पहेली दिल की सुलझाऊँ तो कैसे
मैं इससे हार भी जाऊं तो कैसे।
लिपट जातें हैं पावों से बगूले
मैं बाहर दश्त से आऊँ तो कैसे।
पुकारे आसमां बाहें पसारे
परों बिन पास मैं जाऊं तो कैसे ।
धड़कता है वो दिल में दर्द बनकर
मैं उसको भूल भी जाऊं तो कैसे ।
गुलो पर बूँद मैं शबनम की बनके
हवा में फिर से घुल जाऊं तो कैसे।
उमड़ती ज़ह्ण में ख़्वाबों की नदियां
समन्दर मुट्ठी में लाऊँ तो कैसे
बदन पर पैरहन यादों का तेरा
नज़र…
Posted on December 29, 2015 at 10:00pm — 13 Comments
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सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
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