एक नया नवगीत -जगदीश पंकज
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
जोर से जिसको
परिंदा तैर पायेगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर कैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
कांपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम ,छिपा है
आहटों में डर
तुम्हारे
अट्टहासों में
हमारे घाव की पीड़ा
कभी प्रतिकार भी लेगी
निकल अपनी
जगह से अब
सुना है उम्र
ज़ालिम की कभी
ज्यादा नहीं होती
सचाई को दबाने से
नहीं पहचान
वह खोती
समन्दर-न्याय
यह कैसा
हमारी सभ्यता कैसी
विसंगतियां मिटाने को
चलें, अगली
सुबह से अब
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
-जगदीश पंकज
Comment
मैं समूह का अभी सदस्य बना हूँ और अपनी रचना पोस्ट की। समूह में मेरी प्रथम रचना पर आई प्रतिक्रिया और सुझावों से अभिभूत हूँ कि समूह के सदस्य किसी रचना को इतनी गंभीरता से लेकर टिप्पणी करते हैं। सभी का ह्रदय से आभारी हूँ और सुझावों के अनुसार रचना पर पुनर्विचार करके संशोधन का प्रयास करूंगा। -जगदीश पंकज
सुप्रवाहित सुन्दर कविता प्रस्तुत हुई है आ० जगदीश जी
पंछी की विवशता के इंगित से काफी गहन बातें कहने का सार्थक प्रयास हुआ है ...बहुत बहुत बधाई
किन्तु नवगीत के मानकों पर यह रचना शिल्प तुष्ट नहीं करती.. मंच पर प्रस्तुत अन्य नवगीत अवश्य ही देखिये
सादर.
आदरणीय जगदीश जी, इस मंच पर आपकी पहली रचना प्रस्तुत हुई है. आपका सादर स्वागत है.
आदरणीय जगदीश जी ..नवगीत के बिषय में जानकारी नहीं है ..लेकिन गेयता के दृष्टी से बाधित लग रहा है ..कहीं कुछ कमी सी लग रही है ..एक पाठक की हैसियत से ही कह रहा हूँ ..हो सकता है मैं समझ्न पा रहा हूँ ..आपकी इस रचना को बधाई के साथ सादर
आदरणीय जगदीश भाई , नवगीत शिल्प के विषय मे मै नही जानता , मन मे आशा जगाती रचना के लिये बधाइयाँ ॥
सुझाव के लिए धन्यवाद coontee mukerji जी -जगदीश पंकज
जगदीश पंकज जी आपकी रचना में भाव विन्यास तो ठीक है लेकिन इस में और भी लालित्य की ज़रूरत है......सादर.
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