दीवान-ए-ग़ालिब की ही तरह उदाहरणार्थ चुने गए शेरों के लिए कोशिश ये रही है कि दुष्यंत एक मात्र ग़ज़ल 'साये मे धूप' की हर ग़ज़ल से कम से कम एक शेर अवश्य हो. इस तरह ये 'साये मे धूप' का अरूज़ी वर्गीकरण भी है.
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी ( बह्र-ए-मीर )
फ़अ’लु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़’अल
21 121 121 121 121 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चलकर इनका क्या होगा
मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ
हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा
चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता
चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊल मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक
मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की
दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला
हज़ज़ मुसद्दस सालीम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी
हज़ज़ मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं
हवा में सनसनी घोले हुए हैं
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो
क़ुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं
रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख
ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं
इस अहाते के अँधेरे में धुआँ-सा भर गया
तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
इस क़दर पाबन्दी-ए-मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार
रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लफ़्ज़ एहसास-से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है
आप दीवार गिराने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है
ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है
रमल मुसम्मन सालिम मजहूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ा
2122 2122 2122 2
सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
बेज़ुबां सूरत, जुबानों तक पहुंचती है
धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है
मैं तुम्हें छू कर जरा सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है
रमल मुसम्मन मश्कूल सालिम
फ़इलातु फ़ाइलातुन फ़इलातु फ़ाइलातुन
1121 2122 1121 2122
ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे
तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ
तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ
रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं
और नदियों के किनारे घर बने हैं
चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं
मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही
अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा-सी तो लीजिए
मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और
लेकर उमंग संग चले थे हँसी-खुशी
पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया
नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
मुज्तस मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन फ़ाइलातुन मुस्तफ़इलुन फ़ाइलातुन
2212 2122 2212 2122
फिर धीरे धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है
वातावरण सो रहा था आँख मलने लगा है
मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो
वे कह रहे हैं ग़ज़ल गो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए
बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई
सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
खफ़ीफ़ मुरब्बा सालिम मख़्बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन
2122 1212
आइये आँख मूँद लें
ये नज़ारे अजीब हैं
सिलसिले ख़त्म हो गए
यार अब भी रक़ीब है
आपने लौ छुई नहीं
आप कैसे अदीब हैं
उफ़ नहीं की उजड़ गए
लोग सचमुच ग़रीब हैं
खफ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
आज वीरान अपना घर देखा
तो कई बार झाँक कर देखा
हमने सोचा था जवाब आएगा
एक बेहूदा सवाल आया है
ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
जिस तबाही से लोग बचते थे
वो सरे आम हो रही है अब
अज़मते-मुल्क इस सियासत के
हाथ नीलाम हो रही है अब
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
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आ. अजय जी,
दुष्यंत के एकमात्र ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप" का चर्चा छेड़ कर आपने बहुत अच्छा किया ..
कुछ पर आज चर्चा की शुरुआत करता हूँ ..
पहली ग़ज़ल बह्र-ए- मीर में बताई गयी है जो हिंदी की मात्रिक बहर है ...जिस में अक्सर मेरी ग़ज़लों पर मात्रा क्रम १२१२, २१२१, आदि लेने पर नाक भौ सिकोडी जाती है ...इस ग़ज़ल में ये भरपूर मात्रा में है ..साथ ही मतले के दोनों मिसरों में तनाफुर है ... अंतिम शेर में रदीफ़ बदल दी गयी है ...
1)
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे
हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत
हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे
थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो (१२१२)
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे (१२१२)
उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे (१२२१), (२१२१)
रह—रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए (१२१२)
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे. (रदीफ़?)
.
2) दूसरे शेर की ग़ज़ल
.
अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ... (रदीफ़ में तानाफुर)
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ .... (क़ाफ़िये में हन की क़ैद - ईता दोष)
ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ
अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ .... (अन के साथ ण का प्रयोग.. वो भी तब जब आप उर्दू दां नहीं हिंदी वाले हैं?)
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ
समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ.
.
3) इस पर अधिक टिप्पणी नहीं करूँगा..
बस अनुरोध है कि पाठक इसी शेर के दोनों मिसरों की तक्तीअ कर लें... दुष्यन्त पता चल जायेंगे ..
