कई विधाएँ, विशेषकर पद्य विधाएँ हैं, जो भाषा विशेष की गोद में जन्म अवश्य लेती हैं, और तदनुरूप पल्लवित भी होती हैं । परन्तु, कालांतर में अपनी अर्थवत्ता और संप्रेष्य गुणों के कारण अपने विशिष्ट भूभाग और भाषा विशेष की सीमाओं को फलांगती हुई अन्यान्य भाषा-भाषियों को भी प्रभावित करने लगती हैं । साथ ही, यह भी उतना ही सच है, कि अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों के जनमने और उनके आकार ग्रहण करने में सामाजिक दशा, काल और प्रभावी एवं प्रभावित क्षेत्र का विस्तार उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । तभी तो, ग़ज़ल जैसी कोमल भावमय अभिव्यक्ति-माध्यम की शैली और विधा में कथ्य का स्वरूप भावदशा और प्रस्तुति के तौर पर ठीक वही नहीं रह गया, जैसा कि एक लम्बे समय तक मान्य बना रहा था । वस्तुतः किसी सचेत और संवेदनशील विधा का भावाभिव्यक्तियों के सापेक्ष रूढ़वत बने रहना संभव है भी नहीं ।
हिन्दी पद्य-साहित्य में अभिव्यक्तियों के कथ्य ही नहीं, अभिव्यक्तियों की वैधानिकता तक में पचास के दशक से साफ बदलाव दिखना शुरु हो जाता है । सत्तर के दशक तक आते-आते पद्य साहित्य के वैधानिक विन्यासों में भी भरपूर बदलाव व्यवहृत होने लगते हैं । अस्सी के दशक तक सारा कुछ ठोस आकार में सामने आ गया दिखता है । ज़हीर कुरेशी का ग़ज़लकार ऐसे सभी बदलावों का न केवल साक्षी है, बल्कि उन बदलावों का परिणाम भी है । ज़हीर उन कुछ अग्रगण्य नामों में से हैं जिन्होंने अबतक के अपने सात ग़ज़ल-संग्रहों के हवाले से भाषा के तौर पर, अभिव्यक्ति के तौर पर, प्रतीकों और इंगितों के तौर पर और, सर्वोपरि, उद्येश्य के तौर पर ग़ज़ल जैसी विधा को बनी-बनायी सीमाओं से बाहर निकाल कर आज के दौर की ’अभिव्यक्तियों’ के समानान्तर ला खड़ा करने की सफल कोशिश की है । इन्हीं विन्दुओं पर सोचने-विचारने की एक बार फिर से दशा बन रही है, इन्हींके सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह ’निकला न दिग्विजय को सिकंदर’ से गुजरते हुए, जिसे प्रकाशित किया है, इलाहाबाद के अंजुमन प्रकाशन ने ।
ज़हीर कुरेशी की ग़ज़लों से गुजरना आजके दौर के तमाम तरह के जंगलों, मैदानों, खेतों, गाँवों, कस्बों और परिवारों की विभिन्न दशाओं-भावदशाओं से गुजरना होता है । जहाँ एक ओर यह ’अधउगे गंजे’ खेतों के हाहाकार से हो कर जाती पगडंडियों पर बढ़ते जाने के समान हुआ करता है, तो वहीं दूसरी ओर रोज़-रोज़ लसरती हुई बस्तियों की विवाशताओं से रू-बरू होने और तमाम जानी-अनजानी गलियों में हाँफती हुई इकाइयों की हिचकियों और असंवेदनाओं की झल्लाहटों का सामना करने के समान है –
अँधेरे में उतर कर ही जड़ों ने ज़िन्दग़ी पायी
जड़े मरने लगीं ज्यों ही जड़ों ने रोशनी पायी
छुड़ा के जान, अधिक उम्र के समन्दर से
मैं सोचता हूँ, नदी काश अपने घर लौटे ।
पश्चिम के बीज बोते ही माटी में पूर्व की
लोगों ने अपने खेतों को बंजर बना लिया !
