"चित्र से काव्य तक" अंक -४ प्रतियोगिता से संबधित निर्णायकों का निर्णय आपके समक्ष प्रस्तुत करने का समय आ गया है | अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि लगातार पाँच दिनों तक चली इस प्रतियोगिता के अंतर्गत कुल ८५२ रिप्लाई आयीं हैं जो कि काफी हद तक संतोषजनक हैं | इस प्रतियोगिता में अधिकतर दोहा , गज़ल, कुंडली, घनाक्षरी, हाइकू व छंदमुक्त सहित अनेक विधाओं में रचनाएँ प्रस्तुत की गयीं| इस बार भी यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि समस्त प्रतिभागियों से आदरणीय धर्मेन्द्र शर्मा, आदरणीय सौरभ जी , आदरणीय गणेश जी बागी व आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदि नें अंत तक अपनी बेहतरीन टिप्पणियों के माध्यम से सभी प्रतिभागियों व संचालकों में आपसी संवाद कायम रखा तो वहीं दूसरी ओर उन्हीं मित्रों नें अपनी प्रतिक्रियाओं में दोहा , कुण्डलिया व घनाक्षरी आदि छंदों का प्रयोग करके इस प्रतियोगिता में एक गज़ब का आकर्षण उत्पन्न कर दिया.... छंदों के माध्यम से होने वाले सवालों और जवाबों की छटा तो देखते ही बनती थी | इस बार भी इस प्रतियोगिता के आयोजकों यथा भाई योगराज जी, भाई बागी जी, भाई धर्मेन्द्र जी आदि सहित अन्य मित्रों नें भी प्रतियोगिता से बाहर रहकर मात्र उत्साहवर्धन के उद्देश्य से ही अपनी-अपनी स्तरीय रचनाएँ तो पोस्ट कीं ही साथ-साथ अन्य साथियों की रचनायों की खुले दिल से समीक्षा व प्रशंसा भी की जो कि इस प्रतियोगिता की गति को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करती रहीं| प्रसन्नता की बात यह है इस प्रतियोगिता के अंतर्गत पोस्ट की गयीं अधिकतर रचनाएँ प्रायः दर्शाए गए चित्र पर काफी हद तक आधारित थीं | फिर भी कुछ प्रतिभागियों नें जल्दबाजी में निम्न स्तरीय रचनाएँ पोस्ट कर डालीं जिन पर ओ बी ओ प्रबंध-तंत्र द्वारा अविलम्ब लगाम लगा दी गयी ! इस बार भी हमनें यह महसूस किया है कि कतिपय रचनाकारों को छोड़ कर अन्य की रचनाओं की गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार आता जा रहा है|
इस साहित्य-यज्ञ में काव्य रूपी आहुतियाँ डालने के लिए सभी ओ बी ओ मित्रों को हृदय से बहुत-बहुत आभार...
प्रतियोगिता का निर्णय कुछ इस प्रकार से है...
प्रथम स्थान (संयुक्त रूप से): श्री सौरभ पाण्डेय जी खेल अजूबा बतर्ज़ प्रगति का हाल ===================== देखो अपना खेल, अजूबा... देखो अपना खेल.. द्वारे बंदनवार प्रगति का पिछवाड़े धुर-खेल.. भइया, देखो अपना खेल.
अक्की-बक्की पवन की चक्की देखे मुनिया हक्की-बक्की फसल निकाई, खेत गोड़ाई अनमन माई बाबू झक्की.. .. जतन-मजूरी खेती-बाड़ी जीना धक्कमपेल.. भइया, देखो अपना खेल.
खुल्लमखुल्ला गड़बड़-झाला आमद-खर्चा चीखमचिल्ला खुरपी-तसला मेड़-कुदाली बाबू बौड़म करें बवाला - रात-पराती आँखन देखे - हाट-खेत बेमेल.. भइया, देखो अपना खेल.
नाच-नाच कर झूम-झूम कर खूब बजाया विकास-पिपिहिरी पीट नगाड़ा मचा ढिंढोरा उन्नति फिरभी रही टिटिहिरी संसदवालों के हम मुहरे पाँसा-गोटी झेल.. भइया, देखो अपना खेल.
प्रथम स्थान: श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी(संयुक्त रूप से)
कोई राजा नहीं कोई रानी नहीं , इन किसानो की कोई कहानी नहीं !
सबको जीवन का अमृत पिलाते हैं ये, अपने बच्चों को भूखे सुलाते हैं ये !
इनके सपनों की तक़दीर होती नहीं , इनकी मेहनत की तस्वीर होती नहीं!
मेघ मौसम का मोहताज़ होता रहा , इनकी आँखों में सावन को बोता रहा!
पीढ़ियों की ख़ुशी जा चुकी रूठकर, बच्चे पैदा हुए क़र्ज़ में डूबकर !
जिन कपासों को खुश हो उगाते हैं ये, उनकी डोरी से फांसी लगाते हैं ये ! द्वितीय स्थान : श्रीमती वंदना गुप्ता जी "ये मेरे साथ ही क्यों होता है ?"
