बह रही थी एक नदी मेरे सपने में
रह गयी फिर भी प्यासी सपने में
जी रही थी इस दुनिया में मगर
देखती थी दूसरी दुनिया सपने में
करती थी इंतेजार उसका दिनभर
आता था जो आंसू पोछने सपने में
यकीन था आएगा वो पूरा करने
कर गया था वादे, जो सपने में
ढूढती हूँ एक वही चेहरा भीड़ में
बस गया था अक्श जिसका सपने में
काश ।अब सूरज ना निकले कभी
'शुभ' देखती रहे हरवक्त उसे सपने में
Added by shubhra sharma on January 11, 2013 at 10:00am — 17 Comments
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