सु्धीजनो !
दिनांक 15 अगस्त 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 52 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए तीन छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा, रोला और कुण्डलिया छन्द
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
जो प्रस्तुतियाँ प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करने में सक्षम नहीं थीं, उन प्रस्तुतियों को संकलन में स्थान नहीं मिला है.
फिर भी, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तवजी
संशोधित रचनाएँ ............
दोहा छंद
शुभ्र वस्त्र और टोपियाँ, चर्चा करते पाँच।
देश की आज़ादी पर, कभी न आये आँच॥
झंडा झुके न देश का, फहरे बारह मास।
आतंकी हैं घात में, सभी पर्व है पास॥
लिए तिरंगा हाथ में, युवा वर्ग में जोश।
सीमा पर ना चूक हो, रहें न हम मदहोश॥
हर आतंकी पाक का, खाएगा अब मात।
आपस में हम एक हैं, सर्व धर्म सब जात॥
कुण्डलिया छंद
हर घर में हो जागरन, सीमा पर दिन रात।
आतंकी अब पाक के, कर न सके उत्पात॥
कर न सके उत्पात, हमारी जिम्मेदारी।
इक छोटी सी चूक, पड़े ना हम पर भारी॥
टोपी वस्त्र सफेद , ध्वजा है पाँचों कर में।
रहे सुरक्षित देश, यही चर्चा हर घर में॥
रोला छंद
हम समझें ये बात, और सब को समझायें।
आतंकी औ’ पाक , हमेशा हमें लड़ायें॥
आये कभी न आँच, सफेद हरा भगवा पर।
सब धर्मों के लोग, रहें मिलकर जीवन भर॥
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पाँच युवक गम्भीर, सभी को भारत प्यारा।
टोपी श्वेत लिबास, हाथ में झंडा न्यारा॥
करें भ्रांतियाँ दूर, किसी को न हो शिकायत।
शांति और सद्भाव, देश की यही रवायत॥
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आदरणीय श्री सुनील जी
रोला छंद
हिन्द देश है आज, सुवासित और सुसज्जित
आजादी के पर्व, में सभी हैं उत्साहित
जाग गये हम आज, सुबह का गजर सुने बिन (संशोधित)
आजादी का राग, हमें गाना था भर दिन
तीन वर्ण के बाद, न कोई वर्ण सुहाता
हरा श्वेत उपरान्त, सिर्फ़ केसरिया भाता
रक्त-रसायन युक्त, हुई धरती तब जाकर
उभरे तीनों रंग, चमक अंतहीन पाकर
चलो! उठें भी बंधु, उड़ायें अब परचम हम
दुनिया देखे आज, दिखायें जो निज दमखम
देशप्रेम के गीत, दिशाऐं गातीं हैं वो
सन सैतालिस बीच, सुरों में गायीं थीं जो
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सौरभ पाण्डेय
दोहे
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भिन्न-भिन्न के फूल ज्यों, सदा बाग़ की शान
पंथ सभी हैं सम्पदा, मालिक हिन्दुस्तान
अपनापन की ज़िन्दग़ी, कुदरत भी वल्लाह
दिया वतन ने जो हमें, नेमत है अल्लाह
अपनापन हर सू रहे, मिलजुल हो निर्वाह
प्रतिपल अपने देश हित, बना रहे उत्साह
अपने हाथ बलिष्ठ हों, थामें हुए तिरंग
वतन हमारी शान है, सारा आलम दंग
बीत गई तारीख़ की, बातें करे अगस्त
कथा सुनाता देश की, दिखा तिरंगा मस्त
इक जैसे सुख-दुख हमें, किन्तु भिन्न बर्ताव
अलग-अलग है मान्यता, लेकिन प्रखर जुड़ाव
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आदरणीय गिरिराज भण्डारीजी
पाँच दोहे
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हाथ तिरंगा थाम के , बैठे बालक पाँच
मन कहता इस भाव को , आये ना अब आँच
राजनीति ना घेर ले , इनके कोमल भाव
दूध ख़टाई ना पड़े , बचा रहे सद्भाव
आतंकी ये देख कर , फिर ना करे उपाय
बालक मन बहके नहीं , मन मे संशय आय
इच्छा बदले भाव में , भाव बने तब कर्म
थामें झंडा बस तभी , देश प्रेम हो धर्म
कोई पकड़े शान से , कोई देत जलाय
रे मन चिंता देश की , क्यों ना जुझको खाय
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आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी
(दोहा गीत)
झंडा है जो हाथ में, बतलाये पहचान
एक तिरंगे के तले, सारा हिन्दुस्तान
इस माटी की सब उपज,
भारत की संतान.
