विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति का कारण
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मानव की जन्मजात भय-मनोविज्ञान ही विभिन्न धर्मों के उद्गम का श्रोत है। विभिन्न प्राकृतिक प्रपंचों जैसे पहाड़, नदियाॅं, समुद्र जंगल, विद्युत की चमक और गरज आदि से भयभीत हो उन्हें संतुष्ठ करने के उद्देश्य से मनुष्यों ने उनमें पूज्य भाव निर्धारित कर धार्मिक संबंध स्थापित किये। यह धार्मिक अभ्यास आत्मरक्षण पर आधारित था जिसमें भिन्न भिन्न स्वभाव के देवी देवताओं को उनके गुणगान करने या तथाकथित पूजा से संतुष्ठ करने के काल्पनिक विश्वास और उपाय इन प्रपंचों के संपर्क में आने पर बनाये गये। इस प्रकार कोई धर्म सूर्य, कोई चंद्र और कोई पत्थरों की आकृतियों पर केन्द्रित होते गये।
इसके बाद लोगों ने उन्हीं पर आधारित दार्शनिक व्याख्यायें भी बना लीं। इस के बाद यह दार्शनिक तर्क आया कि उस अनन्त सत्ता को उसके सीमित रूपों में पूजते हुए पाया जा सकता है। अतः मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों का निर्माण कर उन्हें पवित्र स्थान घोषित किया गया और अनेक प्रकार के देवी दवताओं को पूजने की प्रबल विचारधारा को विकसित किया गया जिसमें विवेकपूर्ण भावनाओं को नकार दिया गया। जैसे, गाय को दूध देने के कारण, माता की तरह पूज्य भाव बच्चों के मन में जन्म से ही भर दिया जाने लगा जबकि यह तर्क सुनने के लायक भी नहीं माना गया कि भैंस भी दूध देती है वह भी गाय से अधिक, तो उसे गाय के बराबर महत्व क्यों नहीं दिया जा सकता?
विज्ञान के छात्र सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के कारणों को समझते हैं और जानते हैं कि तथाकथित राहु और केतु नामक पौराणिक राक्षस सूर्य और चंद्रमा को खा नहीं सकते क्योंकि वे तो केवल छाया और प्रतिच्छाया हैं परंतु चूंकि जन्म से ही यह सिखाया गया होता है कि राहु और केतु नाम के राक्षसों ने सूर्य और चंद्रमा को अपने मुंह में दबा लिया है वे वैज्ञानिक तथ्यों को भूल जाते हैं। इसे संकट काल मानते हुए वे ग्रहण के समय गंगा नदी में डुबकी लगाने दौड़ने लगते हैं, यह अंधविश्वास का ही परिणाम है। जब भौतिक भावना तार्किक तरंगों से प्रबल होती हैं तो इसे धार्मिक कट्टरता या अंधविश्वास कहते हैं।
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