- बाबा ! मैंने अनेक जगह सुना और पढ़ा है कि जो विद्वान है उसे ही पंडित कहते हैं और ब्राह्मण लोग तो जन्म से ही पंडित कहलाते हैं , इसमें क्या सच्चाई है? रवि ने पूंछा।
= बाबा बोले , संस्कृत में एक धातु अर्थात क्रिया है " पंडा " जिसका मतलब है 'मैं ब्रह्म हूँ इस प्रकार की बुद्धि हो जाना ।'( अहम् ब्रह्मास्मीति तामितः प्राप्तः बुद्धि सा पंडा ) इसीलिए वे सज्जन जिन्होंने अपनी बुद्धि को वेदोज्ज्वला कर लिया है अर्थात यथार्थ ज्ञान से बुद्धि को उज्जवल बना लिया है या उसको ब्रह्ममय कर लिया है, "पंडित " कहलाते हैं। अतः वे जो इस प्रकार की बुद्धि को प्राप्त करने का लगातार अभ्यास कर रहे हैं "पाण्डेय" कहलाते हैं। ऋषियों ने प्रथम वेद में इसे "वेदोज्ज्वला बुद्धि " कहा है। इसलिए एक वेद के ज्ञाता को "पाण्डे " कहा जाता है। अपने बुंदेलखंड में किसी को अपूर्ण ज्ञान हो और यदि वह बहुत प्रदर्शन करता दिखता है तो कुछ अधिक जानकारी रखने बाले लोग उसे दुत्कारते हुए कहते है " बड़े जानपाड़े बने फिरते हो। " सुना है या नहीं ?
- नंदू ने कहा , तो फिर विद्वान किसे कहेंगे ?
= बाबा बोले, संस्कृत में एक क्रिया है विद। इसका अर्थ है जानना, इसीलिए जानकारी के संग्रह को वेद कहते हैं और जिनके पास ज्ञान विशेष होता है वे उस क्षेत्र के विद्वान कहलाते हैं। हम विद्वान और पण्डित शब्दों का उपयोग एक समान अर्थों में करते हैं जो गलत है।
- रवि, नंदू और चंदू एक साथ बोल पड़े , ब्राह्मण लोग प्रायः अपने को पंडित लिखते हैं और कहलाना पसंद करते हैं तो क्या यह उचित है ?
= बाबा ने कहा , किसी को भी अपने नाम के आगे या पीछे कुछ भी लिखने की पाबन्दी नहीं है ,परन्तु ब्रह्म का अर्थ है 'ब्रहत ' (ब्रहत्त्वात ब्रह्म ), अर्थात जो बहुत बड़ा है।
दूसरा अर्थ है ( बृंहणत्वात् ब्रह्म ) अर्थात जिसके संपर्क में आने वाला 'ब्रहत' हो जाता है। इसलिए ब्राह्मण का अर्थ हुआ जो ब्रह्म को भलीभांति जानता पहचानता है।
- रवि बोला तो यह दुबे, तिवारी, चौबे -- सब क्या हैं ?
= बाबा बोले, काल क्रम के प्रभाव में जैसे जैसे ज्ञान बढता गया उसे वेदों के रूप में क्रमशः ऋक , यजु, अथर्व और साम ये नाम दिए गए। इनका ज्ञान जिन्हें होता गया वे विद्वान् यदि एक वेद के ज्ञाता हैं तो उन्हें पाण्डे , दो वेदों के ज्ञाता हैं तो द्विवेदी या दुबे , तीन वेदों के ज्ञाता हैं तो त्रिवेदी या तिवारी और चार वेदों के ज्ञाता हैं तो चतुर्वेदी या चौबे पदनाम से सम्मानित किये जाने लगे। ज्ञान के बहुत अधिक हो जाने के कारण और लिपि का अनुसन्धान न होने के कारण वेदों को लिखा नहीं जा सका फिर लिपि का ज्ञान हो जाने के बाद भी रूढीवादी परंपरा के प्रभाव में उन्हें लिखने का साहस नहीं जुटाया जा सका । महर्षि अथर्वा ने अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर विरोध होने के बाद भी वेदों को लिखने का साहस जुटाया। अथर्वा के कार्यकाल तक तीन वेद ही थे बाद में वेदव्यास ने इनके पद्य भाग को अलग कर चौथा वेद, साम बनाया और चारों को व्यवस्थित किया।
चंदू बोली , बाबा! जब लिपि नहीं थी तो इतना अधिक ज्ञान संचित रखने और संरक्षित करने की क्या विधियां थीं?
= बाबा ने बताया कि लिपि के आभाव और ज्ञान की अधिकता के कारण विद्वानों ने यह नियम बनाया कि ' आवृत्तिः सर्व शास्त्रानाम वोधादपी गरीयसी ' अर्थात चाहे समझ में आये या नहीं याद कर लो। इस प्रकार वेदों को याद करके अनेक विद्वान पांडे , दुबे आदि बहुत हो गए पर वे याद की गयी विषय वस्तु को ठीक तरह से समझाने में सक्षम नहीं थे. इसलिये व्याकरण में पारंगत लोगों को दुबे तिवारी आदि से सुनी गयी वेद ऋचा को समझाने हेतु जिन विद्वानों को लाया गया वे त्रिपाठी कहलाये। ये पहले सुनते थे फिर अन्वय करते थे फिर जनता को उसका अर्थ समझाते थे। एक ही विषय वस्तु को तीन बार पढ़ने के कारण इन्हें त्रिपाठी पदनाम दिया गया।
=== इस मूल परिभाषा के अंतर्गत आने वाले जो भी सज्जन हों कृपया बताएं। ====
"मौलिक व अप्रकाशित"