साहित्य-जगत में असह्य सामाजिक यथार्थ को शब्दबद्ध होते देखना अब कोई नया अनुभव नहीं है । लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि ग़ज़ल विधा में यथार्थबोध का शाब्दिक होना तथा आजके दौर की विसंगतियों को शब्दबद्ध होते देखना-सुनना उर्दू से इतर भाषाओं में ही सबसे पहले संभव हो सका है । ऐसा यदि हो भी सका है, तो इसका श्रेय ज़हीर कुरेशी जैसे ग़ज़लकारों के अथक, तार्किक एवं संवेदनापूरित प्रयासों से ही संभव हुआ है । ज़हीर कुरेशी स्पष्ट तौर पर हिन्दुस्तानी भाषा के ग़ज़लकार हैं, जोकि हिन्दी प्रदेश के आमजन की भाषा है । ग़ज़ल की विधा में परम्परा से हट कर हुआ कोई प्रयास उर्दू ग़ज़लों की पारम्परिक दुनिया के लिए भले ही आज भी वैसा सहज न हो, लेकिन ज़हीर कुरेशी ग़ज़लों के वैधानिक ही नहीं कथ्य की वास्तविकता को भी यदि एक नयी ऊँचाई तक ले जा पाते हैं, तो इसके मुख्य कारणों में से एक उनका भाषायी व्यवहार भी है । इनकी ग़ज़लें पाठकों और श्रोताओं को उर्दू के भारी-भरकम शब्दों से आतंकित नहीं करतीं । हिन्दी के सहज तत्सम और कई बार अत्यंत प्रचलित हो चुके तद्भव शब्दों के सटीक प्रयोग से इनकी ग़ज़लें पाठकों और श्रोताओं को अपने विभिन्न आयामों के प्रति सोचने के लिए तत्त्व मुहैया कराती हैं ।
देह भाषा तो समर्पण की नहीं लगती
हाँ, अनिच्छा से ही मक्खी निगलती है
दिन-ब-दिन लड़का ’पुरुष’ बनता गया जैसे
उस तरह, लड़की भी ’औरत’ में बदलती गयी
एक दिन, अपने घर से निकलने के बाद
लौट पायी न घर कोई नदिया कभी
आपकी ग़ज़लें न संस्कृतनिष्ठ शब्दों का अन्यथा भार वहन करती हैं, न ही उर्दू के नाम पर फ़ारसी और अरबी के दुरूह शब्दों का असहज जमावड़ा दिखती हैं । आमजन की गझिन भावनाओं को आमजन के शब्दों में प्रस्तुत कर देना ज़हीर कुरेशी की विशेषता है । कहा भी गया है, सहजता भी यदि आरोपित या ओढ़ी हुई हो तो विकृत अहंकार का शातिर प्रदर्शन हुआ करती है । ज़हीर कुरेशी की ग़ज़लों की बुनावट अपने कथ्य और तथ्य के कारण प्रभावी हुई सामने आती है, न कि कृत्रिम बनावट के कारण !
