आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ तिरसठवाँ आयोजन है।.
छंद का नाम - छंद मनहरण घनाक्षरी
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
18 जनवरी’ 25 दिन शनिवार से
19 जनवरी’ 25 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
मनहरण घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
18 जनवरी’ 25 दिन शनिवार से 19 जनवरी’ 25 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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मनहरण घनाक्षरी
संगम के तट पर, संतो का जमावड़ा है, एक बार दर्शन को, आप भी तो आइये।
ख़ुशियाँ हैं मस्तियाँ हैं, छोटी-छोटी बस्तियाँ हैं, अलख जगी है धुनी आप भी रमाइये।
चाहे पाप और पुण्य, बाँध रखें गठरी में, आये हैं तो गंगाजी में, डुबकी लगाइये।
बार-बार लगता है, कुंभ का न मेला कहीं, अपने शहर लौट, सबको बताइये।।
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~ मौलिक/ अप्रकाशित.
सुगढ़ कवित्त प्रस्तुति, आदरणीय अशोक भाईजी
मैं पुन: उपस्थित होता हूँ।
आदरणीय अशोक भाईजी,
कवित्त है शुद्ध शुद्ध, कवि मन से प्रबुद्ध, पद पढ़ बार-बार, रस में नहाइए
कुंभ वाली छटा की भी, छौंक तो है खूब गढ़ी, दृश्य सोच-सोच प्रभु आप मुस्कुराइए
गंग के तरंग और जमुना के तीर-तौर, पूण्य-पाप भूल-भाल, डुबकी लगाइए
हालाँकि है एक छंद, किंतु लगे मकरंद, वाह-वाह कर आप, धुन- लय पाइए
जय-जय .. शुभातिशुभ
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्र को उकेरते सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।
मनहरण घनाक्षरी छंद
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बरसों बाद मेला है, खूब ठेलम ठेला है, भीड़ बहुत भारी है, कुम्भ का आगाज है|
नर नारी जो भी आए, पाप यहाँ धुल जाए, संगम त्रिवेणी जहाँ, वो प्रयागराज है||
निर्मल तन हो जाए, निर्मल मन हो जाए, गृहस्थ हो या सन्यासी, तीर्थ में समान हैं|
ये सोचकर आते हैं, डुबकियाँ लगाते हैं, बूँद गिरी अमृत की, ये पवित्र स्थान है||
गाँव नगर से आते, परिवार साथ लाते, गंगा सबको तारेगी, यही अभिप्राय है|
पुन्य तिथि चुनकर, मन में ही गिनकर, डुबकियाँ लगाना ही, मुक्ति का उपाय है||
मोह माया के पार हैं, भभूत ही श्रृंगार है, अघोरी औ नागाओं का, अलग ही संसार है|
कष्ट सदा सहते हैं, फिर भी मस्त रहते हैं, इनके दर्शन बिना, कुम्भ भी बेकार है||
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मौलिक अप्रकाशित
आदरणीय अखिलेश भाईजी,
आपके प्रयास की भी वाह-वाह भूरि-भूरि, कठिन है किंतु पद, आपने लगा लिया
कुंभ का है अवसर, पाप-पूण्य खर-खर, घोरी या अघोरी कहो, जीव-जग पा लिया
तीन धार जंगम है, तीन धार संगम है, जीवन के आर-पार, तार जो बिछा लिया
किंतु एक बात आप, भाई मेरी मानिए तो, पद्य में जो लय नहीं, फिर क्या ही गा लिया
आपकी उपस्थिति तथा रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद.
शुभातिशुभ
आदरणीय सौरभ भाईजी,
ये टिप्पणी प्रसाद है, भाईजी धन्यवाद है, सीख पाया जितना भी, उसका ये सार है|
चित्रानुसार कहना, छंदों को सही लिखना,आप ही बतलाएँ है, आपका आभार है||
आ. भा ई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।
आदरणीय लक्ष्मण भाईजी
हार्दिक धन्यवाद आभार आपका
कुम्भ लगा प्रयाग में, संतो का जमघट है,आमजन भी आ जुटे, मुक्ति स्नान करने।
पर्व सनातन का है, लिए कामना मोक्ष की, जन्मों के कष्टों से सब, आये पार तरने।।
मिला सौभाग्य जिनको, संगम तट आने का, बहे जहाँ पर गंगा, जमुना , सरस्वती,
बिना प्रभु कृपा कब, कौन पहुँचा यहाँ है, चाहे इच्छा रही हो, कितनी बलवती।।
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कोई पुण्य कमाने को, कोई पापों को धोने, कोई बस सोचकर, पर्यटन आया है।
फिर भी सत्य यही है, फल मिलना आने का, पर प्रभु ही जानते, कौन क्या कमाया है।।
सच्चे मन से आकर, तन मन जिसने धोए, सफल उसी का आना, बाँकी तो व्यर्थ है।
किसी को भीड़ व्यापार, किसी को बस मौज है, सबको अपना-अपना, कुम्भ का अर्थ है।।
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बरसों बाद का मेला, विशेष ग्रह संयोग, सक्षम अक्षम जो, जा सको वो झट जाओ।।
विविध रंग जीवन के, संगम पर देखो, भले न पुण्य कमाओ, मन की शांति पाओ।।
देखना खुशी मनाते, हर उस निर्धन को, भूल अभाव जीवन के, जो चला आया है
उसके मुख तेज देखना, जो है बस बैरागी, साथ देखना उसको भी, जो खूब अघाया है।
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मौलिक/अप्रकाशित
मनहरण घनाक्षरी
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लो कुंभ का मेला जमा,भाव भक्ति मन रमा,धर्म का झंडा उठाये,भीड़ में उमंग है
डुबकियाँ लगा रहे,पुण्य सब कमा रहे,कुंभ की तो शान देख,आसमान दंग है
तीर संगम के नहीं,भेदभाव कुछ कहीं,एक ही विश्वास और,एक धर्म रंग है
शीत की हो क्यों फिकर,मस्त हैं सारे इधर,झूमते और नाचते,साधुओं का संग है
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मौलिक व अप्रकाशित
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