कैसे नीचा एक फिर,
कैसे एक महान.
एक बराबर सब यहाँ, भारत माँ की शान
एक तिरंगे के तले, सारा हिन्दुस्तान
माटी से हमको रहा,
आप बराबर प्यार
ऐसे में फिर क्यों भला,
दूजे सा व्यवहार
मन से तौलों जो कभी, हम सब एक समान
एक तिरंगे के तले, सारा हिन्दुस्तान
जात पात से है बड़ा,
मानवता परिवेश.
इस पर सब कुर्बान है,
ऐसा भारत देश
साँसों में सबके बसा, ये है सबकी जान
एक तिरंगे के तले, सारा हिन्दुस्तान
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आदरणीय मनन कुमार सिंहजी
दोहा गीत
आया है नवल विहान,
ले लो झंडा तान,
ले यह तुम्हारा मान,
यही नया दिनमान।
आया है नवल विहान!1
हो नहीं दिल में दरार,
जां हो केवल जान।
साँस कहे तेरी कथा,
मधुर-मधुर हो तान।
आया है नवल विहान!!2
आ करें आगाज नया,
बिसरा सब संधान।
आँखों-आँखों बात हो,
नहीं कहेंगे कान।
आया है नवल विहान!!3
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आदरणीय रमेश कुमार चौहानजी
दोहा गीत
झूमे बच्चे हिन्द के,
लिये तिरंगा हाथ ।
हम भारत के लाल है, करते इसे सलाम ।
पहले अपना देश है, फिर हिन्दू इस्लाम ।।
देश धर्म ही सार है, बाकी सभी अकाथ । झूमे......
करे यशगान देश के, मिलकर बच्चे पांच ।।
हॅस कर देंगे जान हम, आये ना कुछ आॅच ।।
बैरी समझे क्यों हमें, हम हैं यहां अनाथ । झूमे......
मेरा अपना देश है, मेरे अपने लोग ।
जल मिट्टी वायु के, करते हम उपभोग ।।
कण-कण में इस देश के, रचे बसे हैं साथ । झूमे......
समरसता सम भाव का, अनुपम है सौगात ।
ईद दिवाली साथ में, सारे जहां लुभात ।।
हिन्दी उर्दू बोल है, अपने अपने माथ । झूमे......
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आदरणीय लक्ष्मण धामी
दोहा छन्द
लिए तिरंगा हाथ में, कहते बच्चे पाँच
देश प्रेम के भाव को, मजहब से मत जाँच /1
पूजा पाठ नमाज तो, बस निजता की बात
सबसे ऊपर देश है, कैसे भी हालात /2
मिला हमें भी है तनिक, मजहब से यह ज्ञान
भारतवासी रूप में, रखें देश का मान /3
भले जात से तुम कहो, अफजल और कसाव
दोनों धब्बे कौम पर, उनसे नहीं लगाव /4
दाउद से तुम जोड़ कर, मत कहना गद्दार
अगर मिलेगा वो कहीं, हम ही देंगे मार /5
वंशज वीर हमीद के, हम हैं सच्चे रिंद
कहते बंदे मातरम्, जय भारत जय हिंद /6
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आदरणीया प्रतिभा पाण्डेयजी
दोहा
अड़सठ का लो हो गया मेरा देश महान
हैप्पी बड्डे टू यू सब मिल कर गाएं गान
अल्प बहु के मुद्दों को दे दें पूर्ण विराम
जाली की या खादी की सब टोपी एक समान
अजब गजब इस देश के अजब गजब हैं रंग
दांत तले उंगली दिए दुश्मन भी हैं दंग
साजिश रचने में लगा दुश्मन सरहद पार
बाज नहीं आता खाके बार बार वो मार
घर के अन्दर भी छिपे दुश्मन कुछ हैं आज
दिल को जिनके चीरता प्रेम प्यार का साज
आज़ादी पर हम अपनी तभी करेंगे नाज़
कोई भी बच्चा अपना भूखा न सोये आज
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आदरणीया राजेश कुमारीजी
रोला गीत
बैर भाव को त्याग,रखें बस तन-मन चंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
बच्चे बैठे चार ,लिए हाथों में झंडा
गपशप में हैं व्यस्त,हँसी का कोई फंडा
बचपन है मासूम ,दिलों में निर्मल गंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
उजले हैं परिधान ,टोपियाँ सिर पर उजली
मुख पर है मुस्कान,न कोई कलुषित बदली
