मोहतरम जनाब समर कबीर साहब के वालिद मरहूम जनाब क़मर साहब एक आला दर्ज़े के शायर थे; यानि ग़ज़लगोई जनाब समर कबीर साहब के खून में है और उनकी ग़ज़ल का हर शे’र इस बात की तस्दीक़ भी करता है।
समरा- एक सौ बारह पृष्ठ, तक़रीबन सौ ग़ज़लें; फ़क़त इतना ही समर साहब का सरमाया नहीं है बल्कि उनके ख़ज़ाने से इन्तख़ाब की गई चन्द ग़ज़लें हैं, जो उनके ग़ज़ल-संग्रह समरा में शामिल हैं। पहले शेर से ही उनकी उस्तादाना झलक सामने आ जाती है।
हमारे दिल में जितनी ख़्वाहिशें हैं
ग़ज़ल में इस क़दर गुंजाइशें हैं
#समरा पृष्ठ क्र. 15
मैं निजी तौर पर समर कबीर साहब को जितना जानता हूँ ग़ज़ल को देखने का नज़रिया जितना सुलझा हुआ है उतना ही विस्तृत भी है, उनके सामने ग़लती की कोई गु़ंजाइश नहीं है, ठीक उसी तरह वे दुनिया को देखते हैं। इसकी तासीर उनकी ग़ज़लों में भी दिखती है। अपनी बात कहते हुये समर साहब सचेत भी दिखते हैं कि वो नाशुक्रे न हो जायें इसकी एक नज़ीर देखिये-
हज़ार शुक्र कि हम लोग उनमें शामिल हैं
ख़ुदा का ख़ास करम है नबी की उम्मत पर
कोई भी उस मुक़ाबिल ठहर नहीं सकता
जिसे यक़ीन हो यारो ख़ुदा की ताक़त पर
#समरा पृष्ठ क्र. 15
कहन का कमाल:
बीमारी के चलते उनकी नज़र कमज़ोर ज़रूर हुई है लेकिन उनके हुनर की धार मुसल्सल तेज़ हुई है। ज़रा इन अशआर पर नज़र डालिये
आशिकों की आँखों का रुख बदलने लगता है
जब किसी जवानी का चाँद ढलने लगता है
इब्तिदा खुशामद से इल्तिज़ा से होती है
और फिर ये होता है नाम चलने लगता है
#समरा पृष्ठ क्र. 16
मौका-परस्त लोगों के तौर तरीके समर साहब खूब समझते हैं यह उनके दोनों अशआर से ज़ाहिर हैं।
चाहे रवायती अंदाज़ हो या दुनिया को देखने का जदीद अंदाज़ इनकी ग़ज़लें हर दौर की नुमाइंदगी करती हैं।
दोनों बर्बाद हो गये देखो
दुश्मनी के लिये बचा क्या है
#समरा पृष्ठ क्र. 17
अपनी बेबाकी समर साहब कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं
समर कोई हमें मुँह न लगाये
अगर सरकार से निस्बत न हो तो
समरा पृष्ठ क्र. 23
रिश्तों की अहमियत जनाब अच्छी तरह समझते हैं
खुशनसीबों में नाम है मेरा
भाई मेरा निसार है मुझ पर
समरा पृष्ठ क्रं 26
और ज़रा रवायती अंदा़ज़ देखिये
राह पुरख़ार न साया न शजर जानते हो
जान ले लेगा मुहब्बत का सफर जानते हो
हाँ यही होती है मेराज-ए-मुहब्बत शायद
अपना घर भूल गये यार का घर जानते हो
समरा पृष्ठ क्रं 35
हर शायर अपने दौर का नुमाइंदा होता है लेकिन कभी-कभी वो ऐसी बातें कर जाता है जो कालजयी शेर के रूप में सामने आ जाता है, ये सिर्फ सतत अभ्यास से ही सम्भव है।
सकारात्मक बातें न सिर्फ़ शायर बल्कि पाठकों के अंदर भी ऊर्जा का संचार करते हैं। ये दो अशआर हैं जो समर कबीर साहब की सकारात्मकता को सामने लाते हैं-
