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बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२/२१२/२१२/२१२
******
घाव की बानगी  जब  पुरानी पड़ी
याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१।
*
झूठ उसका न जग झूठ समझे कहीं
बात यूँ अनकही  भी  निभानी पड़ी।२।
*
दे गये अश्क  सीलन  हमें इस तरह
याद भी अलगनी पर सुखानी पड़ी।३।
*
बाल-बच्चो को आँगन मिले सोचकर
एक  दीवार   घर   की  गिरानी  पड़ी।४।
*
रख दिया बाँधकर उसको गोदाम में
चीज अनमोल  जो  भी पुरानी पड़ी।५।
*
कर लिया सबने ही जब हमें आवरण
साख हमको  सभी  की बचानी पड़ी।६।
*
रोकना था उसे  दो घड़ी और फिर
थी सरल बात वह भी घुमानी पड़ी।७।
*
स्वप्न तक उसने जब बेदखल कर दिये
तब  रियासत  स्वयं  की  बनानी  पड़ी।८।
**
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on Sunday

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल आपको अच्छी लगी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है। स्नेह के लिए हार्दिक आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on Sunday

आदरणीय लक्ष्मण भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है , दिल से बधाई स्वीकार करें 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 3, 2025 at 9:17pm

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन एवं स्नेह के लिए आभार।

आपका स्नेहाशीष बना रहे यही आकांक्षा है। सादर...

Comment by Chetan Prakash on September 2, 2025 at 6:32pm

छोटी बह्र  में खूबसूरत ग़ज़ल हुई,  भाई 'मुसाफिर'  !

" दे गए अश्क सीलन हमे इस तरह

याद  भी अलगनी पर सुखानी पड़ी"

 बहुत खूबसूरत शे'र हुआ  !

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