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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 26 की समस्त रचनाएँ

सुधिजनो !

दिनाँक 19 मई 2013 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 26 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.

इस बार के छंदोत्सव में कहना न होगा दोहा और कुण्डलिया छंदों पर आधारित प्रविष्टियों की बहुतायत थी.

इसके बावज़ूद आयोजन में 17 रचनाकारों की

दोहा छंद और कुण्डलिया छंद के अलावे

वीर छंद,

रुपमाला छंद,

गीता छंद, 

चवपैया छंद,

चौपाई छंद, 

अमृत ध्वनि छंद, 

कामरूप छंद,

त्रिभंगी छंद,

दुर्मिल सवैया छंद,

मदिरा सवैया छंद,

मानव छंद,

पंचचामर छंद,

मनहरण घनाक्षरी छंद जैसे सनातनी छंदों में सुन्दर रचनाएँ आयीं, जिनसे छंदोत्सव समृद्ध और सफल हुआ.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

इस बार रचनाओं को संकलित और क्रमबद्ध करने का दुरुह कार्य ओबीओ प्रबन्धन की सदस्या डॉ.प्राची ने बावज़ूद अपनी समस्त व्यस्तता के सम्पन्न किया है. ओबीओ परिवार आपके दायित्व निर्वहन और कार्य समर्पण के प्रति आभारी है.

सादर

सौरभ पाण्डेय

संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव

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1.श्री अरुण कुमार निगम जी

कुण्डलिया छंद
चम-चम चमके गागरी,चिल-चिल चिलके धूप
नीर भरन की चाह में, झुलसा जाये रूप
झुलसा जाये रूप,कहाँ से लाये पानी
सूखे जल के स्त्रोत,नजर आती वीरानी
दोहन–अपव्यय देख,रूठता जाता मौसम
धरती ना बन जाय,गागरी रीती चम-चम ||

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2. श्री अरुण शर्मा ‘अनंत’ जी

दोहा छंद

जंगल में मंगल करें, पौधों की लें जान ।
उसी सत्य से चित्र है, करवाता पहचान ।।

धरती बंजर हो रही, चिंतित हुए किसान ।
बिन पानी होता नहीं, हराभरा खलिहान ।।

छाती चटकी देखिये, चिथड़े हुए हजार ।
अच्छी खेती की धरा, निर्जल है बेकार ।।

पोखर सूखे हैं सभी, कुआँ चला पाताल ।
मानव के दुष्कर्म का, ऐसा देखो हाल ।।

पड़ते छाले पाँव में, जख्मी होते हाथ ।
बर्तन खाली देखके, फिक्र भरे हैं माथ ।।

खाने को लाले पड़े, वस्त्रों का आभाव । 
फिर भी नेता जी कहें, हुआ बहुत बदलाव ।।

तरह तरह की योजना, में आगे सरकार ।
अपना सपना ही सदा, करती है साकार ।।

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3.श्री अलबेला खत्री जी

दोहे 
टुकड़े टुकड़े हो गया, धरती माँ का चीर 
अखियाँ अम्बर ताकती, कब बरसेगा नीर 

आँखों का पानी मरा, अम्बर भी नहिं देत 
इसीलिए तो फट रहे, सूख सूख कर खेत 

मेरी माता मर गयी, तरस तरस कर यार 
लेकिन मुझको न मिली, जल की बूँदें चार 

पानी पानी चीखते, सूखे सबके प्राण 
उस पर हमको मारते, लू के अगनीबाण  

देह फटी जब खेत की, सहमी घर की गाय 
बन्दों को पानी नहीं, मुझको कौन पिलाय 

ईश्वर तू किस काम का, अगर न काटे पीर 
चीख चीख कर मांगती, वसुधा तुझसे नीर 
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4.श्री अशोक कुमार रक्ताले जी

(1)कुण्डलिया

बोला भूजल स्तर गिरा, आया है तब होश|

देख सभी हतप्रभ हुए, दीवानों का जोश ||

दीवानों का जोश, खींचते जमकर पानी,

बिना किसी संकोच, करें है सब मनमानी,

चलकर कितनी दूर, जा रहा बालक भोला,

देख धरा का दृश्य, प्रभु उफ्फ! हर मन बोला ||१||  

  

