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Neeraj tripathi's Blog – March 2011 Archive (5)

भावनात्मक दरारें

माता पिता की ज़ख्मों वाली पीठ,

को न सहलाना,

परिवार की मुस्कुराहटों में,

न मुस्काना,

दोस्तों की खामोशियों में,

चुप रह जाना,

अपनों के दिलों में,

न झाँक पाना,

हमारी मजबूरियां नहीं,

कमजोरियां हैं,

जो अक्सर अपने,

बंधनों के,

एक धागे को,

तोड़ जाती हैं,

भावनात्मक दरारें हैं ये,

नहीं भरो तो,

निशान छोड़ जाती हैं .



किसी शीतल सुबह,

अपनी हथेलियों में,

ओस की बूँदें भरो,

अपने अहं को कर किनारे,

उसमे मिलाओ,

प्रेम… Continue

Added by neeraj tripathi on March 26, 2011 at 3:25pm — 15 Comments

जागो, सितारे और भी हैं.

क्यों बैठ गए तुम थककर,
ओढ़ विफलताओं की चादर;
उठो, नतीजे और भी हैं.

इक घोंसला ही उजड़ा है,
चमन पूरा ही बाकी है;
जोड़ो, कि तिनके और भी हैं.

नदी के इक किनारे पर,
जो नाविक लौट न आया;
ढूंढो, किनारे और भी हैं.

तुम्हारे आँगन में तारा,
नहीं टूटा तो रोते हो;
जागो, सितारे और भी हैं.

Added by neeraj tripathi on March 11, 2011 at 11:30am — 3 Comments

वक़्त कुछ बहका है ऐसे

कल ही था कि जब छिपाकर, फेंक देते थे हम दातुन,

नीम क़ी कड़वी तबीयत, अब दवाई हो गयी है;

कल ही था जब जेठ क़ी, दुपहरी में हम गुल खिलाते,

गर्मियों क़ी दोपहर, अब बेईमानी हो गयी है;

आमों क़ी वे अम्बियाँ, थे हम कल जिनको चुराते,

बिकती हैं बाज़ार में वो, मेहरबानी हो गयीं हैं;

और ईखों की बदौलत, राब थे हम कल बनाते,

ताज़े गुड़ की भेलियाँ अब इक कहानी हो गयीं हैं.



वक़्त कुछ बदला है ऐसे,

जैसे फ़िल्मी गीतों में अब, नृत्य के अंदाज़ बदले;



कल तक लिखे जिन खतों… Continue

Added by neeraj tripathi on March 7, 2011 at 5:48pm — 12 Comments

प्रेम की अभिव्यक्ति खातिर

सोचता था कि सितारों, पर ज़मीं को साफ़ करके,

और चंदा को टिकाकर, मैं गगन के आसरे से,

कुछ चमन खाली बनाऊं, प्रेम कि अभिव्यक्ति खातिर.



चाहता था खोद डालूं , वृक्ष के भूतल किनारे,

कर दूँ समतल इस धरा के, मस्त से परबत ये सारे,

सोख कर सारा समंदर, और नदियों की रवानी,

कुछ धरा खाली सजाऊं, प्रेम की अभिव्यक्ति खातिर.



किन्तु चंदा और तारे, वृक्ष औ पर्वत हमारे,

सारी नदियाँ सागर सारे, ये दिशायें ये किनारे,

घोल लेते हैं हमें, हैं प्रेम की अभिव्यक्ति सारे.…

Continue

Added by neeraj tripathi on March 4, 2011 at 2:25pm — 4 Comments

कितने अरमान गूंजते थे जुगनुओं से रास्तों में

वक़्त की अठखेलियों से फिर जनाज़े हाय निकले;

एक पिंजरे में कुरेदा तो अनोखे भाव निकले;

कितने अरमान गूंजते थे जुगनुओं से रास्तों में;

सुर्ख थे नींदों में सारे जब जगा तो स्याह निकले.

 

जब जलज की पंखुड़ी पर अश्रु थामे तुम खड़े थे;

दुःख तो थोड़े थे हमारे किन्तु तुम कितने बड़े थे;

नीर था चारों तरफ फिर नाव क्यों चलती नहीं थी;

हम किनारे पर डुबे थे तुम तो दरिया पार निकले.

 

सोचता हूँ इस…

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Added by neeraj tripathi on March 2, 2011 at 11:12am — 5 Comments

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