा है, कि, ’गीत के पारम्परिक विषय प्रणय, आकर्षण, मनस्ताप, करुणा, विरह, दार्शनिकता और रहस्यवाद की अभिव्यक्ति रहे हैं, नवगीत में इनकी आवश्यकता नहीं है. नवगीत में वैयक्तिकता का एक तरह से विरोध ही है’. तात्पर्य है कि नवगीत लोकोन्मुख हुआ करते हैं. डॉ. भारतेन्दु मिश्र इसी विन्दु को आगे स्पष्ट भी करते हैं - ’यहाँ लोकोन्मुखता से तात्पर्य लोक-जीवन की विसंगतियों लोकधुनों तथा लोक जीवन में व्याप्त जनमानस की संवेदना के रूप में देखा जाना चाहिये. लोकोन्मुखता को व्यापक जनमानस की संवेदना के रूप में देख जाना अनिवार्य है’. यहाँ यह समझना आवश्यक होगा, कि ’लोक’ का निहितार्थ केवल ग्रामीण परिवेश नहीं है. शहरों में जी रहे व्यक्ति के लिए ’लोक’ शहरी जीवन के समस्त आयामों से प्रभावित हुआ शब्द ही होगा. प्रसन्नता है, कि इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष काव्य-संग्रह की रचनाओं का आकलन हुआ है. आदरणीय देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - ’मुझे यह स्वीकार करते हुए तनिक द्विधा नहीं है कि महेन्द्र भटनागर भले सोलहो-आना नवगीतकार न हों, किन्तु उनके इन विचारणीय गीतों में नवगीतात्मकता का तत्त्व लबालब है’.

 

जैसा कि उपर्युक्त वाक्यों से स्पष्ट हुआ है, महेन्द्रजी का तब का समय नवगीतों के मांस-पिण्ड आकार-ग्रहण का समय था. कई करवटों के बाद ही नवगीत का यह आधुनिक स्वरूप प्रसूत हुआ. यानी, महेन्द्रजी की इन रचनाओं में नवगीत के प्रोटोटाइप प्रारूप की झांकी अवश्य परिलक्षित होती है. रचनाओं के शिल्पगत लय के सम्बन्ध में इन्द्रजी पुनः कहते हैं - ’महेन्द्रभटनागर के प्रतिपाद्य गीतों में छन्दों की बुनावट भले ही न हो, किन्तु वे लय की कसौटी पर खरे उतरते हैं’.

 

’इन्द्र’ जी का ऐसा कहना इन रचनाओं की समीक्षा हेतु एक नयी दृष्टि अपनाने का आह्वान करता है. आखिर शब्दों में गेयता मात्र लय-संयोग या शब्दों की मात्रिकता के कारण नहीं होती. तो क्या महेन्द्रजी गेयता-निर्वहन के लिए शब्दों की मात्रिकता के अलावे अन्य प्रभावी कारणों का प्रयोग कर रहे थे ? यदि हाँ, तो उसकी गंभीर पड़ताल अन्य विद्वानों ने क्यों नहीं की, जिनकी इस संग्रह में भूमिकाएँ हैं ? डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा ’यायावर’ ने इस संदर्भ में एक प्रयास अवश्य किया है. परन्तु, समस्त नम्रता के साथ मैं अवश्य कहूँगा, कि वे भी अपनी दृष्टि को व्यापक नहीं कर सके हैं. पंक्तियों की मात्रिकता में एकरूपता की खोज़ उन्होंने अवश्य करनी चाही है. परन्तु जितनी सहजता वे पंक्तियों में चाहते हैं, महेन्द्रजी ने वैसी सहजता को प्रश्रय दिया नहीं है. बाकी विद्वानों ने महेन्द्रजी की भावभूमि का ही खनन किया है ? सभी ने संग्रह की रचनाओ की ’भावभूमि’ पर अपनी-अपनी भूमिकाओं में बहुत कुछ कहा है. परन्तु, यह ’बहुत कुछ’ इन ’लयबद्ध’ रचनाओं के लिए तबतक ’बहुत कुछ’ नहीं हो सकता, जबतक ’लय’ के कारकों की पड़ताल न हो जाय ! क्योंकि, इन्द्रजी के कहे का संकेत यदि समझा जाय तो यह अवश्य है कि ये रचनाएँ शास्त्रीय छन्दों या अनुछन्दों को थाम कर साहित्य की वैतरिणी पार करती नहीं दिखतीं. मैं इस उद्घोषणा से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. वस्तुतः प्रारम्भ से लेकर आजतक जो भी नवगीत लिखे गये हैं, वे अपने बिम्बों और कथ्य के कारण गीतों से प्रच्छन्न तो हैं ही, शिल्प और शब्द-संयोजन के क्रम में भी वे छन्दों का हू-ब-हू अनुकरण नहीं करते. यह नवगीतों का दोष नहीं, अपितु इनकी विशिष्टता है. छन्दों के विभिन्न रूपों या सुमेलों या टुकड़ों से नवगीतों की पंक्तियों का निर्वहन हुआ करता है. महेन्द्रजी की रचनाएँ इससे अलग नहीं हैं. यदि कोई अंतर है तो इनकी रचनाओं में पंक्तियों का एकस्वरूप न होना ! क्यों न हम इन रचनाओं की मात्रिकता, या वर्णिकता, के व्यवहार पर अपनी दृष्टि को ज़ूम-इन करें !