हम पर्वत के सम्मुख थे राई जैसे
जबतक दूर रहे, पर्वत रमणीक रहे
गड़ेगा भैंस का खूँटा यहीं’ विचार के लोग
कपट के साथ करेंगे निदान की बातें
राख होने लगी उसकी संवेदना
कम चमक हो गयी सुर्ख़ अंगार की
यह अब किसी बहस का मुद्दा नहीं रह गया है कि हिन्दी भाषा में ऐसे प्रयासों का प्रारम्भ सत्तर के दशक में ही हुआ था । दुष्यंत कुमार नाम का धूमकेतु ग़ज़ल सम्बन्धी तमाम व्याकरणीय कमियों या सीमाओं के बावज़ूद साहित्याकाश को चकाचौंध करता एकबारग़ी उदयीमान हुआ और अपनी बेलाग अभिव्यक्ति की प्रखर रेख से एक विशिष्ट अक्ष को स्थापित कर पाने में सफल हुआ था । फिर तो ग़ज़ल विधा की दुनिया ही बदल गयी । इस धूमकेतु का प्रभाव तात्कालिक रूप से उर्दू को छोड़, भारत की कमोबेश हर भाषा की ग़ज़लों पर पड़ा । आम जनों की चीत्कारती अनुभूतियों को प्रस्तुत करने एवं यथार्थ-चित्रण के क्रम में हृदयोद्गार हेतु काव्य-जगत की एक प्रचलित विधा को एक नयी शैली मिल गयी थी । जैसा कि हमेशा से होता आया है, तात्कालिक क्लिष्ट परिस्थितियाँ और असहज राजनीतिक परिदृश्य ग़ज़लकार दुष्यंत के होने के कारण बने थे, जिन्होंने ग़ज़लों की रिवायती शैली को प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि ग़ज़लों के ढंग को ही एकतरह से बदल कर रख दिया । वे ग़ज़ल की विधा को एक ऐसी सामाजिक ही नहीं राजनीतिक जागरुकता के साथ जोड़ गये, जो क्षेत्र तबतक ग़ज़लों के लिए निषिद्ध हुआ करता था । यही प्रखर जागरुकता, आगे, उनके दौर के ही नहीं, बाद के ग़ज़लकारों के लिए भी कसौटी की तरह देखी जाने लगी । हालाँकि ऐसे महती प्रवर्धनों का कैसा स्वागत हुआ, यह आगे आने वाले ग़ज़लकारों की दिशा और दशा से स्पष्ट होता है । इसे ज़हीर कुरेशी की नज़र से देखें तो -
वो ठीक-ठीक कभी लक्ष्य तक नहीं पहुँचे
मिसाइलों ने किये हैं इधर-उधर हमले
आमजन की अतुकान्त भावदशा, समाज में व्याप गयी विद्रूपता, आम-व्यवहार में परिलक्षित क्लिष्टता, आमजन के हौसलों को तोड़ती हुई विभिन्न विडम्बनाएँ, असहजताजन्य क्रोध आदि को उभारने के क्रम में तथा यथार्थ-चित्रण के नाम पर या कुव्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ उठाने के प्रभाव एवं बहाव में, उर्दू से इतर भाषाओं के संदर्भ में देखें, तो ग़ज़ल अपने व्याकरण की विशिष्ट नियमावलियों को लेकर अधिकांश ग़ज़लकारों के मन में बहुत आग्रही पैठ नहीं बना पायी । इन्हीं सब को साधने और दुरुस्त करने के लिए आज सधे हुए प्रयासों की ज़रूरत महसूस हो रही है । ऐसे किसी उच्छृंखल हड़बोंग में ज़हीर कुरेशी दुष्यंत के बाद की पहली पीढ़ी के ग़ज़लकारों में अपनी भाषा के साथ, जो कि निस्संदेह उर्दू नहीं हिन्दुस्तानी भाषा है, सबसे संज़ीदा और साहसी ग़ज़लकार की तरह उभरे हैं ।
हम बदल पाये न सत्ता का कभी मौलिक चरित्र
किन्तु, हम जनता की सरकारों से परिचित हो गये
आँख कान मुँह पर बन्धन कब तक रखते
गाँधीजी के तीनों बन्दर हार गये
सच तो यह है कि ग़ज़ल की शैली गेय कविता, या फिर, गीतों की शैली है ही नहीं । गीतों में भाव-निवेदन के साथ-साथ भाव-आवृति की भी महती भूमिका हुआ करती है । जबकि ग़ज़लों के अंदाज़ में भावों की प्रच्छन्नता आम है । लेकिन इसके साथ ही यह भी है, कि ग़ज़लों का प्रस्तुतीकरण अलग ही अंदाज़ में हुआ करता है । यह अंदाज़ ही शेरीयत कहलाती है, जो गज़ल के शेरों के माध्यम से यदि अभिव्यक्त हुई प्रतीत न हो, तो ऐसी कोई अभिव्यक्ति सबकुछ हो सकती है, ग़ज़ल नहीं हो सकती । प्रस्तुत संग्रह से उदाहरण देखें -
