एक नया नवगीत -जगदीश पंकज
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
जोर से जिसको
परिंदा तैर पायेगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर कैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
कांपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम ,छिपा है
आहटों में…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on April 24, 2014 at 8:57am — 7 Comments
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