 

संग्रह की एक रचना ’जीवन’ की कुछ पंक्तियों को देखते हैं - जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा / जो खिल रहा है आज, / कल झर जायगा ! / ... / इसलिए, हर पल विरल / परिपूर्ण हो रस-रंग से, / मधु-प्यार से ! / डोलता अविरल रहे हर उर / उमंगों के उमड़ते ज्वार से !  स्पष्ट है, कि रचना की पंक्तियों में अंतर्गेयता का तार्किक निर्वहन हुआ है. लय-भंगता नहीं है. पंक्तियों को यदि शब्द-कलों के मानकों के अनुसार देखें तो शब्द-संयोजन ’हरिगीतिका’ छन्द से ’अनुप्राणित’ है. परन्तु, संग्रह की अन्य रचनाओं को परखने के क्रम में प्रतीत होता है कि महेन्द्रजी इन रचनाओं में लयता के लिए शास्त्रीय छन्दों से ’अनुप्राणित’ या ’प्रभावित’ होने के स्थान पर उर्दू बहरों या उनके ज़िहाफ़ (शास्त्रीय परिवर्तन) समर्थित अर्कान पर निर्भर करते हैं. वस्तुतः, इस काव्य-संग्रह में महेन्द्रजी ने उर्दू के पाँच बहरों का विशेष रूप से प्रयोग किया है. वे बहर हैं, रजज - २२१२ (दीर्घ दीर्घ ह्रस्व दीर्घ), रमल - २१२२ (दीर्घ ह्रस्व दीर्घ दीर्घ), मुत्कारिब - १२२ (ह्रस्व दीर्घ दीर्घ), मुत्दारिक - २१२ (दीर्घ ह्रस्व दीर्घ), हजज - १२२२ (ह्रस्व दीर्घ दीर्घ दीर्घ). यहाँ एक तथ्य अवश्य ज्ञातव्य है, कि उर्दू बहर के नियमानुसार एक दीर्घ या गुरु वर्ण छन्दशास्त्र के नियमों की तरह व्यंजन के साथ किसी दीर्घ मात्रिक स्वर के संयोग से ही नहीं संभव होता. बल्कि दो लघु वर्ण यदि एक साथ उच्चारित हों तो वे भी दीर्घ वर्ण के ही माने जाते हैं. जैसे, हम, तुम, वह, दिन, कल, पल आदि. इतना कि, ’कमल’ शब्द में ’क’ तो ह्रस्व वर्ण का होता है, किन्तु ’मल’ दो ह्रस्वों का समुच्चय होने के बावज़ूद दीर्घ माना जाता है. क्यों कि ’कमल’ शब्द में ’मल’ का उच्चारण समवेत होता है. महेन्द्रजी भी उच्चारण के अनुसार शब्दों के वर्णों को नियत मानने के पक्षधर हैं. इनकी रचनाओं की पंक्तियाँ इन्हीं बहरों की आवृतियों पर शब्दबद्ध हुई हैं. यह अवश्य है, कि इन बहरों की आवृतियों का निर्वहन दो या दो से अधिक पंक्तियों के समुच्चय में होता है.

