मित्रों के अवलोकनार्थ एवं अभिमत के लिए प्रस्तुत एक ताज़ा नवगीत
"मौलिक व अप्रकाशित" -जगदीश पंकज
थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे
क्या किसी बदलाव के
संकेत हैं ये
फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है
या हमारी
शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है
मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के …
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on August 7, 2015 at 5:30pm — 9 Comments
रंगों के पर्व होली पर सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें -जगदीश पंकज
उड़ने लगा गुलाल,
अबीर हवाओं में
रंगों का त्यौहार
रंगीली होली है
मस्त हवा के
झोंकों ने अंगड़ाई ले
अंगों पर कैसी
मदिरा बरसाई है
मौसम की रंगीन
फुहारों से खिलकर
बजी बावरे मन में
अब शहनाई है
लगा नाचने रोम-रोम
तरुणाई का
मौसम ने मस्ती की
गठरी खोली है
रंगों की बौछारों ने
संकेत किया
रिश्तों की अनुकूल
चुहल अंगनाई में
जीजा-साली ,कहीं…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on March 5, 2015 at 11:20pm — 5 Comments
धूमिल सपने हुए हमारे
रंगहीन सी
प्रत्याशाएँ
सोये-जागे सन्दर्भों की
फैली हैं
मन पर शाखाएँ
शंकायें तो रक्तबीज सी
समाधान पर भी
संशय है
अपने पैरों की आहट में
छिपा हुआ अन्जाना
भय है
किस-किसका अभिनन्दन कर लें
किस-किसका हम
शोक मनाएँ
सांस-सांस में दर्प निहित है
कुछ होने कुछ
अनहोने का
कुछ पाने की उग्र लालसा
लेकिन भय
सब कुछ खोने का
अनगिन…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on February 12, 2015 at 8:30pm — 10 Comments
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज
तुम तक आ रही है ?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर -बहिष्कृत हम
रहें प्रतियोगिता से ,
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है ?
मानते हैं हम ,
नहीं सम्भ्रांत ,ना सम्पन्न,
साधनहीन हैं,
अस्तित्व तो है
पर हमारे पास…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 10, 2014 at 6:00am — 13 Comments
एक ताज़ा नवगीत -----जगदीश पंकज
मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक्क ,विस्मित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी
खुरदरापन ही भरा
जब जिंदगी की
हर सतह पर
फिर कहाँ से खोज
चेहरे पर सजे
लालित्य मेरे
जब अभावों के
तनावों के मिलें
अनगिन थपेड़े
तब किसी अवसाद
के ही चिन्ह
चिपकें नित्य मेरे
मुस्कराते फूल
हंसती ओस
किरणों की चमक से …
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on June 19, 2014 at 7:30pm — 34 Comments
एक नया नवगीत -जगदीश पंकज
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
जोर से जिसको
परिंदा तैर पायेगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर कैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
कांपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम ,छिपा है
आहटों में…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on April 24, 2014 at 8:57am — 7 Comments
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