धूमिल सपने हुए हमारे
रंगहीन सी
प्रत्याशाएँ
सोये-जागे सन्दर्भों की
फैली हैं
मन पर शाखाएँ
शंकायें तो रक्तबीज सी
समाधान पर भी
संशय है
अपने पैरों की आहट में
छिपा हुआ अन्जाना
भय है
किस-किसका अभिनन्दन कर लें
किस-किसका हम
शोक मनाएँ
सांस-सांस में दर्प निहित है
कुछ होने कुछ
अनहोने का
कुछ पाने की उग्र लालसा
लेकिन भय
सब कुछ खोने का
अनगिन संवत्सर बीते हैं
चुकी न कल्पित
जिज्ञासाएँ।
----जगदीश पंकज
मौलिक ,तथा अप्रकाशित
Comment
,रचना पसन्द करने तथा अभिमत प्रकट करने पर हृदयतल से आभार गिरिराज भंडारी जी , Saurabh Pandey जी -जगदीश पंकज
समाज का सुख या दुख वैयक्तिक नहीं होता. इसकी अनुभूति सामुहिक होती है. परन्तु, समाज का वर्ग विभाजन जिस ढंग से हुआ है वह वर्गों को परस्पर असंपृक्त हो जाने का कारण बन कर व्याप गया है. ऐसे में हेय मान लिये गयों तथा वंचितों के दर्द और उनकी सुप्त होती उम्मीदों को जिस तरह से आपने शब्द दिये हैं आदरणीय जगदीश प्रसादजी यह श्लाघनीय है. विशेषकर पहला बन्द विन्दुवत है.
आपके इस नवगीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
बहुत खूब सूरत रचना हुई है , आदरणीय जगदीश भाई , सभी की मानसिक स्थितियों को बयान करती लगी । हार्दिक बधाई
मिथिलेश वामनकर जी, Dr. Vijai Shanker जी, Shyam Narain Verma जी, डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , ajay sharma जी Hari Prakash Dubey जी ,रचना पसन्द करने तथा अभिमत प्रकट करने पर हृदयतल से आभार -जगदीश पंकज
आदरणीय जगदीश पंकज जी , //शंकायें तो रक्तबीज सी
समाधान पर भी
संशय है
अपने पैरों की आहट में
छिपा हुआ अन्जाना
भय है// सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई सादर !
kal kal bahti ,,,,jagmagate bimbo se saji is rachna ke liye .......adarniya .....bahut bahut shukriya
AADARNEEY
ATI SUNDAR I
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई |
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