221 1222 221 1222
आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं
इस राख(२२१) में पिन्हा है(१२२२) अब भी व (२२१)ही शोला (१२२).. एक दीर्घ खा गए हुज़ूर
.
4) इस ग़ज़ल के क़ाफ़ियों पर गौर कीजिये साहेबान
.
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । उआ .. अआ
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । उआ
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ । उआ
क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ । उआ
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला । अला
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ । उआ
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ । उआ
इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ । इयाँ
.
5) इस ग़ज़ल के भी क़ाफ़िये देखिये
.
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। अलनी
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। इलनी ?
.
6) इस ग़ज़ल में कहाँ क़ाफ़िया आरे होगा और कहाँ आरें ये पाठक स्वयं तय करे.. मेरे बस के बाहर है
.
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख
ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख
राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.
.
7) इस मतले के रदीफ़ पर गौर फ़रमाइए ..
.
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं.... (बहुवचन) होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं.... (एकवचन) होगी नहीं
.
8) इस ग़ज़ल (?) में मतला लापता है .. रदीफ़ फेंक दीं और फेंक दी के बहुवचन और एकवचन के बीच उलझा हुआ है
तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं
हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं
जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं
तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी (??)
इस अहाते के अँधेरे में धुआँ—सा भर गया
तुमने जलती लकड़ियाँ शायद बुझा कर फेंक दीं
.
9) इस ग़ज़ल के आख़िरी शेर की तक्तीअ की जाए ..
.
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है.
.
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है..
.
10) इस ग़ज़ल के कुछ मिसरे देखिये बह्र के हवाले से
.
देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली
.
तू परेशान है, तू परेशान न हो (पाठक स्वयं तक्तीअ करें)
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली
.
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली (तन्हाई २२२ या तन्हाई १२२??)
.
11) बह्र
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है.. इस मिसरे में ही के कारण बहर की बारह बज गयी
.
12) ये सबसे फेमस शेर है शायद
.
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता (मिसरा बे-बह्र है)
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो... ऊला में हो नहीं सकता की जगह नहीं हो सकता करने से बह्र सधेगी..
.
13) इस ग़ज़ल के मतले के ऊला की बह्र देखें
.
2122 2122 2122 2
घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है ????
एक नदी जैसे दहानों तक पहुंचती है
सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में
बेज़ुबां सूरत , जुबानों तक पहुंचती है
अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है
चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुंचती है (तक़ाबुल-ए-रदीफ़ जैसा कुछ है शायद)
.
14)
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
.
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
.
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है
.
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है
(तक़ाबुल-ए-रदीफ़ जैसा कुछ है शायद)
.
15)
.
तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया.. हरसिंगार को हर-सिगार पढ़ा है.. सिगार के धुएँ से बह्र का दम घुट गया
पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया
.
अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया
.
16) क़ाफिये पर बात करेंगे तो हिंदी-उर्दू का बखेड़ा खड़ा कर देंगे भक्त-जन लेकिन जो ग़लत है वो ग़लत है
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
जरा-सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं
ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो
.
17) खैर.. ये सब तो चलता रहेगा... जितना घुसते जायेंगे उतना फँसते जायेंगे.. लेकिन अब सब से महत्वपूर्ण बात..
दुष्यन्त अपनी भूमिका में साफ़ लिखते हैं कि-" मैं स्वीकार करता हूँ…
—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.
—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है.... क्रमश:"
इस भूमिका के बाद दुष्यंत पर ये लाज़िम था कि वो अपनी सभी ग़ज़लों में शहर को शहर ही लें शह्र न लें ...
खेल अब शुरुअ होता है ..
.
A)कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए ( शहर -१२ )
.
B)ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर
कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए (शह्र - २१)
.
C) तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है (शह्र -२१)
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा
.
इन तीनों उदाहरणों से साफ़ है कि अपने एक शेर को सही ठहराने के चक्कर में दुष्यंत ने हिंदी-उर्दू में बैर किया..लेकिन दूसरे शेर में वो स्वयं सुविधाभोगी हो गए..स्वयं के नियम स्वयं ही न पाल सके...
