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’’मन और मन की अवधारणा’’

(प्रस्तुत प्रसंग ‘मन और मन की अवधारण‘ विभिन्न ज्ञानवाणी व धार्मिक पुस्तको को पढ़ने से जो तत्व सार मैंने ग्रहण किए उन्ही को अपनी समझ से व्याख्या करते हुए विस्तार दिया है। पाठकों से निवेदन है कि यदि कहीं कोई असंगत बात अथवा तथ्य में कोई चूंक लगे तो कृपया अपना सुझाव अवश्य देने की कृपा करें।)

मन और मन की झूठी अवधारणाएं अलख निरंजन है अर्थात् काल ही है। जीव इन्ही बंधनों में जकड़ा हुआ है। कोई इनकी परख नहीं करता है। यद्यपि कि जीव का शुध्द एक रूप कर्म बंधनों से सर्वथा परे और असंग है फिर भी जीव अपने सत स्वरूप को भूलकर ही बंधनों का व्यवहार बना रखा है और जगत के आवागमन में नशाया रहता है।
मनुष्य स्वयं के कल्याण के लिए बृहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संयास तथा इनसे भी श्रेष्ठ हंस एवं परंहंस ये छः आश्रमों को स्थापित करके इनमें योगी, जंगम, सेवड़ा, सन्यासी, दरवेश और ब्रहमण इन छः दर्शनों का अध्ययन व मनन करता है। इन छः दर्शनों के छः रस यथा भंग क्रमशः महीनाद, निरंजन, तत्वनाम, सोअहं, हूं अल्ला हूं और ऊॅं का जाप और इनके द्वारा पिण्ड यथा शरीर से उठकर ब्रहमाण्ड में जाना, आकाशवत परमात्मा शिव से मिलना, आलोकाकाश चंद्रशिला में पहुंचना, अहं बृहमस्मि, वायु में वायु मिल जाना और अद्वैत परमात्मा। इन छः सिध्दान्तों का निरूपण करता है।
चारों वेद रूपी चार वृक्ष हैं और इनकी छः शाखाएं....1 शिक्षा, 2. कल्प, 3.व्याकरण, 4.निरूक्त, 5.छन्द 6.ज्योतिष की रचना हुई है। इसके बाद भी जगत में इतनी विद्याओं का प्रवर्तन हुआ। जिनका किसी एक व्यक्ति को जानना समझना तो असम्भव है ही बल्कि इनकी गणना करना भी कठिन कार्य है। इसके आगे भी आगम ग्रन्थों व तन्त्र शास्त्रों का विचार है। इन सबों में उलझकर ही जीव लकीर को पीटते-पीटते स्वयं के स्वरूप को भूल जाता है। और तब जीव कल्याण के लिए ही जप, तप, तीर्थ, व्रत, पूजा, दान, पुण्य तथा दूसरे अन्य अनेक कर्म करते हुए अपने जन्म को बिगाड़ लेता है।
कहने का तात्पर्य है कि विषय भोगों में अत्यन्त अल्प सुख है। वह भी भ्रमपूर्ण और उसके परिणाम में आदि से अन्त तक दुःख ही दुःख और केवल दुःख ही है। अतएव सांसारिक जीव उपरोक्त मान्यताओं के भ्रम बंधनों मे ही बंधे रहते हैं।
इस प्रकार जीव को सुख के सच्चे और झूठे स्वरूप की परख करनी चाहिए। जीव अज्ञानवश विषयों में सच्चा सुख मानकर उनमें उसी प्रकार प्राण गंवा देता है जिस प्रकार पतंगें रूपासक्ति वश आग की लौ में कूद कर मर जाते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह इन्द्रिय परायण न होकर विवेकी बने और आत्मा-अनात्मा का विचार करे तथा सारे अनात्म विस्तार का मोह छोड़कर उसे सद्गुरू अर्थात सच्ची आत्मा की आवाज सुनना चाहिए। आत्म से आत्मा को परखकर उसी के ध्यान में मगन रहना चाहिए, शेष सभी अनात्मा हैं और उनका सम्बन्ध भी झूठा है क्योंकि जब अपने स्वरूप.’आत्मा’ के अलावा बाकी सभी ’अनात्मा’ का मोह त्याग दिया जाता है, तब जीव सारे दुःखों से मुक्ति पा जाता है।
ऐसे बहुत से गुरू हैं जो परमात्मा को स्वयं की आत्मा से परे मानते हैं और वे अपने शिष्यों को भी यही उपदेश देते हैं। जिस प्रकार चकोर चिडि़या जैसे चन्द्रमा का ध्यान करती है, ठीक वैसे ही तुम परमात्मा का ध्यान करो। इस प्रकार साधक अपने गंतव्य से विमुख होकर वह अपने मन की अवधारणाओं अर्थात कल्पनाओं से परमात्मा का एक से अनेक रूप गढ लेते हैं और उसी का ध्यान करते हैं। इस प्रकार उक्त शिक्षा, ज्ञान के विस्तार प्रणाली द्वारा मनुष्य की बुध्दि ही उलट कर दी गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरू के पास पहुंच कर मनुष्य अपने विवेक को परखना ही छोड़ देता है अर्थात वह संशयात्मा बन कर ही रह जाता है।
जाग्रत, सोवत, स्वप्न और तुरीय ये चारों अवस्थाएं स्वप्नवत है क्योंकि ये सब मनोमय के भीतर उपजते हैं, परन्तु जीव यह नही समझ पाता है कि अपनी आत्मा से अलग कल्पना में गढ़ा गया परमात्मा क्या मनोमय के भीतर ही स्थित नहीं है। असत्य को असत्य समझना और उसे असत्य ही कहना बड़े साहस का काम है। प्रायः लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार भी वे अविवेक और कायरता पूर्वक चलकर अपने सत्य स्वरूप को भूल जाते हैं। संसार में प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु केवल भौतिक होती है और वह इक दिन बिछड़ भी जाती है, किन्तु परमात्मा एक बार मिलता तो फिर वह बिछड़ता नहीं है। आत्मा निज स्वरूप चेतन है और आप जहां होते हो, वह वहीं ही होता है। आप जिसे भी देखेंगे उसमें उसकी ही सत्ता है। जहां तक देखोगे वहां तक उसी की नजरें है, जैसा पुट बोलोगे वैसा ही सत्य प्रकट होता है, किसी अन्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए ही। क्योंकि वह तो आपके ही मनोमय में उपजता है, उसी ’मनोमय’ में ही रहता है, परखता है और व्यवहार करता है। किन्तु जब हम निज स्वरूप के लिए ही देखते, बोलते और समझते हैं, तो यह स्वाभाविक ही है कि कोई भी मनुष्य स्वयं को मूर्ख कहलाना पसन्द नहीं करता है। अथ हम सहजता से परमात्मा की परख कर लेते हैं। क्रमशः........2......

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