 

उपर्युक्त मत के आलोक में अब रचना ’जीवन’ को पुनः देखें - जीवन हमा (२२१२) / रा फूल हर (२२१२) / सिंगार-सा (२२१२) / जो खिल रहा (२२१२) / है आज कल (२२१२) / झर जायगा (२२१२). अर्थात इस पंक्ति में रजज के रुक्नों की आवृति हुई है. लेकिन दूसरी पंक्ति - इसलिए हर (२१२२) पल विरल परि (२१२२) / पूर्ण हो रस (२१२२) / रंग से मधु (२१२२) / प्यार से (२१२). यह आवृति बहर रमल की मुहाज़िफ़ अर्थात तनिक परिवर्तित आवृति है. तनिक परिवर्तित इसलिए कि आखिरी आवृति (रुक्न) में एक दीर्घ कम है. यह सारा कुछ उर्दू बहर को जानने वाले भली-भाँति समझते-बूझते हैं. आगे देखें - डोलता अवि (२१२२) / रल रहे हर (२१२२) / उर उमंगों (२१२२) / के उमड़ते (२१२२) / ज्वार से (२१२). ठीक पूर्ववर्ती पंक्ति की तरह यह भी रमल बहर के परिवर्तित रूप में निबद्ध है.

 

चूँकि उर्दू की बहरें ग़ज़लों के मिसरों (पंक्तियों) में गेयता के होने का शत प्रतिशत दायित्व निर्वहन करती हैं, इसी कारण, महेन्द्रजी की रचनाओं में गेयता का आपरूप आ जाती है. किन्तु, यह भी उतना ही सच है, कि महेन्द्रजी एक रचनाकार के तौर पर रचनाओं की सभी पंक्तियों में एक समान बहर को अपनाने के आग्रही नहीं हैं. इतना ही नहीं, कई बार तो रुक्नों की आवृतियों की संख्या भी अपने हिसाब से ले लेते हैं. इसके अलावे बीच-बीच में किसी अन्य बहर के किसी एक रुक्न पर निबद्ध शब्द या शब्द समुच्चय को रोक (pause) की तरह भी रख लेते हैं. जैसे,

रचना ’अभिरमण’ के इस अंश को देखें – कल सुबह से रात तक / कुछ कर न पाया; / सिर्फ़ / कल्पना के स्वर्ग मेंस्वच्छंद सैलानी-सरीखा घूमा किया !

इस अंश की पड़ताल करें - कल सुबह से (२१२२) / रात तक कुछ (२१२२) / कर न पाया (२१२२) / सिर्फ़ / कल्पना के (२१२२) / स्वर्ग मेंस्वच् (२१२२) / छंद सैला (२१२२) / नी-सरीखा (२१२२) /....

इस पंक्ति में सिर्फ़ ऐसी ही रोक (pause) है, जिसकी अभी-अभी चर्चा हुई है. संग्रह में ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जहाँ कोई शब्द या शब्द समुच्चय रचना की लयता की धारा बदलता हुआ मिलेगा.