दिखता है चहुँ ओर अब, विकृत वसुधा रूप |

छाँह धरा से लुप्त है, दिखती है बस धूप ||

दिखती है बस धूप, हुआ है जन जन व्याकुल,

बालक की छवि देख, हुआ मन निर्मल आकुल,

कहे अब कवि ‘अशोक’, नहीं बस कोरा लिखता,

संचित हो अब नीर, व्यर्थ जो बहता दिखता ||२|| 

 

(2) मानव छंद (प्रत्येक चरण में चौदह मात्राएँ होती हैं पर किसी चरण में एक साथ चीन चौकालों का प्रयोग नही होता है.)

 

धरा मांगती और कहाँ, फकत चाहती वृक्ष लगा,

पाए मनु दूर तलक तब, छाँह नीर वसु प्यार पगा,

भाग रहे शिशु अल्प वसन, नीर भरी मन आस जगा,

क्षत-विक्षत वसु पर मानव, कुछ तो मरहम लेप लगा ||

 

दोहा

द्रुत गति से शिशु भागता, चाहे थोड़ा नीर |

चाक ह्रदय वसु का हुआ, हिय में उठती पीर ||

 

(3)कामरूप छंद

(चार चरणी छंद,26 मात्रा प्रति चरण,9,7,10 मात्राओं पर यति के साथ चरणान्त में गुरु लघु होना आवश्यक है)

वसुधा पे प्रभो, हो रहा है, नितहि अत्याचार,

खंड खंड हुई, धरा प्रभुवर, है कहाँ सरकार,

धरकर गगरिया, उड़ चला शिशु, छोड़ सकल विचार,

मिले वसुधा या, नभ से मिले, मिले शिशु जलधार ||

 

दोहा

शिशु कर गागर डोलती, रीते मन धर आस |

मन भर पाऊं नीर तो, मिट जाए संत्रास ||

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5.सुश्री कल्पना रामानी जी

छंद - कुण्डलिया  

जल-संरक्षण का भला, कहाँ किसी को भान।

पल पल पानी हो रहा, भू से अंतर्ध्यान।

भू से अंतर्ध्यान, सिर्फ है दोहन जारी,

शक्त उर्वरा भूमि, हो चली बंजर सारी।

ढूँढ रहा है बाल, धूप में जल-जल, जल-कण,

पन्नों में है कैद, आज भी जल-संरक्षण। 

 

पग लिपटे बंजर धरा, तन झुलसाती धूप।

हलक सुखाता जा रहा, गर्मी का यह रूप।

गर्मी का यह रूप, गजब तेवर दिखलाए,

रह रह करती घात, हवा कातिल मुस्काए।

नन्हीं सी यह जान, प्यास से कैसे निपटे,

तन झुलसाती धूप, धरा बंजर पग लिपटे।

 

पहले तो ऐसी न थी, इस धरती की पीर।

सहज सुलभ थीं रोटियाँ, कदम-कदम था नीर।

कदम-कदम था नीर, आज है घोर कुहासा,

सूखे में घट थाम, फिर रहा बचपन प्यासा।

कौन धरेगा कान, बात जिससे यह कह ले,

इस धरती की पीर, नहीं थी ऐसी पहले।

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6.श्री केवल प्रसाद जी

(1) दुर्मिल सवैया

नदिया जल घाट सभी सिमटे, अब ताल दिखे मटमैल-हरी।
यह जेठ तपाय रही धरती, अब खेत धरा चिटकी बिफरी।।
जन-जीव-अजीव थके हॅफते, नहि छांव मिले मन प्यास भरी।
नभ सूरज तेज घना चमके, धधके धरती तब आग झरी।।1

पशु - बालक घूम रहे वन में, पय देख रहे पथ में तगरी।
अखियां पथराय रही रज से, मन सोष हवा पगलाय सरी।।
इक बालक नंग धड़ंग ठगे, लइ हाथ भगोन चले पथ री।
तन जार उड़े करिखा बनके, जल नाहि मिले बरखा ठग री।।2

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7.डॉ० प्राची सिंह जी

दोहा छंद 

अनावृष्टि के दैत्य का, उफ! विकराल स्वरूप

टुकड़े-टुकड़े है धरा, तन झुलसाती धूप//१//

 