वो मोती को ले आये बाज़ार से
समंदर की तह में उतरते नहीं
शर्म है या कोई हीनता-बोध है
उसने नज़रें उठा कर न देखा कभी
ग़ज़ल वस्तुतः पद्य के अनुशासन और उसकी सीमाओं में ’परस्पर बतियाने’ की शैली है । इस संदर्भ में ग़ज़लकार एहतराम इस्लाम को उद्धृत करना असंगत न होगा, जो खुल कर ग़ज़ल के मिसरों को बोले जाने वाले गद्य-वाक्यों की तरह लिये जाने की वकालत ही नहीं करते, इसे ही प्रस्तुतीकरण की कसौटी भी मानते हैं । ज़हीर कुरेशी ने इसी लहजे में अनुभूत अथवा दृष्ट कथ्यों को ’बतियाने के’ ढंग में ही शब्दबद्ध किया है । इनके लिए भी यही गद्यात्मकता ग़ज़लग़ोई का मूल स्वरूप है ।
हर बार तुमने उसको कहा – भाग्य का लिखा
हम जिसको मानते रहे संयोग आज भी
वे जानते हैं कि रोटी से पेट भरता है
बचा हुआ है कहीं होश पागलों में अभी
ऐसे माहौल में दिशायुक्त हो कर, पूरी जिम्मेदारी के साथ बढ़ते जाना ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी को ऊँचे दर्ज़े का साधक साबित करता है, जिसके पास किसी असाहित्यिकता के लिए कोई स्थान नहीं है । हिन्दुस्तानी भाषा के नाम पर पद्य-संप्रेषण का वर्तमान दौर जिस काल से गुजर रहा है, उस माहौल में ऐसी अनुशासित शुद्धता व्यक्तिगत आचरण की सात्विकता, पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा परंपरा एवं समाज के प्रति स्वार्जित जिम्मेदारी की ही परिचायक है । ये वो विन्दु हैं, जिनके सापेक्ष ज़हीर कुरेशी की साहित्य-यात्रा सार्थक ही नहीं, सदा सदिश बनी रही है । उनका ग़ज़लकार अपने भोगे हुए यथार्थ और उसके प्रभाव को साझा करते हुए भी खौंझता हुआ असहज नहीं होता । कहना न होगा, किसी भी ग़ज़लकार की कथ्य-क्षमता जीवन के प्रति उसकी दृष्टि से ही समृद्ध होती है ।
कुछेक लोग हमेशा सदन की बहसों में
सही सवाल उठाने का काम करते हैं
ज़हीर कुरेशी के इस संग्रह की ग़ज़लों से गुजरते हुए बार-बार प्रतीत होता है कि उनका ग़ज़लकार सचेत तो है ही, उसकी ग़ज़लें भी भाव-संप्रेषण के नाम पर अन्यान्य काव्य-तत्त्वों का यथोचित समुच्चय मात्र नहीं हैं । बल्कि उनका स्वरूप प्रयुक्त शब्दों के साथ-साथ उन शब्दों के निहितार्थ, उनके व्यवहार, उनके उच्चारण और मिसरों में वर्ण-व्यवस्था (बहर का विन्यास और शब्द-संयोजन) पर भी वैधानिक, साथ ही एक विशिष्ट दृष्टि भी रखता है । साथ ही साथ, वह आवश्यक नियम-निर्वहन को समझने के लिए पाठकों को बाध्य भी करता है ।
दिखाने भर को सम्हाला है मोर्चा हमने
नहीं है गोलियाँ दोनों की पिस्टलों में अभी
प्रश्न का उत्तर न दे कर, जड़ दिया प्रति-प्रश्न जब
तो सदन में प्रश्नकर्ता भी निरुत्तर हो गये
अपने प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़लों के हवाले से भी ज़हीर कुरेशी अपनी समझ के वृत्त की त्रिज्या को सतत लम्बी करते जाने के प्रयास में अवश्य सफल हुए हैं । तभी तो, आपकी सोच के वृत्त की परिधि निरंतर बड़ी होती चली गयी है । वृत्त की परिधि का निरंतर बड़ा होते जाना किसी साहित्यकार के लिए उत्तरोत्तर अन्यान्य वैधानिक विन्दुओं के सापेक्ष लगातार समृद्ध होते चले जाने का ही तो द्योतक है ।
मैं समझता हूँ सुखद संयोग, तुम कुछ भी कहो
फिर से जुड़ने का हमें रस्ता नया मिल ही गया !