कहानियाँ और भी हैं...
(दुष्यंत द्वारा इस्तेमाल की गयीं बह्रें ... हैडिंग को हास्यास्पद स्वयं दुष्यंत बना रहे हैं. हैडिंग होना था-दुष्यंत द्वारा तोड़ी-मरोड़ी गयीं बहरें )
इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ..
आदरणीय निलेश जी, आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद.
\\कहानियाँ और भी हैं...\\
आप अपनी बात पूरी कर लें. फिर सब पर एक साथ बात करना बेहतर होगा. तब तक मुझे और गुणीजनों की प्रतिक्रिया का भी इंतजार रहेगा.
सादर
आ. अजय जी,
मैं अंतिम लाइन में कह चुका हूँ .. ;))
आदरणीय निलेश जी, मोर का मूल्यांकन उसके पैरों से नहीं होता.
शायरी में जितने ऐब मुमकिन है सब मीर की शायरी में मौज़ूद हैं लेकिन इसके बावज़ूद वो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शायरों में से एक हैं. किसी भी शायर के मूल्यांकन का आधार ये नहीं होता कि उसने कितनी गलतियाँ की हैं देखा ये जाना चाहिए की उसने कितने कामयाब शेर कहे और उसके लेखन ने समाज और साहित्य को कितना प्रभावित किया. इस नज़रिए से देखा जाए तो हिंदी में अब भी दुष्यंत का कोई सानी नहीं है.
ये सब जानते हैं कि दुष्यंत की ग़ज़लों में अरूज़ी गलतियाँ हैं इस सन्दर्भ आपकी बातों में कुछ नया नहीं है. ज़ाहिर सी बात है कि दुष्यंत को मंजिल नहीं माना जा सकता लेकिन वो प्रस्थान बिंदु ज़रूर है.
'शहर' के प्रयोग को लेकर बहुत सारी जंगें लड़ी गईं है. जिनका अंत अंतत: भाषाई साम्प्रदायिकता के खड्ड में गिर कर होता है. तो मैं उस गली में नहीं जाऊँगा. दुष्यंत के प्रयोग का भविष्य ग़ज़लकारों द्वारा उसे अपनाने न अपनाने पर निर्भर करता है और यह कोई एक दिन मे तय होने वाली चीज नहीं है. इस सन्दर्भ में सिर्फ एक ही चीज तथ्य परक है जिसका ज़िक्र किया जा सकता है वो है एक शब्द का दो वज़न पर प्रयोग. 'बरकत' अरबी का शब्द है जिसका मूल वज़न 112 है लेकिन यह उर्दू शायरी में अक्सर अपने मूल वज़न के साथ साथ अक्सर 22 के वज़न पर बाँधा गया है. इस तरह के अरबी और फ़ारसी के बहुत से शब्द है जिनको दो वज़नों पर इस्तेमाल किया गया है.
बहरे-मीर एक स्वतन्त्र आलेख जल्द लिखने कि कोशिश करूगां जिसमें इससे जुड़ी सारी बातें साफ़ करने की कोशिश करूंगा.
हार्दिक आभार.
// मोर का मूल्यांकन उसके पैरों से नहीं होता.//
"कर बुलबुल-ओ-ताऊस की तक़लीद से तौबा
बुलबुल फ़क़त आवाज़ है, ताऊस फ़क़त रंग"
ताऊस--मोर
तक़लीद--पैरवी,किसी के क़दम ब क़दम चलना ।
बहुत ख़ूब! लेकिन जब साँप सामने हो तो बुलबुल से काम नहीं चलता, मोर की ज़रुरत होती है, दुष्यंत के सामने सत्ता का साँप था.
आ. मेरा कहना है कि आप जिसे मोर मान बैठे हैं वो मोर है भी या नहीं इसके लिए किसी पक्षी विशेषज्ञ का सहारा लेंगे या नहीं? वैसे मोर ठीक ही है... ज़ियादा उड़ान नहीं होती उसकी भी ..
मसअला ग़ज़ल का है .. इसलिए ये टिप्पणी की,, आप इसे दुष्यंत की कवितायेँ कहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है ..