झील सा शीतल चाँद सा सुंदर लिक्खा है
हमने जो देखा है मंज़र लिक्खा है
आज उसी पर फूल वफ़ा के खिलते हैं
तुमने जिस धरती को बंजर लिक्खा है
समरा पृष्ठ क्र. 37
किसी शेर की खासियत है कि सारी बातें इशारों में होती है, ये इशारा देखिये
इक जगह खाली है मेरे दिल में
और वैसे तो कमी कुछ भी नहीं है
समरा पृष्ठ क्र. 58
दो मिसरों में कितनी गहरी बात कह गये कि पढ़ने वाला भी सोच में पड़ जायेगा।
भाषायी संतुलन
समर साहब शब्दों के इस्तेमाल को लेकर संजीदा रहते हैं, ये नये ग़ज़लगो के लिये अनुरणीय है। इनकी पकड़ उर्दू पर बहुत अच्छी है और ये बहुत ज़ियादा भाषायी प्रयोग नहीं करते।
काफ़ियाबंदी
निश्तर ख़ानक़ाही के शब्दों में- “जो शायर काफ़िये को ध्यान में रखकर शेर कहते हैं वो काफ़िये द्वारा शासित होकर रह जाते हैं।“
जबकि समर साहब की उस्तादाना झलक यहाँ भी दिख जाती है। उनके अशआर में काफ़िये पर ज़रा भी ज़ोर नहीं पड़ता बल्कि सहज ही शे’र में घुल-मिल जाते हैं यानि ये काफ़िये के ग़ुलाम नहीं हैं
कैसे बाज़ार में आ जाती है इज़्ज़त मेरी
मेरे अह्बाब ज़माने को ख़बर करते हैं
जिनके सीनो में शहादत की तलब होती है
ज़िन्दगी मौत के साये में बसर करते हैं
#समरा पृष्ठ क्र. 74
नज़र पर जब तलक पर्दा रहेगा
तुम्हारा अक्स भी धुँधला रहेगा
वहाँ मेरी ख़मोशी काम देगी
वो अपनी आग में जलता रहेगा
#समरा पेज क्र. 92
बिम्बों व प्रतीकों का तार्किक प्रयोग
बिम्बों व प्रतीकों के साथ छेड़छाड़ आज के शुअरा में आम है लेकिन समर साहब इसकी सख़्त मुख़ाल्फ़त करते हैं। ये संजीदगी इनकी ग़ज़लों में भी नज़र आती है। नये शायर इनकी किताब से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
किताब का नाम- समरा
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद, उप्र
मूल्य- 120 रू. मात्र्
शिज्जु शकूर
रायपुर- छत्तीसगढ़
मौलिक व् अप्रकाशित
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आपने गोया दिल ही निकाल कर रख दिया, शिज्जू भाई. बहुत खूब अंदाज़ और उतनी ही साफ़ग़ोई से आपने समीक्षा लिखी है. कोई लाग-लपेट नहीं बस सीधी बात. इस ढंग से विन्दुवत कहने के लिए समीक्षक के पास उस शेरी मज़मुआ की भी बेपनाह ताक़त हुआ करती है. वो ताकत आपको बिला शक़ ’समरा’ से मिली है. एक शाइर कैसा हो को लेकर अधिक सोचना नहीं होता, हमारे सामने समर साहब हैं. ज़ाती तौर पर यारों के यार और ग़ज़लग़ोई के सरदार. और ऐसा मैं किसी बहाव में नहीं कह रहा.
हार्दिक बधाई आपको और समरा के लेखक को. जो स्वयं में एक अद्भुत व्यक्तित्व के धनी हैं.
भाई, एक और बात. आपकी इस समीक्षा ने मेरा दायित्वबोध बढ़ा दिया है.
शुभ-शुभ
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