बोये थे मैंने कुछ पंख उड़ानों के कुछ आशाओं के पानी से सींचा था हर बीज को शायद खुशियों की फसल लहलहाए इस बार पता नहीं कैसे किस्मत को खबर लग गयी ओलों की मार ने चौपट कर दिया सपनो की ख्वाहिशों का आशियाना फिर किस्मत से लड़ने लगा उसे मनाने के प्रयत्न करने लगा झाड़ फूंक भी करवा लिया टोने टोटके भी कर लिए कुछ क़र्ज़ का सिन्दूर भी माथे पर लगा लिया |
और अगली बार फिर नए उत्साह के साथ एक नया सपना बुना इस बार खेत में मुन्नू के जूते बोये मुनिया की किताबें बो दिन और रामवती के लिए एक साड़ी बो दी एक बैल खरीदने का सपना बो दिया और क़र्ज़ को चुकाने की कीमत बो दी और लहू से अपने फिर सींच दिया मगर ये क्या ...........इस बार भी जाने कैसे किस्मत को खबर लग गयी बाढ़ की भयावह त्रासदी में सारी उम्मीदों की फसल बह गयी मैं फिर खाली हाथ रह गया कभी आसमाँ को देखता तो कभी ज़मीन को निहारता और खुद से इक सवाल करता "ये मेरे साथ ही क्यों होता है ?"
इक दिन सुना रामखिलावन ने परिवार सहित कूच कर लिया क्या करता बेचारा कहाँ से और कैसे परिवार का पेट भरता जब फाकों पर दिन गुजरते हों फिर भी ना दिल बदलते हों और कहीं ना कोई सुनवाई हो उम्मीद की लौ भी ना जगमगाई हो कैसे दिल पर पत्थर रखा होगा जिन्हें खुद पैदा किया पाला पोसा बड़ा किया आज अपने हाथों ही उन्हें मुक्ति दी होगी वो तो मरने से पहले ही ना जाने कितनी मौत मरा होगा उसका वो दर्द देख आसमाँ भी ना डर गया होगा पर कुछ लोगों पर ना कोई असर हुआ होगा बेचारा शायद मर के ज़िन्दगी से मिला होगा मेहनत तो किसान कर सकता है मगर कब तक कोई भाग्य से लड सकता है रामखिलावन का हश्र देख अब ना शिकायत करता हूँ और रोज तिल तिल कर मरा करता हूँ जाने कब मुझे भी.................? हाँ , शायद एक दिन हश्र यही होना है तृतीय स्थान: श्री इमरान जी !
बिजली नहीं मिली बरसात कम हुई, फसलों को देखकर ये आँख नम हुई।
बूंदें कटी हुई फसलों पे आ गईं, बेवक़्त की बारिश देखो सितम हुई।
इक बाग पे गुमाँ वो भी चला गया, आँधी के ज़ोर से डाली बरहम हुई।
कैसे चुकाएंगे बच्चों की फीस को, स्कूल से मिली मोहलत खतम हुई।
बिटिया के हाथ भी पीले न कर सकें, दुख़्तर किसान की बाबा का ग़म हुई,
अहले बाज़ार के क़र्ज़े में दब गए, मिलों की देर से गरदन ये ख़म हुई,
लाखों की मिल्कियत फाकाकशी के दिन, अपनी तो ज़िन्दगी बे दामो दम हुई।
हम आँहों फुगा करें या फिर बग़ावतें, सरकार ए मुल्क भी देखो समम हुई।
'इमरान' जिगर की बातें दबाए रख, किस्मत किसान की ये बेरहम हुई। |
प्रथम (संयुक्त), द्वितीय व तृतीय स्थान के उपरोक्त चारों विजेताओं को सम्पूर्ण ओ बी ओ परिवार की ओर से बहुत-बहुत बधाई...
प्रथम व द्वितीय स्थान के उपरोक्त विजेता आगामी "चित्र से काव्य तक- प्रतियोगिता अंक ५" के निर्णायक के रूप में भी स्वतः नामित हो गए हैं |
अंत में हम सभी की ओर से इस प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल के सदस्यों, आदरणीय कुंवर योगेन्द्र बहादुर सिंह उर्फ़ आलोक 'सीतापुरी, जी , श्रीमती लता आर ओझा जी, व आदरणीय धर्मेन्द्र 'धरम 'जी का विशेष रूप से आभार ..........
जय ओ बी ओ !
सादर:
अम्बरीष श्रीवास्तव
अध्यक्ष,
"चित्र से काव्य तक" समूह
ओपन बोक्स ऑनलाइन परिवार
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meri sbhi vijetaon ko hardik shubhkamnayen kripya swikar kren
आदरणीय वंदना जी , सर्वश्री सौरभ जी , इमरान जी, ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी ने अपनी उत्कृष्ट रचना क्षमता और चित्र के अनुरूप लेखन का परिचय दिया है और इस प्रकार यह मंच और समृद्ध हुआ है | हम सब सदस्यों को आप सभी पर गर्व है | इस आयोजन की सफलता के लिए संचालक अम्बरीश जी विशेषरूप से बधाई के पात्र है |
बहुत अच्छे. .. बधाई
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