काव्य-विधा का व्याकरण भावनाओं के येन-केन-प्रकारेण प्रस्तुत कर देने का हामी नहीं होता । ग़ज़लों का व्याकरण (अरुज़) तो और भी पैनी दृष्टि से प्रस्तुतियों का नीर-क्षीर चाहता है, जिसका वैधानिक संस्कार ग़ज़लकारों से परिपाटियों को निभाने के प्रति लगातार सचेत करते रहने के बावज़ूद कथ्य प्रस्तुतीकरण के क्रम में ऊँचे से ऊँचे उड़ने के लिए आवश्यक आकाश भी उपलब्ध कराता है ।
उमस के साथ, अनायास घिर गये बादल
तो छेद दिखने लगे झोपड़ी को छप्पर में
कुछ इस तरह भी पंछी ने विस्फोट कर दिया
बम रख दिया मनुष्य ने पंछी के ’पर’ के बीच
ठोस ज़मीन पर विचरना और अनुभूतियों को सीधी-सादी किन्तु सान्द्र संप्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त करना ज़मीनी सोच वाले व्यक्तियों का मुख्य गुण हुआ करता है । ज़हीर कुरेशी का ग़ज़लकार ठोस ज़मीन पर ही नहीं चलता, बल्कि खुरदुरी, असमतल ज़मीन पर चलते हुए अपने अनुभूत विन्दुओं को संग्रहीत करता चलता है ।
खुरदुरा सच ही अब हमको प्यारा लगे,
खूबसूरत थी सपनों की दुनिया कभी
जीवन की क्लिष्ट सच्चाइयों को रोज़ झेलने वाला संवेदनशील मन अपने मिसरों के माध्यम से ग़ज़लों पर रूमानी अहसास के बरक़ चढ़ाये भी तो कैसे ? वह वायव्य भावदशा में विचरने का आग्रही कभी रहा ही नहीं हैं । इसके लिए वास्तविक जीवन की तल्ख़ सच्चाइयाँ इतनी आग्रही रही हैं कि एक जिम्मेदार ग़ज़लकार के तौर पर वह उनसे अपनी नज़रें फेर ही नहीं सकता ।
भटक रहे हैं लगातार जंगलों में अभी
सफ़र हमारा है रस्ते की मुश्किलों में अभी
उसके शक में वो बात है शामिल
एक प्रतिशत जो मेरे मन में नहीं
तुमने नदी के क्रोध को देखा था बाढ़ में
हमने नदी के द्वंद्व भी देखे लहर के बीच !
ज़हीर कुरेशी जैसों के पास ही ग़ज़लें अपने पारम्परिक रूप से विलग, नयी कविता के समानान्तर खड़ी दिखने लगती हैं । यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि नारी-विमर्शों या शोषित वर्ग पर हुई चर्चाओं से सामने आये परिणाम अपने तमाम दावों के बावज़ूद एक सीमा के बाद सिवा निर्बीज नारों के क्या रह गये हैं ? जबकि इसके उलट, संवेदनाएँ किसी भावदशा को जीने के लिए आयातित अनुभूतियों का सहारा नहीं लेती, न वायव्य शब्दो का आवरण ढूँढती हैं । ज़हीर कुरेशी का ग़ज़लकार मानों अपनी रचनात्मकता के उच्च स्तर पर पर एक तरह से परकाया में प्रवेश करता हुआ भावशब्दों को गढ़ता है । यही कारण है कि नारी के विभिन्न समस्याओं के प्रति जिस जिम्मेदारी से ज़हीर कुरेशी का ग़ज़लकार आवाज़ उठाता है, वह विमर्श के कई पहलुओं के लिए आलम्ब की तरह व्यवहृत हो सकता है । ज़हीर कुरेशी की ग़ज़लों के प्रासंगिक शेर इसका ज़बर्दस्त हामी बन कर सामने आते हैं ।
विज्ञापन के ’फोटो-सेशन’ में क्यों आयी है
वो जो खुल कर देह दिखाने को तैयार नहीं !