पल-पल सूखे ज़िंदगी,हर मौसम निश-प्रात   

जल-जल जीवन खोजता, बालक बिन पितु-मात//२//

 

जल संचय तकनीक का, हो सुफलित उपयोग

नीति विफल उस क्षेत्र में, जहाँ राशि उपभोग//३//

 

लुप्त हुए जल स्रोत सब, खेत फसल बर्बाद

ग्राम धाम कण-कण बिखर, झेलें नित अवसाद //४//

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8.श्री बृजेश ‘नीरज’ जी

(1)चौपाई छंद

कल कल करती धार नहीं है। जीवन की पहचान नहीं है।।

नदिया सूखी रेत बची है । दिल में सबके प्यास बढ़ी है।।

अब तो प्यास बुझाऊं कैसे। जल बिन मछली तड़पत जैसे।।

गगरी सूनी पनघट सूना। धरती सूनी अम्बर सूना।।

गरमी अब बेहाल किए है। जल का भी व्यापार किए है।।

नदिया में जलधार नहीं है। वह बोतल में कैद सजी है।।

जन जन से यह शोर मचा है। बापू कैसा रास रचा है।।

अपनी पीर बताएं किससे। कौन सुनेगा अब ये मुझसे।।

 

(2) दोहे

कबिरा निकला राह पर, लेकर गगरी हाथ।

पानी भरने के लिए, कौन चलेगा साथ।।

 

पनघट की हलचल गयी, कहीं न पानी देख।

नदिया की कल कल गयी, बची न पानी रेख।।

 

धरती में भी ताप है, नभ से बरसे आग।

जन प्यासे हैं बूंद को, बापू खेलें फाग।।

 

दोहन इतना कर लिया, सूखा धरती चीर।

हरियाली सारी गयी, नहीं बचा अब नीर।।

 

ऋषि मुनि सारे कह गए, पानी था अनमोल।

लेकिन अब व्यापार है, बिकता ये भी मोल।।

 

अजब गजब फैशन हुआ, ताल तलैया छोड़।

देखो बोतल के लिए, मची हुई है होड़।।

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9. आदरणीया राजेश कुमारी जी

 

छंद त्रिभंगी (चार चरण, मात्रा ३२, प्रत्येक में  १०,८,८,६ मात्राओं पर यति  तथा प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत,  प्रथम दो चरणों व अंतिम दो चरणों के चरणान्त परस्पर समतुकांत तथा जगण वर्जित, आठ चौकल,  प्रत्येक चरण के अंत में गुरु, पद का आरम्भ गुरु से )

 

नित आहें भरती ,सूखी धरती ,पीर बढ़ी सुन , हे मानव 

अब खाली सागर ,चटकी गागर,नीर नहीं उर ,हे मानव 

वो उर्वर काया,सुख की  छाया,नष्ट अनन्तर , हे मानव 

परिणाम वहन कर ,देख सहन कर,कष्ट निरंतर ,हे मानव

(संशोधित)

कुण्डलिया 

नस- नस चटकी देख कर, छाती हुई विदीर्ण 

शुष्क तृषित कुंठित धरा, हिय प्यासा उत्कीर्ण 

हिय प्यासा उत्कीर्ण , ढूंढे  नीर  का  सागर 

हुई  राह  संकीर्ण ,  हाथ  में  रीती  गागर 

बहुत किया खिलवाड़, कुदरत कहे अब बस-बस 

सुन धरती की पीर, चटकती  उसकी नस- नस 

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10.श्री राजेश शर्मा जी

दोहे

गागर ले कर दौड़ता ,बालक एक अधीर ,
शायद मिल जाये कहीं,इस बंजर में नीर , 

जहाँ कहीं भी जल दिखे ,देखें धूप न छाँव,
कलसा ले कर तुरत ही, दौड़ें नंगे पाँव .

दौनों के सम्बन्ध पर,इतना है विस्वास ,
तपती धरती देख कर ,रोयेगा आकाश .

नदी, ताल,पोखर,कुंए ,सब जाएँगे सूख ,
पैसे वालों को लगी ,है पानी की भूख .

