1222-1222-122
वो ये भी कह रही है सिसकियों में,
बहुत जल बह चुका है नद्दियों में !
युवा फूलों पे मँडराने को लेकर,
मची है होड़ क्वाँरी तितलियों में.
धुँए को चीरकर घुसने लगी है,
चिता की आग गीली लकड़ियों में.
नदी के साथ मीठी मछलियाँ भी,
पहुँच जाती हैं खारी मछलियों में !
कई महलों में रहने योग्य हीरे,
दमकते फिर रहे हैं झुग्गियों में.
ये ‘एस.एम.एस.’ करने वाली…
ContinuePosted on May 12, 2017 at 7:22pm — 7 Comments
अपने घर लौटा तो कोई था न स्वागत के लिए
घर के दरवाजों पे ताले थे शरारत के लिए
जब कहा मन ने तो ‘मोबाइल’ उठाकर बात की,
अब प्रतीक्षा कौन करता है किसी ख़त के लिए?
मैं बरी होकर भी दोषी हूँ स्वयं की दृष्टि में,
कुछ अलग कानून है मन की अदालत के लिए
बाहुबल से भी अधिक धन-बल जरुरी हो गया
हाँ, तभी जाकर जुटा जन-बल सियासत के लिए
अब न वैसे दोस्त हैं, परिजन भी अब वैसे नहीं,
आप किसके पास जायेंगे शिकायत के…
ContinuePosted on May 4, 2017 at 1:00am — 21 Comments
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प्रधान संपादकयोगराज प्रभाकर said…
ओपनबुक्स परिवार में आपका हार्दिक स्वागत है आ० ज़हीर क़ुरेशी साहिब!