एक औरत साथ रहकर दे गयी संतान-सुख
हम न उसकी कोख का समुचित किराया दे सके
इस संदर्भ में नूर मोहम्मद ’नूर’ ने स्पष्ट कहा है , ’समकालीन सामाजिक परिदृश्य में आकंठ डूबी ज़हीर की ग़ज़लों में उनकी एक विशिष्ट भंगिमा भी है, जो उन्हें उनके समकालीनों में किंचित अलग खड़ा कर देती है, वो है उनकी ग़ज़लों में जगह-जगह बार-बार नमूदार होती हुई स्त्री ।’ कहना न होगा कि यह स्त्री ग़ज़लों की परम्परा की स्त्री नहीं है । बल्कि आजके दौर की जूझती हुई, विसंगतियों और अमानवीयता के विरुद्ध खड़ी होती हुई, मौन अथवा मुखर किन्तु प्रतिकार करती हुई स्त्री है । यह स्त्री उपरी तौर पर बेबस भले ही दिखती हो, लेकिन किसी तौर पर हार नहीं मानती हुई स्त्री है ।
मैं अपनी माँ को भला कौन सा विशेषण दूँ
वो जिसके मन में धरित्री का धीर शामिल है
मन से तो वो समर्पित नहीं
तन पे अधिकार का क्या करें ?
न मानेगी सुमन की बात खुश्बू
ये समझायें भला कैसे सुमन को
एक्वेरियम की जेल का कब तक करे विरोध
मछली किलोल करने लगी काँच-घर के बीच
यह सर्वमान्य सत्य है, कि किसी ग़ज़लकार की ग़ज़लों में सच्चाई तभी आ पाती है, जब आमजन की समस्याएँ, उसके दुख-दर्द सामाजिक दर्शन में रुपांतरित हो कर शाब्दिक हो जायँ ।
ज़हीर कुरेशी दैनिक जीवन से एक-एक सूत्र उठाते हैं और उन्हें आम भाषा के शब्द, मुहावरा, बिम्ब दे कर उनमें आगे जीने पाने की उम्मीद तलाशते हैं । इसी क्रम में आज की राजनीति की भाषा को आपने शब्द और स्वर दिये हैं । आपका स्वर कुव्यवस्था के विरोध का है, नकि आम प्रचलन में आ चुका पार्टी-पोलिटिक्स के पक्ष-विपक्ष में बोलने का ।
उस दिन से गड़बड़ाने लगा वोट का गणित
जिस दिन से काम करने लगा जातिवाद भी
कितनी मुश्किल से हो पाये थे एकजुट
एक अफ़वाह से सब बिखरने लगे
ग़ज़लकार का यही उत्तरदायी स्वर पाठक के हृदय की गहराइयों में देर तक अनुगूँज पैदा करता है जो असहज प्रतीत होते वातावरण के बावज़ूद उसके मन में आश्वस्ति के भाव जगाता है । व्यवस्था विरोध के नाम पर ज़हीर कुरेशी का पाठक भयावह वातावरण से आतंकित नहीं होता, बल्कि आशान्वित हो कर हर क्षण उत्साहित हुआ उसके प्रतिकार की बात सोचता है । किसी रचनाकार के पाठक के मन में पैठ बनाती यही आशावादिता रचनाकार की सबसे बड़ी ताकत हुआ करती है ।
अडिग देखा गया विपदा उनको
वो जिनके हौसले लड़ कर बने हैं
खंभे हैं चार, जिन पे टिका है प्रजा का तंत्र
कुछ तालमेल कम लगे खंभों के बीच में
सर्वहारा से भी पूछी जा रही है उनकी राय
शोषकों के सुर बदलने का समय आ ही गया !