तू प्यासा में मरूस्थल ,चाहत का अतिरेक ,
आ तुझको अर्पण करूँ ,मृग-मरीचिका एक

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11.श्री राम शिरोमणि पाठक जी

(1) चतुष्पदी या चौपैया छंद : १०,८,१२ मात्राओं पर यति अंत में दो गुरु

 

है पड़ा अकाल ,बुरे है हाल,दुखी दिखे नर नारी !
कर में लिए घड़ा,देखो दौड़ा ,जल की मारा मारी !
नयनन जल सूखे ,पलकें रूखे ,बूँद-बूँद अब भारी !
अब तो सब जानो, गलती मानो,दोहन अनहितकारी !!

 

दोहा छंद

धरती बंज़र हो गयी ,जीना हुआ मुहाल !
लोग भूख से मर रहे,फिर से पड़ा अकाल !! १

पानी की खातिर सभी ,देखो हुए अचेत!
पानी तो दिखता नहीं, दिखे रेत ही रेत !!२

देखो रवि की क्रूरता,बढ़ती जाती प्यास 
आत्मा भी जलने लगी ,होता यही अभास !!३

अग्निकुंड सा दिख रहा,सरिता में नहिं नीर !
इधर उधर है खोजता ,मानव तृषित अधीर!!४

गरम थपेड़े वायु के,करते है आघात ।
देखो सबसे कह रहे ,किसकी होती मात!!५

 

(2) घनाक्षरी छंद १६,१५ वर्ण पर यति , चरण के अंत में गुरू !

बूँद -बूँद पानी बिन ,तरस रहे हैं सभी,
व्याकुल यहाँ से वहां ,लोग लगे भागने !! 
समस्या है विकराल ,सबके है बुरे हाल ! 
कर जोड़ प्रभु जी से ,पानी लगे मांगने !! 
देखो पानी की किल्लतें,रात दिन हैं मिन्नतें !
कब होगी वर्षा अब ,मेघ लगे ताकने !! 
प्रकृति से खिलवाड़ ,किया वह याद नहीं ! 
जल की कीमत अब ,सब लगे मानने !!

 

(3) गीता छंद -१४ ,१२ अंत में गुरु लघु (चतुष्पदी )

 

देखो धधकती है धरा ,सिमटे सरोवर ताल !
धरती फटी हुई बंज़र ,दिखती है लाल लाल !!
बूँद बूँद निचोड़ डाला ,लोग स्वार्थी बेपीर !
सभी कहते खुद का दर्द ,सुने न धरा की पीर !!


गागर लिए नंगे पांव ,लेने चला वह नीर!
बस पानी की आस लिए ,था जला रहा शरीर !!
तन तपकर अंगार हुआ,दिनकर हो गए क्रूर !
पग पग बढ़ा रहा बालक ,मंजिल थी कोसों दूर !!

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12. श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी

(1)दोहा छंद

जलती रेत अथाह में, मिले कहीं ना ठाँव,

आँखे पनघट ढूंढती, झुलसे नंगे पाँव |

 

मटका लेकर जा रही, भू पर जलते पाँव,

पनघट रीते हो रहे, देख हमारे गाँव |

 

पानी पीने को नहीं, गाँव गाँव का हाल,

झूंठे सारे आंकडे, देश बना खुशहाल |

 

चटके धरती धूप में, पानी की दरकार,

भूजल नीचे जा रहा,जो जीवन आधार |

 

नदियाँ दूषित हो रही, नहीं हमारा ध्यान,

दुष्कर्मों का कृत्य ये, करे घोर अपमान |

 

आ.रो.का जल पी रहे, सौदागर आबाद,

पीने को थोडा मिले, अधिक करे बर्बाद |

 

बोतल हजार देख कर, मन में किया विचार,

प्यास बुझाते नल नहीं, सौदागर भरमार |

 

सार्वजनिक है आपदा, रहा न भूजल शेष,

नदियाँ सब ही जोड़कर,प्रयत्न करे विशेष |

 

जन जन की यह मांग है, दे ना सत्ता ध्यान,

सारी नदियाँ जोड़कर, त्वरित करे उत्थान | 

 

(2) कुंडलिया छंद (संशोधित)