बाल हृदय से दूर ,सुलगता द्वेष पतंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
धर्म वर्ग के भेद, रहित होते हैं बच्चे
तोड़ें हम ही लोग,सूत्र होते जो कच्चे
जाति पाँति के बीज ,उगा भड़काते दंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
आजादी का पर्व,मनाता भारत मेरा
देश प्रेम का भानु,डालता मन में डेरा
सभी मनाते जश्न, मसूरी या दरभंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
ध्वज है अपनी जान, इसी से चौड़ा सीना
भारत की ये शान ,इसी पर मरना जीना
हम हैं इसके लाल , न लेना हम से पंगा
सर्व धर्म सम भाव, कहे आजाद तिरंगा
(संशोधित)
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आदरणीया डॉ. नीरज शर्माजी
दोहे
श्वेत वस्त्र धारण किए , सिर पर टोपी गोल।
लिए तिरंगा हाथ में ,जय भारत की बोल॥
गहन मंत्रणा कर रहे , बैठे बालक पांच।
अब भारत की शान पर, कभी न आए आंच॥
बालक तो कोमल मना, और न मन में मैल।
हंसते बतियाते हुए , लगें छबीले छैल॥
धर्म , जात के नाम पर , बिखर रहा है देश।
नहीं संभाला तो इसे , बढ़ जाएगा क्लेश॥
धीरे - धीरे ही सही , बदल रहा माहौल।।
छोटी-छोटी बात पर , जो जाता था खौल॥
आजादी पाए, हुए , भैया अड़सठ वर्ष।
दुविधा मुंह बाए खड़ीं , बुझी न अब तक तर्ष॥
वीरों के बलिदान से , भारत हुआ स्वतंत्र।
चलो जपें हम भी वही , देश-भक्ति का मंत्र॥
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भाई सचिनदेवजी
दोहे
सिर पर टोपी हाथ में, भारत का सम्मान
आँखों मैं फैली चमक, मुख पर है मुस्कान II1II
मजबूती से देश का, लिया तिरंगा थाम
धीरे-धीरे बांटते, आपस मैं पैगाम II2II
यारो मिलकर ठान लें, अपने मन में आज
झंडे की हर हाल में, हमको रखनी लाज II3II
गिनती मैं हम पांच हैं, मुटठी के हम रूप
काम करेंगे देश की, मर्यादा अनुरूप II4II (संशोधित)
हमको तो बस आज से, ये रखना है याद
सबसे पहले है वतन, सब हैं उसके बाद II5II
इसको छूने का हमें, आज मिला सम्मान II6II
हम सबकी है साथियो, झंडे से पहचान
हिन्दू-मुस्लिम-सिख यहाँ, ईसा धरम अनेक
लेकिन झंडे के तले, भारतवासी एक II7II
रखना गीता हाथ में, चाहे तुम कुरआन
लेकिन सब रखना सदा, दिल मैं हिन्दुस्तान II8II
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आदरणीय अशोक कुमार रक्तालेजी
कुण्डलिया
बातें करते मित्र दो, सुनते दिखते तीन |
सबके वस्त्र सफ़ेद हैं, ध्वज लेकिन रंगीन ||
ध्वज लेकिन रंगीन, सभी की शान बढाता,
बैठे लिए किशोर, राष्ट्र-ध्वज है फहराता,
ध्वज के तीनों रंग, सदा सबका मन हरते,
धर्म चक्र के संग, धर्म की बातें करते ||
मन को पावन ही करें, उन बच्चों के भाव |
जिनने थामा राष्ट्र-ध्वज, लेकर पूरा चाव ||
लेकर पूरा चाव, तिरंगा वे फहरायें
भारत माँ का प्रेम, दुआ जन-जन की पायें,
रहे सरसता नेह , बरसता जैसे सावन,
गंगा की हर बूँद , बना दे मन को पावन ||
दोहे
सभी श्वेत हैं टोपियाँ, लेकिन अलग विचार |
हर मुख की मुस्कान का, कहता है आकार ||
रहें तिरंगे के तले, मिलजुल कर हम साथ |
बैर द्वेष को त्याग कर, ले हाथों में हाथ ||
संस्कृति का इस देश की, करता जग गुणगान |
नवयुवकों से आस है , और बढाएं मान ||
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आदरणीय रवि शुक्लजी
दोहा गीत
बैठे बालक पांच ये, हाथ तिरंगा थाम
मिलकर देना साथियो, चर्चा को आयाम
विधवा की इक मांग सा
सरहद का संदेश
आज़ादी के नाम पर
अलग हुआ इक देश
उसका फल हम पा रहे कहां मिला आराम ?