ऐसी आशावादिता मूर्खई नहीं होती, या उसमें कोई थोथापन नहीं होता । तभी तो कई जगह ज़हीर कुरेशी अपने अनुभवों के साथ दार्शनिक अंदाज़ में सामने आते हैं । जीवन-दर्शन के बिना ग़ज़ल में गहराई नहीं आ पाती, न प्रासंगिकता का कोई अर्थवान प्रभाव पड़ता है ।
किवाड़ टूटने वाले हैं क्या किया जाये
बची हुई है सहनशक्ति साँकलों की अभी
तभी तो सामाजिक सरोकारों और उसकी असहजता को शब्द और स्वर देते हुए ज़हीर कुरेशी का भावबोध नैराश्य नहीं, उम्मीदें जगाता है । समकालीन जीवन के कई विषय और विन्दु हैं, जो ग़ज़लकार की दृष्टि पड़ते ही विशिष्ट बन गये हैं । जैसे कि, आधुनिक टेक्नोलोजी, इसके कारण समाज और व्यक्ति पर पड़ता प्रभाव, वैश्विकता का धरातल, इससे उपजा बाज़ार, आकांक्षाएँ, वर्तमान राजनीति की दशा, राजनीतिक कुटिलता, धर्म का विकृत स्वरूप, धर्म और राजनीति का घालमेल आदि ।
मरता है कौन ’धर्म’ या ’भगवान’ के लिए
अब कर रहा है लाखों का सौदा ’जिहाद’ भी
हम अपने धर्म के निर्णय स्वयं ही ले लेंगे
किसी ’इमाम बुखारी’ का कोई काम नहीं
जो ’सत्य’ और ’शिवम्’ के बहुत निकट पहुँचे
वो हर प्रकार से ’सुन्दर’ दिखायी देते हैं
पारिवारिक कटुता, असहज रिश्तेदारी, सामाजिक पारस्परिक साहचर्य में लगातार आती कमी मानसिक उलझन का कारण है तो यह हमारे दौर का भयावह सच है ।
ज़रूरत के मुताबिक, दो से हो जाते हैं दस कमरे
हम अपने घर के नक्शे को बदलना सीख जाते हैं
है युग परमाणु-परिवारों का शायद इसलिए बच्चे
शहर में दादा-दादी, नाना-नानी तक नहीं पहुँचे
ज़हीर कुरेशी की संवेदनशील दृष्टि व्यामोह और द्वंद्व को खूब रेखांकित करती है । अटपटे विकास का विकृत चेहरा किसी भी जागरुक और संवेदनशील रचनाकार को उद्वेलित कर सकता है । ज़हीर कुरेशी कैसे अछूते रह सकते हैं ? उनकी ग़ज़लें इन अर्थों में वर्तमान का वास्तव में आईना हैं ।
ये कूटनीति है, चलते हैं शीत-युद्ध यहाँ
हमारी आँखों को आते नहीं नज़र हमले
इस विन्दु पर डॉ. मधु खराटे का कहना है, ’उपभोक्ता संस्कृति की कारग़ुजारियों का खुलासे करना ज़हीर कुरेशी के काव्य-बोध का प्रमुख हिस्सा है ।’ कहना न होगा, आदमी जितना अधिक शक्ति-सम्पन्न होता गया है, नैतिक और चारित्रिक रूप से उतना ही पतित भी होता गया है ।
पहले अपने नियम बनाते हैं
लोग फिर खेलने को जाते हैं
हमारे यश की गाथा में रहे जो मील के पत्थर
हम उन लोगों को अक्सर याद करना भूला जाते हैं
जब से हुआ हमारी सहनशीलता का वध
छोटी-सी बात पर हुए ख़ूनी विवाद भी !