ग़ज़ल है तो बहर पालनी ही पड़ेगी
67 में से 17 यानी एक चौथाई कथित ग़ज़लों का हश्र आप देख चुके हैं...
रही बात समाज पर प्रभाव की तो हन्नी सिंह का भी समाज पर जबरदस्त प्रभाव है... उसे भी शायर-ए- आज़म मान लीजिये...
शहर या शह्र की बहस में मैं भी नहीं जाता लेकिन भूमिका में उन्होंने स्पष्ट किया है कि उनका इरादा क्या है... इसके बाद ऐसी क्या विपत्ति आ गयी कि स्वयं के प्रण से विमुख होना पड़ा? कह देते कि मैं दोनों वज़न पर लूँगा...
कौन रोकता?
दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल का प्रस्थान बिंदु नहीं है अपितु नए हिंदी ग़ज़लकारों को ग़लत संस्कार देने की प्रथम पाठशाला से अधिक कुछ नहीं...
ग़ज़ल की कक्षा में सिर्फ ग़ज़ल की सही जानकारी होती तो बेहतर था... फिर बेबह्र कोई भी हो ... यहाँ नाम नहीं देखे जाते
अस्तु
आदरणीय निलेश जी, मोर का रूपक दुनिया के सारे शायरों के लिए इस्तेमाल किया गया है सिर्फ़ दुष्यंत के लिए नहीं. मीर के लिए हमें किसी पक्षी विशेषज्ञ की ज़रूरत नहीं है उन्हें ख़ुदा-ए-सुखन कहा गया है. आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने अपने एक लेख में सिर्फ़ एक बह्रे-मीर में मीर की 56 बह्र की गलतियाँ दिखाईं हैं. इनमें से कुछ पे बहस की जा सकती है कि वो गलतियाँ है या नहीं और कुछ ग़लतियाँ ऐसी भी हैं जो आरिफ़ साहब के लेख में नहीं आ पाई हैं लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता की मीर ने इस बह्र में बहुत गलतियाँ की हैं मिसाल के लिए ये मिसरा देखें :
सोचते आते हैं जी में पगड़ी पर-गुल रक्खे से - कुल्लियाते मीर ग़ज़ल सं.1574
22 22 22 22 22 22 22 2? आख़िर के फ़ा(2) के वज़न पर कुछ नहीं है.
इस तरह की बहुत सारी ऐसी गलतियाँ हैं जिनको नकारा नहीं जा सकता. तो क्या इस आधार पर इन ग़ज़लों को कविताएं कहा जाय? या मीर को शायर मानने से ही इन्कार कर दिया जाय? जबाब सिर्फ़ ना होगा. मीर इन सारी गलतियों के बावज़ूद इस बह्र के सर्वश्रेष्ठ शायर हैं.
बाकी बातों पर पुनः वापस लौटता हूँ .
सादर
आ. अजय जी
आपने मेरा काम आसान कर दिया..
आप उन से पूछिए जिन्होंने मीर को ख़ुदा बनाया...जैसे आप दुष्यंत को ख़ुदा बनाने पर तुले हुए हैं..
इस मंच पर मीर हों, ग़ालिब हों, दुष्यंत हों... सबके साथ समानता का व्यवहार किया जाता है,,,
यहाँ महत्व रचना का है, रचनाकार का नहीं..
मीर की हज़ारों ग़ज़लों में से कुछ शुरूआती ग़लत हो सकती हैं, माता के गर्भ से कोई सीख कर नहीं आता...
दुष्यंत की 67 में से 17 यहीं ग़लत पायी गयी...अत: दुष्यंत के मुक़ाबिल मीर को न लाइए..
दो ग़लत मिलकर भी एक सही नहीं हो सकेंगे... कम से कम यहाँ तो बिलकुल नहीं
आदरणीय निलेश जी,
न मीर किसी के ख़ुदा बनाने से बने थे न दुष्यंत बन सकते हैं.
ग़लतियाँ मीर की हर दौर की शायरी में है. मीर मेरे भी प्रिय शायर हैं. इसी लिए मैंने सबसे पहले मीर के शेर ही प्रस्तुत किये थे. उनकी ग़लतियों का जिक्र मैंने सिर्फ़ एक उदाहरण के तौर पर किया था. इस लिए आपको मीर को डिफेंड करने की कोई जरूरत नहीं है. यहाँ थोड़ा आपका समानता का व्यवहार करने वाला सिद्धांत हिलता हुआ नज़र आता है.