अमन चैन की बात हो
या स्वतंत्र अभियान
दोनो ही अविभाज्य है
मूल मंत्र को जान
मंजि़ल को पाए बिना हमें कहां विश्राम ।
फिर से आया लौट कर
पंद्रह आज अगस्त
आजादी आनंद है
इसी सोच में मस्त
हमें किसी से क्या गरज तू रहीम मैं राम
नियत समय अब आ गया
देना मेरा साथ
अलम उठा कर हम चलें
छोड़ न देना हाथ
नहीं किसी के भी रहें गर्दिश में अय्याम ।
देश प्रेम का राग हो
मनभावन हो गान
भाव यही अभिव्यक्त हो
भारत देश महान
रज कण चंदन शीश धर करते इसे प्रणाम ।
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आदरणीय जवाहर लाल सिंहजी
दोहे
बाल मंडली देख कर, मन में उठी उमंग.
हम भी होते बाल गर, खूब जमाते रंग.
क्यों बांटे मजहब हमें, चलें सभी के साथ
देश बढ़े आगे सदा, मिले हाथ से हाथ
भारत देश महान है, बच्चे इनकी शान
इसी तिरंगा के लिए, दिया बीर ने जान
राम रहीम कबीर हैं, भारत की पहचान
रंग बिरंगे फूल हैं, गुलशन हिन्दुस्तान
कुण्डलियाँ
देखो आज सलीम को, मन में है उत्साह,
कादिर भी है साथ में, साबिर भरता आह!
साबिर भरता आह, कबीरा गीत सुनाये
चारो से ही आज, धरा पर मस्ती छाये
इन बच्चों को देख, सभी मिल रहना सीखो
निश्छल है मुस्कान, तिरंगा कर में देखो
सपने बुनते बीतते, बाल युवा के आज
फिर से आया है भला, देखो नया सुराज
देखो नया सुराज, मित्र हम छोटे छोटे
मन में है उत्साह, तनिक भी ना है खोटे
ठगा बहुत ही बार, कहाते थे जो अपने
क्या पूरा कर पाय, दिखाये थे जो सपने
(संशोधित)
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आदरणीय सुशील सरनाजी
दोहा छंद
१.
आज़ादी का पर्व है , आज़ादी के रंग
पाँचों मुख पर खिल रही ,इक स्वाधीन उमंग
२.
फर्क नहीं है धर्म का, सब मिल रहते संग
भूल गए सब प्रेम में , कैसी होती जंग
३.
वीरों के बलिदान का ,सदा करो गुणगान
कभी तिरंगे का न हो ,भूले से अपमान
४.
भारत की इस भूमि को, चूमो बारम्बार
हर कतरे से खून के , हुआ धरा शृंगार (संशोधित)
५.
आज़ादी में खिल रहे ,चेहरे सब इक सँग
लिये तिरंगा हाथ में, खुशियों के हैं रंग
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Tags:
आदरणीय सौरभ जी छंदोत्सव ५२ की समस्त रचनाओं के संकलन का इतनी त्वरित गति से मंच पर प्रकाशित करने हेतु आप की कार्यशीलता के प्रति मुझे सर झुकाने को प्रेरित करती है। आपको मेरा सलाम। मेरे दोहों को संकलन में स्थान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सुशील सरनाजी
आप अपनी प्रस्तुति के रंगीन पद को दुरुस्त करने का प्रयास करें, आदरणीय. कार्यशाला सह आयोजन का यही उद्येश्य है.
सादर
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी -आपके द्वारा किये गए रंगीन पद को मैंने इस तरह दुरुस्त किया है -यदि आपको ये सही लगे तो कृपया इसे प्रतिस्थपित करने का श्रम कर अनुग्रहित करें। धन्यवाद।
मिट्टी अपने वतन की , चूमो बारम्बार
हर कतरे से खून के , हुआ धरा श्रृंगार
इस मंच के छन्द विधान समूह में दोहा पर जो आलेख है उसे एक बार देख जाते न. फिर आप स्वयं कहेंगे कि आपके सुधरे छन्द में और कहाँ सुधार की गुंजाइह बन रही है आदरणीय.