भौतिकवाद की सच्चाई बाज़ारवाद की सच्चाई है । बाज़ारवाद का अर्थ केवल खरीदने-बेचने के लिए माल और माहौल मुहैया कराना नहीं है । आजके दौर में आदमी ही वस्तु है और बदले में दैहिक सुख और मनोरंजन का व्यापार करता है । भावनाओं को बूझने में व्याप चुका विद्रूपीकरण न बिके हुए के लिए घोर हताशा का कारण बन जाता है । मुख्य समस्या यहाँ है ।
कुछ बेचने चले हैं तो फिर मुस्कुराइये
मुस्कान के बिना नहीं चलती दुकान भी ।
मूल्य क़ालीन का पूछ कर
पांव चलने से डरने लगे
इसी संग्रह में भूमिका के तौर पर अपने साक्षात्कार के हवाले से ज़हीर कुरेशी स्वयं कहते हैं, ’बाज़ार पहले विचार पर हमला करता है । आज सबसे ज़्यादा ख़तरा विचार पर है । बाज़ार को बाज़ार की शैली में ही ज़वाब देना होगा । वह शैली हमें खोजनी होगी..’ इस संदर्भ में मेरी व्यक्तिगत राय है कि वह शैली खोजनी ही नहीं होगी, बल्कि अपनानी भी होगी । और स्वयं निर्विकार रहना होगा । अन्यथा बाज़ार ऐसा परजीवी है जो संवेदनशीलता को कुन्द करता हुआ मन पर आरूढ़ हो जाता है । ज़हीर कुरेशी के इस ग़ज़ल-संग्रह से गुजरते हुए हमने मानवीय सोच की अंतर्दशा पर भी दृष्टि बनाये रखी । ताकि, ऐसी अभिव्यक्तियों के काव्य-तत्त्व, उनकी भाषा तथा बिम्बात्मक विन्दुओं के सापेक्ष वैचारिक व्यामोह एवं सहज द्वंद्व को समझा जा सके । उसके सामाजिक, भाविक, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक पहलुओं पर भी विचार बन सके । इस संदर्भ में कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि ज़हीर कुरेशी मानव-मन को कलात्मक ढंग से पढ़ लेने की कुव्वत रखते हैं । वे मन को परत-दर-परत उघारते हुए भाव-वाचन करने में सक्षम हैं । आजका समाज भ्रम का विशेष शिकार दिखता है ।
जो बात कहनी थी डंके की चोट पर उसको
वहाँ भी दुविधा कथन की दिखायी देती है
आजके मनुष्य के लिए येन-केन-प्रकारेण सफलता प्राप्त कर लेना आवश्यक ही नहीं, लक्ष्य है । आज मात्र और मात्र सफल होना ही ध्येय है । लेकिन विचित्र यह है, कि ऐसी एकनिष्ठता वैकल्पिकता का सहारा नहीं देती । जिस कारण असफलता अधिक भयावह लगती है । लेकिन संवेदनशील मन ताड़ तो लेता ही है -
जिस तरह प्राप्त कीं सफलताएँ
जीत लगने लगी है हार कहीं
मुझे ख़बर है कि उनका भी मन नहीं लगता
सिखा रहे हैं जो लोगों को ध्यान की बातें
स्पष्ट है, कि हिन्दुस्तानी भाषा-भाषी ज़हीर कुरेशी का ग़ज़लकार अपने पाठक-श्रोता को एक-एक शेर से जीवन के कई-कई आयाम दिखा सकने की क्षमता रखता है । ज़हीर कुरेशी अपनी विशिष्ट सोच तथा अपने भाषायी व्यवहार के कारण ही ग़ज़लों को एक नयी ऊँचाइयों तक ले जा पाते हैं । प्रस्तुत ग़ज़ल-संग्रह ’निकला न दिग्विजय को सिकन्दर’ में कुल एक सौ ग़ज़लें शुमार हुई हैं । जिसके फ्लैप पर वरिष्ठ आलोचक डॉ. शिव कुमार मिश्र के शुभोद्गार हैं । पेपरबैक के रूप में प्रकाशित यह संग्रह प्रुफ़ आदि समस्याओं की बिना पर बहुत हद तक निर्दोष है । इसके लिए प्रकाशक अवश्य ही बधाई के पात्र हैं । अपनी विशिष्ट शैली से संग्रह की ग़ज़लें पाठकों का ध्यान अवश्य ही आकर्षित करेंगीं, इसमें संदेह नहीं ।
************************************
ग़ज़ल-संग्रह : निकला न दिग्विजय को सिकन्दर
ग़ज़लकार : ज़हीर कुरेशी
कलेवर : पेपरबैक
पुस्तक-मूल्य : रु. 150/
प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद.
ई-मेल : anjumanprakashan@gmail.com
**************************
--सौरभ पाण्डेय
Tags:
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |