घुमी रहेछ फनफनी दिवारको घडीसरी
कहाँ थियो कहाँ पुग्यो यो जिन्दगी नदी सरी
बनेछ दाग छातीमा बनेर दाग बल्झियो
बढेर जान्छ घाउ झन् ऊ सङ्गको दूरीसरी
उराठ लाग्दो एकलो उदास जिन्दगी हुँदा
यी दाग घाउ लाग्दछन् अमूल्य सम्पतीसरी
सँगै हिडे नि लक्ष्यमा सबै कहाँ पुगिन्छ रऽ !
हरेक मोडको कथा भेटिन्छ जिन्दगीसरी
अझै नि तान्न खोज्दछौ समाऊ पाउ छैन क्यै
जहाँ म ढल्छु भूल त्यो उभिन्छ सारथीसरी
नदेऊ अर्ती भैगयो जहाँ छ स्वार्थ गर्भमा
भन्यौ पत्याएँ तृप्त छू तितो छ औषधीसरी
यी श्लोक, शेर जे भनऽ, यही छ जिन्दगी सबै
म याद पोख्छु शब्दमा र सुन्छु ढुकढुकी सरी
२०७१/२/२८
पुग्यो -- पु+ग्यो (१२)
पत्याएँ -- प+त्या+एँ (१२x)
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भाई आवाज शर्माजी, एक अरसे बाद इस मंच पर आपकी आमद हमें भरपूर उत्साहित कर रही है. विश्वास है, भाई, आप सकुशल होंगे.
ग़ज़ल को आपने लाम-ग़ाफ़ की आवृति में क्या खूब बाँधा है ! बहुत खूब-बहुत खूब ! नेपाली भाषा संस्कृति का निखार मतले से ही रंग में है.
घुमी रहेछ फनफनी दिवारको घडीसरी
कहाँ थियो कहाँ पुग्यो यो जिन्दगी नदी सरी.. .
हकीकत के बिम्बों पर क्या सुन्दर फ़लसफ़ा हुआ है !
यी श्लोक, शेर जे भनऽ, यही छ जिन्दगी सबै
म याद पोख्छु शब्दमा र सुन्छु ढुकढुकी सरी
क्या साहब, बधाई-बधाई-बधाई !
लेकिन जिस शेर ने दिल में जगह बनायी है वो जरूर ये है -
उराठ लाग्दो एकलो उदास जिन्दगी हुँदा
यी दाग घाउ लाग्दछन् अमूल्य सम्पतीसरी
एक सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई और शुभकामनाएँ.
एक बात:
नेपाल देश के अन्य सहयोगियों और भाइयों का ओबीओ पर आना अब बनता है. ..
:-))
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