अध् नंगा शिशु भागता, जलते शिशु के पाँव,

लम्बे लम्बे डग भरे,   नहीं कही भी छाँव | 

नहीं कही भी छाँव,  हो रहे पनघट ओझल   

खेत  हुए  वीरान,  ढोर-डंगर सब व्याकुल    

भूजल का रख मान, रहे प्राणी तब चंगा

रखना शिशु का ध्यान, रहे ना शिशु अध् नंगा |

 

नदियों में नहि नीर है,सूख रहे है गाँव

शहरो में डूंगर खड़े, जल बिन कैसी छाँव|

जल बिन कैसी छाँव,तरसते चल्लू भर को

धरा कहे हर बार, बचा गिरते भूजल को

हाथ धरे ना बैठ, गुजर जायेंगी सदियाँ

प्रदूषित न कर देख,सिसकती सारी नदियाँ 

 

(3) आल्हा छंद (३१ मात्राएँ/ १६ मात्राओं पर यति, १५ मात्राओं पर पूर्ण विराम/ अंत गुरु लघु)

नंगे पाँव चले ये बालक, कभी न आतप से घबराय |
प्यास लगे अश्कों को पीले,सूरज का नहि दोष बताय |

बंजर खेत हुए हैं सारे, धरती हाय चटकती जाय ।

भूजल गया रसातल में, पनघट रीते कौन बचाय ।

 

रेत जले तब पाँव झुलसते, वर्षा होवे अंतर्ध्यान |
दूषित होती नदियाँ सारी,  रखे न कोई इनका मान |
पशु-पक्षी सब प्यासे मरते, तरुवर सूख रहे अति त्राण
देखो बालक गगरी भरके, चला बचाने खग के प्राण |

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13.सुश्री शालिनी रस्तोगी

कुंडलिया 

   प्यासी धरा विकल हुई, बुझे कहाँ से प्यास|

   बूँद पड़े वर्षा की जब,  मन  में  जागे आस ||

   मन   में जागे आस, फूटे  भूमि  से कोंपल|

   मिले पेट को अन्न, हो  रहे  बालक  बेकल||

   झुलस रहे हैं प्राण, सुनो विनती  अविनाशी|

   बरसाओ निज नेह, रहे न वसुधा ये प्यासी ||

       

   बेबस बचपन दौड़ता, जल को नंगे पाँव|

   दूर-दूर तक है नहीं, एक पत्र भी छाँव ||

   एक पत्र भी छाँव, तवे - सी तपती धरती|

   क्षीण हो रहे प्राण, जिंदगी प्यासी मरती|

   मुरझाए सब जीव, सूखता है जीवन रस|

   जल बरसे बादल से, अब न हो मानव बेबस||

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14.श्री सत्यनारायण शिवराम सिंह जी

कुण्डलिया छंद

(१)

वसुधा की अब आर्द्रता, नाप रहा इंसान।

नीरस मन की देश में, कब होगी पहचान।।

कब होगी पहचान, बढ़ी जग की आबादी।

अल्प धरा में नीर, करें फिर भी बर्बादी।।

कहे सत्य कविराय, भेद सुन नीरस मन की।

करें नीर व्यापार, चीर छाती वसुधा की ।।

(२)

 सूखी फसलें खेत में, खाली हैं खलिहान।

साहुकार के कर्ज में, डूबा आज किसान।।

डूबा आज किसान, जान पर आफत आयी।

कुर्की का ऐलान, सब सम्पदा गंवायी।।

कहे सत्य कविराय, राह जीवन की रूखी।

जल जीवन का सार, बताती आँखें सूखी।।

(३)

 पानी का संचय करो, पानी है अनमोल।

पानी बिन जीवन नहीं, लाख टके के बोल।।

लाख टके के बोल, हाथ में लेकर गगरी।

बालक ढूंढे नीर, धरे धीरज की डगरी।।

कहे सत्य कविराय, हरित हों वसुधा रानी ।

जल गरिमा लो जान, मरे न आँख का पानी।।

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15.श्री सौरभ पाण्डेय जी

छंद - अमृत ध्वनि: - छः पंक्तियों का छंद जिसके पहले दो पद दोहा छंद. तीसरे पद का प्रारम्भ उसी दोहे के दूसरे सम चरण से. साथ ही, तीसरे पद से छठे पद तक प्रत्येक पद में आठ-आठ मात्राओं के तीन शब्द समुच्चय अनिवार्य जिनका हर आठवाँ अक्षर लघु. छंद का प्रथम शब्द और अंतिम शब्द कुण्डलिया छंद की तरह समान.
 
