अभय कान्त झा दीपराज कृत -
चक्रधर स्तुति
राम बन कब ? आओगे, प्रभु कृष्ण बन कब ? आओगे |
अपने भक्तों को भला प्रभु , कब तलक ? तरसाओगे ||
दस नहीं प्रभु , अनगिनत हैं , शीश, रावण के यहाँ |
कंस भी प्रभु अनगिनत हैं, दृष्टि जाती है जहाँ ||
क्षीर - सागर, शेष - शैय्या, छोड़ प्रभु कब ? धाओगे |
अपने भक्तों को भला प्रभु , कब तलक ? तरसाओगे ||१ ||
हर तरफ अंधेर और अन्याय का शासन हुआ |
धर्म, रानी द्रोपदी और पाप, दुःशासन हुआ ||
चीर बन तुम दीन को प्रभु , फिर न क्या ? अपनाओगे |
राम बन कब ? आओगे, प्रभु कृष्ण बन कब ? आओगे ||२ ||
धेनु - धरती और गंगा, कष्ट से सब त्रस्त हैं |
दुर्जनों के ज़ुल्म से प्रभु , भक्त तेरे पस्त हैं ||
बन के सावन की घटा क्या ? प्रभु न इन पर छाओगे |
अपने भक्तों को भला प्रभु , कब तलक ? तरसाओगे || ३ ||
जिस प्रकृति के और कृति के, आप प्रभु आधार हों |
दुर्दशा क्यों उसकी ? जिसके आप पालनहार हों ||
क्या ? हमें प्रभु गोद में, लेकर न फिर समझाओगे |
राम बन कब ? आओगे, प्रभु कृष्ण बन कब ? आओगे ||४ ||
चक्रधर, फिर चक्र लेकर आओ प्रभु , अवतार लो |
धर्म की रक्षा करो प्रभु , पाप को संहार लो ||
वर्ना , कैसे ? नाथ, दीनानाथ, तुम कहलाओगे |
अपने भक्तों को भला प्रभु , कब तलक ? तरसाओगे ||५ ||
रचनाकार - अभय दीपराज
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