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सृष्टि की रचना कर ईश्वर ने मुसीबत मोल ले ली: राज़ नवादवी

क्या सृष्टि की रचना कर ईश्वर ने एक बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले ली? महान संतों की बात मानें तो ठीक-ठीक यह बता पाना संभव नहीं है कि ब्रहामंड में आत्माओं की संख्या (exact number of souls) कितनी है और उस पर सत्य ये कि नई आत्माओं के प्रादुर्भूत होने की प्रक्रिया अभी भी जारी है. महान संतों का यह भी कथन है कि यह बता पाना संभव नहीं कि सृष्टि की वास्तिवक उम्र क्या है. अर्थात्, भावातीत ईश्वरीय सत्ता में प्रारम्भिक क्षोभ (प्रथमतः) कब हुआ, यह सही-सही बता पाना असंभव है.

 

यदि ईश्वर एवं जगत की राज-योगीय अवधारणा को देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि अनंत रूपों एवं संख्याओं में व्यक्त चराचर जगत वस्तुतः ईश्वरीय सत्ता ही है चाहे बात योनि-शीर्ष मनुष्य की की जाए अथवा विकास-क्रम में अवस्थित निम्न से निम्नतर एवं निम्नतम प्रजातियों की. अर्थात्, सृष्टि के समय एवं स्वयं को जानने हेतु उठे प्रारम्भिक क्षोभ के पश्चात अस्तित्व में आई तमाम सत्ताएं ईश्वर का ही प्रक्षेपित रूप हैं और जिनसे माया-प्रछन्न जगत का परिसीमन हुआ है. इस तरह, भावातीत एवं अचेतन ईश्वर एवं उसके प्रक्षेपित रूप में फर्क सिर्फ चेतना का है क्योंकि सृजन-पूर्व के प्रारम्भिक क्षोभ के मूल में सचेतन अवस्था में आत्मज्ञान की चाह ही थी. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भावातीत ईश्वर अचेतन, अद्वैत, एवं सृष्टिविहीन है जबकि प्रक्षेपित जगत सृष्ट, द्वैत का पर्याय, एवं चेतन है.

 

तो इस तरह बात यहाँ तक आती है कि चेतना ही माया, बंधन, सृष्टि, द्वैत, योनि-जाति-प्रजाति, इत्यादि का कारण है अथवा सचेतनता ही दोनों के मध्य का विभाजकीय कारक है. और यह भी कि माया-आबद्ध ईश्वर के सभी प्रक्षेपित रूपों में स्वयं ईश्वर ही बद्ध है और क्रमिक विकास एवं व्युत्क्रम (involution/प्रतिलोमन) के सभी अनुभवों एवं आनुषांगिक (attendant) सुखों व दुखों को स्वयं ईश्वर ही भोग रहा है.

 

अब समस्या कहाँ आती है? समस्या यहाँ पे आ खड़ी होती है कि अनंत ईश्वर की माया भी अनंत हो जाती है: चूँकि आत्माओं में विभक्त ईश्वर की संख्या का आकलन एवं प्रारम्भिक क्षोभ के उद्भव काल का आरेखन संभव नहीं है, सभी आत्माओं के निर्विकार ईश्वर में प्रतिलोम आगमन (home-comin/विसर्जन) एवं सृष्टि के सम्पूर्ण समापन के काल का भी आकलन असंभव है.

 

अर्थात् काल से निरापद (immune) ईश्वर के प्रारंभिक क्षोभ की तरह व्यक्त सृष्टि में विभक्त उसकी मायास्वरुप सत्ता भी काल से निरापद हो जाती है और किसी न किसी रूप में माया का बंधन अनंत हो जाता है.

 

मैं अपने पालतू कुत्तों अथवा अन्य जीव-जंतुओं के बारे में जब भी गंभीरता से विचार करता हूँ तो बड़ी तीव्रता से महसूस करता हूँ कि हमारी तरह इनमें कैद ईश्वर कितना विवश और असहाय है ...और इनके मोक्ष का सवेरा कब आएगा !  

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, मंगलवार प्रातःकाल ०८.५९ बजे, दिनांक १७/०९/२०१३ 

‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’    

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