शुष्क होंठ मरु-रुष्क मन, दग्ध देह चुप कंठ 
जल विहीन भूतल मगर बेच  रहे जल लंठ 
बेच  रहे जल, लंठ हुए पल, कहाँ मिले हल  
आह भरे हर, त्राहि करे स्वर, जीवन विह्वल 
नस-नस निचोड़, जल हेतु होड़, नभ-भूमि रुष्क
आक्रान्त विवश उद्भ्रान्त मनस अनुभूति शुष्क


छंद – कुण्डलिया:

पानी का  व्यवहार जो, समझो तो कल्याण 
लहर-लहर  जीवन  भरा,  सूखे तो ले प्राण 
सूखे  तो  ले  प्राण, धरा  की  तड़के छाती 
उसपर शोषण खूब,  बिना  भय  के उत्पाती 
करें   खुला  दुष्कर्म, नहीं   कोई    हैरानी 
उसको ’बोतल-बंद’, इधर  उपलब्ध  न पानी

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16.श्री संजय मिश्रा ‘हबीब’

रूपमाला छंद (14-10 पर यति पदांत गुरु लघु)

 

कर दिया क्या इस धरा का, देख मैंने हाल।

बन दरारें बिछ गईं हैं, सख्त निरमम जाल।

फेंकता नभ नित्य शोले, भष्म धरती देह।

झुर्रियों के बीच ढूँढूँ, मातु ममता नेह।

 

ताल-नदियां सींग गर्दभ, की तरह सब लुप्त।

आज खुद घर को उजाड़ूँ, चेतना क्यों सुप्त?

पेड़ पौधे छोड़ स्वारथ, से किया है योग!

मेरी कृत्यों को रही है, सृष्टि सारी भोग।

 

रिक्त सागर, रिक्त गागर, लहलहाता मौन।  

छटपटाता प्यास हाथों, ले बचाए कौन?

ढूंढ हारा मैं भटकता, पा सका नहीं त्राण,

बूंद दो ही बूंद दो प्रभु, तृप्त कर लूँ प्राण।

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17.श्री संदीप कुमार पटेल

(1)छंद घनाक्षरी: एक वार्णिक छंद, जिसमें चार पद होते हैं और प्रत्येक पद में कुल ३१ वर्ण होते हैं तथा १६, १५ वर्णों में यति का विधान है,

 

सूखती है धरा आई गर्मी जब आग लिए

लता पता सूख सारा बाग़ मुरझाता है

मारती हवा है गर्म लू के थपेड़े मुंह पे

छूटता पसीना ऐसा चैन नहीं आता है

प्यास मारती है जोर भूख मर जाती है जी

सारे पकवान छोड़ छाछ पीना भाता है

कुंए ताल सूखते हैं हेंड पम्प फेल होते

दूर दूर राजू पानी भरने को जाता है

 

(2) कुंडलिया


वसुधा नीरस हो रही, नहीं दिखे है नीर 
पशु जन खग सब त्रस्त हैं, बढ़ती जाती पीर
बढ़ती जाती पीर, सूखते नादिया पोखर 
भटकें ले जल पात्र, भूल सब पत्ते चोसर 
सूखे सूखे कंठ, विकल से दिखते बहुधा 
नैनन बहता नीर, देख के दरकी वसुधा

गागर लेकर हाथ में, चलता मीलों मील 
सोचे बालक हर कदम, कहाँ मिलेगी झील 
कहाँ मिलेगी झील, हर तरफ दिखता बंजर 
नहीं वृक्ष की छाँव, भयानक है ये मंज़र
सूखी बगिया देख, छलकता मन का सागर 
बहता नैनन नीर, मगर खाली है गागर

 

(3) छंद पञ्च चामर के रूप में {(लघु गुरु x 8) x चार पद}

बचा न नीर शेष भानु भी लगा विनाश में 
न छाँव के दिखें कहीं निशान आस पास में 
जले शरीर होंठ शुष्क रुद्ध कंठ प्यास में 
बढ़ा चले अबोध किन्तु नीर की तलाश में

 

मिटे विशाल वृक्ष जो चली कुलीन आरियाँ
न बाग़ ही रहे यहाँ न हैं हसीन क्यारियाँ
जहाँ रही नदी वहाँ दिखे दरार धारियाँ 
पड़ी दरार देख के मिटी सभी खुमारियाँ

 

हुई मलीन खंड खंड तीव्र ताप से धरा
नदी विशाल सूखती सुबोध आदमी डरा
न नीर ही रहा कहीं नहीं दिखे हरा-भरा
कुशासनी खड़े खड़े विकल्प खोजते खरा

(संशोधित)

 

मदिरा सवैया {भगण X 7 + गुरु }

मदिरा सवैया = भानस भानस भानस भानस भानस भानस भानस + गुरु

 

जेठ तपे धरती दरके तडपे सब लोग बिना जल के

आग गिरा रवि घूर रहा कहता बचके निकलो हमसे

धूल भरी चलती जब अंधड़ लोग चलें छुपते छुपते

मात कहे सुत धूप कड़ी पर बालक नीर चला भरने

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Replies to This Discussion

बहुत ही सुंदर संकलन,  इस श्रमसाध्‍य कार्य के लिए प्राची जी एवं सौरभ जी का हार्दिक आभार कि सबको संकलित कर हम तक पहुंचाया । अमृत ध्‍वनि छंद एवं पंचचामर छंद मेरे लिए नए छंद हैं और दोनों का विधान भी सरल शब्‍दों में साझा किए गए हैं किंतु गीता छंद समझ में नहीं आया । ये गीतिका तो नहीं ।  समस्‍त रचनाकारों को उनकी सृजनशीलता के लिए हार्दिक बधाई ।

आदरणीय राजेश भाई,  आप सद्यः समाप्त आयोजन में श्रोता की तरह अवश्य होंगे. वहाँ उचित बातें हुई हैं. आप जानते ही हैं कि छंदोत्सव में प्रयुक्त छंद के विधानों पर खुल कर चर्चा होती है. उनका कम्पनसेसन तो अमूमन संभव भी नहीं.  गीता छंद दोहा छंद से कितना साम्य रखता है यह विचारने की बात है. 

गीतिका छंद का विधान २१२२  २१२२  २१२२  २१२  की तरह है.

यानि, सरलता के लिए यह सूत्र उचित होगा -  [{(रगण +गुरु) X ३} + रगण]  किन्तु यह एक मात्रिक छंद है अतः लघु में परिवर्तन नहीं होता तथा १४-१२ पर यति निर्धारित की जाती है.

सादर

ओबीओ के आयोजन रचनाकर्म की बेहतरी और रचनाकार के विकास के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं इसका आभास उसी को हो सकता है जो सतत इन आयोजनों में उपस्थित रहता है। हर आयोजन में कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। एक ऐसी वर्कशाप जिसका कोई दूसरा उदाहरण मौजूद नहीं है।
इस श्रमसाध्य संकलन के लिए आदरणीय सौरभ जी का तथा आदरणीया प्राची जी का हार्दिक धन्यवाद!

आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी, पहले तो आपका  तथा डॉ प्राची सिंह जी का  इस श्रम साध्य कार्य के लिए हार्दिक आभार | इस बार 

 काव्य रचनाओं के साथ साथ महत्वपूर्ण काव्य विधा की विस्तृत जानकारी हुई, जो सुधि और लगनशील सीखने के जिज्ञासुओ के 

लिए बड़ी उप्लाब्धि होगी | दूसरी बात इस बार भलेही दोहे एवं कुंडलिया छंद अधिक रहे, किन्तु मुझ जैसे के लिए अमृत ध्वनि छंद,

गीता छंद, रूप माला छंद,काम रूप छंद, पञ्च चामर छंद,आदि बिलकुल नयी नयी विधाओं में उपलब्ध हुए, उन सभी रच्नाकारों

को हार्दिक बधाई और मेरा उनके प्रति हार्दिक आभार | ये इन मंच की भी बड़ी उपलब्धि है |  सुभकामनाओ के साथ | सादर  

आदरणीय अरुण सर का बेहतरीन कुण्डलिया छंद की ये पंक्तियाँ वाह वाह

चम-चम चमके गागरी,चिल-चिल चिलके धूप
नीर भरन की चाह में, झुलसा जाये रूप

आदरणीय अरुण शर्मा जी का ये दोहा बहुत बढ़िया हुआ है

छाती चटकी देखिये, चिथड़े हुए हजार ।
अच्छी खेती की धरा, निर्जल है बेकार ।।

स्व. परम आदरणीय अलबेला खत्री जी के शानदार दोहे पढने मिले. मंच पर विलम्ब से आया उनका सानिध्य नहीं पा सका इसका बहुत अफ़सोस है....