सादर
आदरणीय सौरभ जी बहुत सुंदर त्रुटि है जो हमेशा याद रहेगी .... आपके आलेख के अनुसार आदि चरण का चरणान्त २१२ (रगण) या १११ (नगण ) से होना चाहिए जो नहीं हो रहा था … आपके आलेख के बाद इसे मैंने पुनः दुरुस्त किया है अब शायद ठीक होगा .... आपके मार्गदर्शन का हृदयतल से आभार सर … कृपया स्नेह बनाये रखें।
भारत की इस भूमि को, चूमो बारम्बार
हर कतरे से खून के , हुआ धरा शृंगार
आदरणीय सुशील सरनाजी, देखिये ! स्वाध्याय का फल कितना प्रभावी हुआ करता है ! यही हम आपके संशोधन वाले मेसेज में कह देते तो यह, संभव है, आयी-गयी बात हो जाती. अब दोहा विधा का यह विन्दु आपको कभी नहीं भूलेगा, ऐसा विश्वास है.
सादर
अपनी प्रस्तुति पर इतनी सारी लाल लाइनें देखकर स्कूल की याद आ गई , अगली बार आपकी कलम की लाल स्याही मेरी रचना पे कम खर्च हो ऐसा प्रयास करूंगी , मेरे प्रयास को संकलन में स्थान देने के लिए ह्रदय से आपका आभार आ० सौरभ जी
बेहतर होता आदरणीया प्रतिभाजी, आप इन्हीं रंगीन हुई पंक्तियों को दुरुस्त करने का अभ्यास करतीं. इस संकलन मूल उद्येश्य यही है. अगली बार आप जो करेंगी वो अभी की दुरुस्तगी का ही प्रतिफल होगा.
सादर
आ० सौरभ जी , मैंने लाल पंक्तियाँ कुछ दुरुस्त करने की कोशिश की है. कृपया देखें कितनी सही हैं
चलो सभी मिल कर कहें ,भारत मेरी शान / पहला दोहा दूसरी पंक्ति
काबा काशी नाम से ,रब के ही दो धाम दूसरा दोहा
टोपी कोइ भी पहनो ,रक्खो ऊंचा ईमान
बार बार देता दगा ,खाता है पर मार चौथा दोहा दूसरा पद
इस दिन पर होगा हमें ,सचमुच उस दिन नाज़
भूखा ना कोई रहे ,हर घर हो आबाद छठा दोहा
आदरणीय प्रतिभाजी, आप सभी रंगीन पंक्तियों को दुरुस्त करने का प्रयास करें. आपका प्रयास बहुत ही विन्दुवत है.
टोपी कोई भी पहनो.. क्यों सही नहीं है. इसकी व्याख्या इसी पोस्ट की टिप्पणी में आदरणीय सुशील सरनाजी ने की है. आप उसको देख जाइये.
इस दिन पर होगा हमें ,सचमुच उस दिन नाज़
भूखा ना कोई रहे ,हर घर हो आबाद
तुकान्तता क्यों गडबड हो रही है ? नाज और आबाद की तुकान्तता सही नहीं है
आ० सौरभ पाण्डेय जी , मै अपनी पूरी रचना संशोधित पदों के साथ आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रही हूँ
अड़सठ का लो हो गया ,मेरा देश महान
चलो सभी मिल कर कहें ,भारत मेरी शान .....- संशोधित पद
काबा काशी नाम से ,रब के हैं दो धाम
टोपी कोई भी रखो ,हो ऊँचा ईमान .........दोनों पद संशोधित हैं
अजब गजब इस देश के ,अजब गजब हैं रंग
दांत तले उंगली दिये,दुश्मन भी हैं दंग
साजिश रचने में लगा ,दुश्मन सरहद पार
बार बार देता दगा ,खाता है पर मार ..........संशोधित पद
घर के अन्दर भी छिपे ,दुश्मन कुछ हैं आज
दिल को जिनके चीरता ,प्रेम प्यार का साज़
इस दिन पर होगा हमें ,बस उस दिन ही नाज़
कोई ना भूखा रहे ,बन जाय राम राज ........दोनों पद संशोधित
आदरणीया प्रतिभाजी, आपकी संलग्नता आश्वस्तिकारी है.
अजब गजब इस देश के ,अजब गजब हैं रंग
दांत तले उंगली दिये,दुश्मन भी हैं दंग
इसे ऐसे देखें -
अजब गजब इस देश के ,अजब गजब हैं रंग
दाँतों में ले उंगलियाँ, दुश्मन भी हैं दंग
बन जाय राम राज .. यह चरण कुल मात्रिकता की दृष्टि से सही है. परन्तु, दोहे के सम चरण में अपेक्षित शब्द-संयोजन नहीं हो पाया है. आप दोहे पर लिखे आलेख को देख जाइये.
मैं अगले संशोधित स्वरूप की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
सादर
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