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          गीता के द्वितीय अध्याय का प्रारंभ  अर्जुन के उदार एवं वदान्य चरित्र  के प्राकट्य से हुआ है I कौरव सेना पर आक्रमण  करने की असमर्थता और उसकी विरक्ति का मनोविज्ञान  प्रथम अध्याय में ही स्पष्ट हो चुका था  I अब अर्जुन को लगता है कि भीष्म और द्रोण  जेसे युग पुरुषो पर आक्रमण कर  उनका बध  करने से  "भैक्ष्यमपीह लोके श्रेयः " 2/5  की स्थिति उत्तम है वैसे भी जिन भोगो की प्राप्ति भयावह संग्राम  और भीषण रक्तपात पर अवलंबित हो उसके रक्तरंजित होने में कदाचित कोई संदेह नहीं है I अतः  'भोगानरुधिरप्रदिग्धान' 2 / 5 की अवधारणा और उसके प्रति अर्जुन की सहज अस्वीकृति  नितांत स्वाभाविक है  I मजे की बात यह है कि  अर्जुन विनम्र भाव से इसे अपना ' कार्पण्य दोष' कहता है I  उसे अपनी कर्तव्यविमूढ़ता  का अहसास है और वह प्रपत्ति  भाव से प्रभु की शरण में जाने को आतुर है  I

          प्रत्यक्षतः कृष्ण अर्जुन के सखा एवं  मित्र है I वे परस्पर रिश्तो की सुमधुर डोर से भी बंधे है I लोक् द्रष्टि से उनके बीच सम-भाव  होना स्वाभाविक है I परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है Iकृष्ण का अलौकिक  स्वरुप भले  ही अभी तक अर्जुन के समक्ष पुर्णतः प्रकाशित  नहीं हुआ है, पर अर्जुन को उसका आभास अवश्य है I  वह अपने जीवन में कई बार कृष्ण के अजगुत करिश्मो को देख चुका है  I यही कारण है कि वह अपने व्यामोह का सारा भार कृष्णार्पित कर स्वयं भार मुक्त होना चाहता  है I उसे युद्धस्थल  मे  अनायास उत्पन्न अपने  कायरतापूर्ण निर्णय  एवं किकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से उबरना है  I इसके लिए कृष्ण से बढ़कर  अन्य कोई अवलंबन, विकल्प अथवा संबल  उसके पास नहीं है I वह एक आर्त्त भक्त की भांति पुकार उठता है -

                                               यच्छ्रेयः  स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे I

                                        शिष्यस्तेsहम  शाधि मां त्वां  प्रपन्नम II  2 /7

          अर्जुन द्वारा कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण  द्वितीय अध्याय की प्रस्तावना मात्र है  I  तदनंतर कृष्ण जैसे ही  गुरु  के वरेण्य पद पर आविर्भूत होते है ,गीता का मुख्य प्रतिपाद्य  धीरे धीरे मूर्त स्वरुप धारण करने लगता है I  गीता का यह अंश इतना महत्वपूर्ण  और  प्रभावशाली है कि विद्वानों को  इसे गीता का सार मानने में कोई संकोच नहीं हुआ I कृष्ण ने प्रथमतः  'साँख्य योग' के अंतर्गत आत्मा की अमरता  का स्वरुप स्पष्ट किया है  I तदुपरांत  कर्मयोग के अंतर्गत निष्काम कर्म की शिखरस्थता को प्रतिपादित किया है  I अध्याय के अंत में उन्होंने अर्जुन को  'स्थितप्रज्ञ '  बनने  की शिक्षा  देते हुए उसके लक्षणादि पर प्रकाश डाला है I

          गीता का साँख्य कपिल मुनि के विश्रुत साँख्य शास्त्र से भिन्न है I  इसमें प्रकृति और पुरुष का आलंबन लेकर सृष्टि के क्रिया कलापों के नियमन का प्रयास नहीं हुआ है  I गीता का आत्म विषयक दर्शन छोटा और  चुटीला है  i इसकी स्थिति बिंदु में समुंद अथवा गागर में  सागर जैसी है  I आत्मा के अमरत्व और उसके विशिष्ट गुणों का उल्लेख प्रायशः अनेक  दर्शनों एवं उपनिषदों में  हुआ है i किन्तु गीता में  इसे निगूढ़ न बनाकर बड़े सहज ढंग से आसान उदहारर्णो द्वारा समझाया गया है I  देह से पृथक देही की नित्यता की ओर संकेत  करते  हुये कृष्ण स्पष्ट  कर देते है कि परमात्मा और आत्मा  दोनों ही समानधर्मा है I किन्तु  'न त्वेवाहं जातु नाशं  न त्वम् नेमे जनाधिपाः ' 2 /12  में जीवात्मा और आत्मा  का पार्थक्य इंगित नहीं होता जबकि कपिल मुनि के दर्शन में  यह पृथकता  स्पष्ट है  I गीता के अनुसार आत्मा का अस्तित्व पूर्व में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा  I शरीरधारी आत्मा अर्थात देह में जैसे धीर- धीरे बाल्यावस्था, तरुणावस्था  और वार्धक्य का अनुगमन होता है वैसे ही मृत्यु इसका अगला चरण अथवा उपसंहार है I जिस शरीर के लिए लोग संतापं करते  है वह 'असत ' है I  इसके विपरीत केवल चिर अविनाशी  आत्मा ही' सत' है I  विडंबना यह है कि संसार इस 'सत' से अनभिज्ञ रह्र्ता है  और 'असत' के लिए नाना  प्रकार के क्रंदन ' विलाप' शोक और अश्रुपात करता है i सामान्य जन भी यह तो जानते ही है कि एक दिन देह का मिटना तय है I यह अवश्यम्भावी और अपरिहार्य है , फिर भी उनके  ह्रदय में  'सत' का उदय नही  होता I साँख्य -दर्शन कहता है परमात्मा  एक और जीवात्मा  अनंत  है और इन सभी का अमरत्व असंदिग्ध है  I गीता में भी  कहा गया है - 

                                          न जायते  म्रियते  वा कदाचिन्नायं  भूत्वा भविता या न भूयः

                                          अजो  नित्यः  शाश्वतोsयं पुराणों  न हन्यते हन्यमाने शरीरे I  2 /20  

 

   मौलिक एवं अप्रकाशित                                                     

 

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