टुकड़े टुकड़े हो गया, धरती माँ का चीर
अखियाँ अम्बर ताकती, कब बरसेगा नीर

मेरी माता मर गयी, तरस तरस कर यार
लेकिन मुझको न मिली, जल की बूँदें चार

देह फटी जब खेत की, सहमी घर की गाय
बन्दों को पानी नहीं, मुझको कौन पिलाय

ईश्वर तू किस काम का, अगर न काटे पीर
चीख चीख कर मांगती, वसुधा तुझसे नीर

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले सर द्वारा प्रस्तुत मानव छंद मेरे लिए बिलकुल नया छंद है.

धरा मांगती और कहाँ, फकत चाहती वृक्ष लगा,
पाए मनु दूर तलक तब, छाँह नीर वसु प्यार पगा,
भाग रहे शिशु अल्प वसन, नीर भरी मन आस जगा,
क्षत-विक्षत वसु पर मानव, कुछ तो मरहम लेप लगा

आदरणीय केवल प्रसाद जी का दुर्मिल सवैया बहुत सुन्दर लगा.


आ. .डॉ० प्राची सिंह जी की शानदार दोहावली में ये दोहे कमाल के है-

अनावृष्टि के दैत्य का, उफ! विकराल स्वरूप
टुकड़े-टुकड़े है धरा, तन झुलसाती धूप//१//

पल-पल सूखे ज़िंदगी,हर मौसम निश-प्रात
जल-जल जीवन खोजता, बालक बिन पितु-मात//२//

आदरणीया राजेश कुमारी जी के छंद त्रिभंगी क्या खूब है -

नित आहें भरती ,सूखी धरती ,पीर बढ़ी सुन , हे मानव
अब खाली सागर ,चटकी गागर,नीर नहीं उर ,हे मानव
वो उर्वर काया,सुख की छाया,नष्ट अनन्तर , हे मानव
परिणाम वहन कर ,देख सहन कर,कष्ट निरंतर ,हे मानव

हे मानव की टेक हर पंक्ति में गुनगुनाने में आनंद आ गया


आदरणीय सौरभ सर का छंद अमृत ध्वनि: पढ़कर बिलकुल चकित हूँ.

शुष्क होंठ मरु-रुष्क मन, दग्ध देह चुप कंठ
जल विहीन भूतल मगर बेच रहे जल लंठ
बेच रहे जल, लंठ हुए पल, कहाँ मिले हल
आह भरे हर, त्राहि करे स्वर, जीवन विह्वल
नस-नस निचोड़, जल हेतु होड़, नभ-भूमि रुष्क
आक्रान्त विवश उद्भ्रान्त मनस अनुभूति शुष्क

आदरणीय संदीप कुमार पटेल के पञ्च चामर छंद कप पढ़कर झूम गया इस छंद का जादू ही ऐसा है शब्द जैसे खनकते है-

बचा न नीर शेष भानु भी लगा विनाश में
न छाँव के दिखें कहीं निशान आस पास में
जले शरीर होंठ शुष्क रुद्ध कंठ प्यास में
बढ़ा चले अबोध किन्तु नीर की तलाश में

मिटे विशाल वृक्ष जो चली कुलीन आरियाँ
न बाग़ ही रहे यहाँ न हैं हसीन क्यारियाँ
जहाँ रही नदी वहाँ दिखे दरार धारियाँ
पड़ी दरार देख के मिटी सभी खुमारियाँ

हुई मलीन खंड खंड तीव्र ताप से धरा
नदी विशाल सूखती सुबोध आदमी डरा
न नीर ही रहा कहीं नहीं दिखे हरा-भरा
कुशासनी खड़े खड़े विकल्प खोजते खरा

बहुत बढ़िया आयोजन हुआ .... वाह

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