\\माता के गर्भ से कोई सीख कर नहीं आता...\\
दुष्यंत के बारे में भी आपको इसी नज़रिए से सोचना चाहिए था.
दुष्यंत की ग़ज़लगोई की अवधि सिर्फ़ पांच साल की है. उनके पास शायरी की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी. वो उर्दू नहीं जानते थे. ऐसे में ग़लतियों का होना स्वाभाविक था. इन सीमाओं को देखते हुए दुष्यंत की उपलब्धियां कम नहीं है. मीर जिस माहौल में पैदा हुए और पले बढ़े उस में हर तरफ शायरी ही शायरी थी. मीर की शायरी की अवधि लगभग 70 साल की है. मीर और दुष्यंत दोनों अलग प्रवृत्तियों के शायर थे. इस लिए दुष्यंत को मीर के मुकाबले में लाने का कोई औचित्य ही नहीं है. और जैसा की मैंने ऊपर भी लिखा है मीर का ज़िक्र मैंने उदाहरण के लिए किया है तुलना के लिए नहीं.
सादर
आदरणीय निलेश जी,
दुष्यंत ने अपनी भूमिका में कहीं नहीं लिखा कि वो 'शहर' के मूल वज़न का प्रयोग नहीं करेंगे. इस लिए इस पर जो भी बहसें होती हैं वो निरर्थक बहसें होती हैं. उनसे आज तक कोई फ़ायदा नहीं हुआ. जो उन्होंने जो कहा वो ये है :
"—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.
—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है."
हर रचनाकार स्वतन्त्र है कि वो शब्द को किस तरह बरते हम उसे सिर्फ़ सलाह दे सकते हैं उसे बाध्य नहीं कर सकते. और जो अब जीवित ही नहीं है उसका फैसला सिर्फ़ इतिहास ही कर सकता है.
आपात काल के दौरान दुष्यंत की ग़ज़लों की वज़ह से सारीका के कई अंक बैन कर दिए गए थे. और उस वक़्त के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र ने दुष्यंत को व्यक्तिगत रूप से धमकाया था. दुष्यंत के प्रभाव और उस प्रभाव की प्रकृति के विषय में लोग अच्छी तरह जानते हैं. इस लिए इस कोई टिप्पणी करना अनावश्यक है.
मैंने जहां तक मुमकिन है बह्र के नज़रिए से विवादस्पद शेर नहीं चुने हैं लेकिन जो एक-आध अनिवार्य शेर है उन्हें रख लिया गया है.
सादर
आ. अजय जी,
आप लिखा हुआ समझना न चाहें तो कोई क्या करे.. दुष्यंत अपनी भूमिका में साफ़ लिखते हैं
कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है."
यानी वो मानते थे कि शह्र को शहर लेना ठीक है.. तो बाकी जगह इस थोथी घोषणा का पालन क्यूँ नहीं किया.. क्या वो तब भूल गए कि वो उर्दू नहीं जानते?
रही बात उस दौर के राजनैतिक हालात की ..तो वो न ग़ज़ल का विषय है न अरूज़ का..
यह मंच उस चर्चा का स्थान नहीं है ...
आप उनकी विचारधारा से प्रेरित होकर उनकी ग़ज़लों के भक्त बनें लगते हैं तभी क्रिटिकल एनालिसिस से परेशान हो उठे हैं...
उस दौर में कई ग़ज़लकारों को ban किया गया होगा.. तो क्या इस से सभी को बेबह्र ग़ज़ले कहने का
हक मिल जाता है?.. चर्चा ग़ज़ल पर है और आप सियासत पर पहुँच गए... कमाल है ..
ये मेरी अंतिम टिप्पणी है... शायरों की बेबहर / अमानक रचनाओं को मैं ग़ज़ल नहीं मानता, न मान सकता हूँ..
आप मानते रहिये... जो ग़ज़लें दुरुस्त हैं,, उन्हें ही ग़ज़ल माना जाएगा ..
सादर
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