रचना ’अभिरमण’ को पुनः लें - कल सुबह से रात तक / कुछ कर न पाया / कल्पना के सिंधु में / युग-युग सहेजी / आस के दीपक बहाने के सिवा / हृदय की भित्ति पर जीवित अजन्ता-चित्र.. रेखाएँ / बनाने के सिवा ! रचना ’अभिरमण’ के इस भाग को संभावित बहर के अनुसार संयत करें तो - कल सुबह से (२१२२) / रात तक कुछ (२१२२) / कर न पाया (२१२२) / कल्पना के (२१२२) / सिंधु में युग (२१२२) / युग सहेजी (२१२२) / आस के दी (२१२२) / पक बहाने (२१२२) / के सिवा (२१२). अर्थात, रचना का यह भाग बहर रमल के परवर्तित प्रारूप में निबद्ध है. लेकिन इसके आगे की पंक्ति एकदम से अलग बहर हजज के परिवर्तित प्रारूप में साधी गयी है - हृदय की भित् (१२२२) / ति पर जीवित (१२२२) / अजन्ता-चित् (१२२२) / र.. रेखाएँ (१२२२) / बनाने के (१२२२) / सिवा (१२). इतना नहीं, ’किस कदर भरमाया / तुम्हारे रूप ने’ जैसा वाक्यांश या पंक्ति मात्रा-संयोजन के लिहाज से कत्तई शुद्ध नहीं है. वाचन के क्रम में ’भरमाया’ शब्द को दाब कर या इसपर से स्वर-आघात हटा कर उच्चारित करते हुए पढ़ना होता है. क्योंकि इसी रचना की इसी पंक्ति के समान अन्य पंक्तियाँ बहर रमल के परिवर्तित प्रारूप में निबद्ध हैं. जैसे, किस कदर मुझको सताया है / तुम्हारे रूप ने - किस कदर मुझ (२१२२) / को सताया (२१२२) / है तुम्हारे (२१२२) / रूप ने (२१२); अर्थात यह पंक्ति बहर रमल के परिवर्तित प्रारूप को संतुष्ट करती है.

दूसरी पंक्ति, किस कदर यह कस दिया तन मन / तुम्हारे रूप ने - किस कदर यह (२१२२) / कस दिया तन (२१२२) / मन तुम्हारे (२१२२) / रूप ने (२१२); यह पंक्ति भी बहर रमल के परिवर्तित प्रारूप को संतुष्ट करती है.

आगे, इसी रचना ’अभिरमण’ के इस भाग को देखें - कल सुबह से रात तक / कुछ कर न पाया / भावना के व्योम में / ... / भोले कपोतों के उड़ाने के सिवा ! / अभावों की धधकती आग से / मन को जुड़ाने के सिवा /

इस भाग की पंक्ति में तीन तरह की बहरों को संतुष्ट किया गया है. एक, बहर रमल का परिवर्तित प्रारूप - कल सुबह से (२१२२) / रात तक कुछ (२१२२) / कर न पाया (२१२२) / भावना के (२१२२) / व्योम में (२१२). इसी भाग में दूसरी बहर रजज का परिवर्तित प्रारूप दिखता है - भोले कपो (२२१२) / तों के उड़ा (२२१२) / ने के सिवा (२२१२), जबकि बहर हजज के परिवर्तित प्रारूप को भी यहीं देखते हैं - अभावों की (१२२२) / धधकती आ (१२२२) / ग से मन को (१२२२) / जुड़ाने के (१२२२) / सिवा (१२)

 

कहने का तात्पर्य यह है, महेन्द्रजी ने नवगीतों के आरम्भिक समय में ही छन्द से मुक्ति पर प्रयास प्रारम्भ कर दिया था. वे फिर भटके नहीं. उन्होंने रचनाओं की पंक्तियों में अंतर्गेयता के निर्वहन का भरसक प्रयत्न किया है. यह अवश्य है कि उर्दू बहरों के प्रयोग ने, संभव है, कई छन्द शास्त्रियों को चौंकाया होगा. तभी देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ जी को इन रचनाओं की शैल्पिक दशा, बिम्ब-प्रयोग तथा अंतिम प्रभाव के आधार पर यह कहने में किंचित संकोच नहीं होता - ’उनमें (महेन्द्रजी की रचनाओं में) छन्दोमुक्त गद्यात्मकता और सपाटबयानी कहीं नहीं मिलती. मैंने इसीलिए उन्हें नवगीत न कह कर नवगीतात्मक कहा है’. आगे ’इन्द्र’जी अपने कहे को और स्पष्ट करते हैं - ’इन गीतों को नवगीतात्मक कहने का कहने का आशय उन्हें कमतर मानने का कतई नहीं है. इस शैली में छायावाद / प्रगतिवाद के परवर्ती रचनाकारों ने प्रचूर मात्रा में लिखा है ... गीत के लिए जितना छन्द आवश्यक है, उतनी ही लय. लय यदि आत्मा है तो छन्द उसको धारण करने वाला कलेवर है ... छन्दोभंग की स्थिति तभी आती है जब रचनाकार का लय पर अभीष्ट अधिकार न हो. भिन्न-भिन्न लयानुबन्धों से ही विविध प्रकार के छन्द जन्म लेते हैं. .. वैसे ही उन लयों से निर्मित मुक्त-छन्द के रूप भी अनेकानेक हो सकते हैं... महेन्द्र भटनागर को लय का पूरा ज्ञान है’.

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काव्य-संग्रह : महेन्द्रभटनागर के नवगीत - दृष्टि और सृष्टि

सम्पादन : देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’

कलेवर : पेपरबैक

मूल्य : रु. 130/

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद.

ई-मेल : anjumanprakashan@gmail.com

सौजन्य : अभिव्यक्ति विश्वम, लखनऊ.

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आ०  सौरभ जी

आपक लेख देखकर मुझे  अपने एक  लेख  'कवि महेंद्र भटनागर का आयास :: ‘जीने के लिए’  का  स्मरण हो आया जो उनके एक काव्य संग्रह 'जीने के  लिए' पर आधारित था . आपने बिलकुल यथार्थ  कहा कि इतने वरिष्ठ कवि की संभावना नहीं अपितु अब उसकी उपलब्धियों पर चर्चा होंनी  चाहिए .काव्य में गेयता पर आपके विचार भी स्वागत योग्य है -

इन छः दशकों में गीति-काव्य की प्रासंगिकता तक पर प्रश्नचिह्न लगे हैं. यह अलग बात है कि अनुशासित गीत-रचनाएँ फिर भी उठ खड़ी हुईं. फिर भी, करीब तीन पीढ़ियाँ इसी भ्रम में गुजर गयीं कि गीत या गेयता पद्य-साहित्य का प्रमुख अंग है भी या नहीं   

                नव गीत ने किस प्रकार नयी कविता  और प्रचलित गीत विधा के आचरणों को साध कर फिर से हिन्दी कविता मे संगीतात्मकता लेकर आयी इसका बहुत् तर्कपूर्ण चित्रण  आपने . प्रस्तुत किया है .

                महेंद्र जी के  सम्बन्ध में -यदि ध्यान से देखा जाय तो सभी मान्यवर समवेत स्वर में यही कहते हैं, कि महेन्द्रजी की रचनाओं में जहाँ एक ओर युवा मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है, तो दूसरी ओर जीवन-पथ पर चलते-गिरते-उठते आमजन की हताशा, अवसाद, उसकी असमंजस या छटपटाहट भी है. विश्वासी मन की ललकार है, तो अव्यवहार के विरुद्ध चेतावनी के ठोस स्वर भी हैं I

               महेंद्र जी  का कितना सटीक आकलान है जब आप कहते हैं कि-महेन्द्रजी का तब का समय नवगीतों के मांस-पिण्ड आकार-ग्रहण का समय था. कई करवटों के बाद ही नवगीत का यह आधुनिक स्वरूप प्रसूत हुआ

               प्रस्तुत लेख कवि के नवगीतों में प्रतिबिबित भाव- सम्पदा को  स्पष्ट  करने में सफल हुआ  है . सादर .

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी टिप्पणी से मेरी समीक्षा को बल मिला है. आदरणीय महेन्द्रभटनागरजी की विशेष अनुकम्पा कहिये, कि उनका विशेष निर्णय था कि मैं ही इस पुस्तक की विशद समीक्षा मैं लिखूँ. उनका इस बाबत दो-तीन दफ़े फोन आना मेरे लिए किसी आदेश से कम न था.
अब मैं कितना सफल हो पाया हूँ, यह तो आप जैसे सुधी पाठक ही बता सकते हैं. लेकिन महेन्द्रजी ने इस समीक्षा परापार संतोष व्यक्त किया है. इस समीक्षा को ’विश्वगाथा’ समेत दो-एक जगहों पर स्थान मिलना है.
आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद

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Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
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Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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