गर्व से सर उठाये
पर्वत की शिखरोँ को
सूर्य की किरण, सर्वप्रथम
व अंतिम किरण, अंत तक
निज दिन चूमती है
परंतु चकित हूँ
यह फिर भी हरित नहीँ होती
हरित होती हैँ घाटियाँ
जीवन वहीँ विचरता है
किँचित यह ओट देने का श्राप है
अथवा दमन का प्रतिशोध
कि जल की एक बूँद नहीँ ठहरती यहाँ
जल स्त्रोत इसी गोद मेँ जन्म ले
पलायन कर जाते हैँ
हवा की सनसनाहट
बादलोँ की गडगडाहट
के अतिरिक्त कोई स्वर नहीँ…
ContinueAdded by Mohinder Kumar on May 7, 2015 at 3:45pm — 3 Comments
कभी गलियारे मेँ यादोँ के
कभी बँजारे बन राहोँ पर
न जाने क्या ढूँढते हैँ हम
भूलाना था जिसे हमको
वही सब याद करते हैँ
रेत के भँवर मेँ डूबते हैँ हम
कभी मौसम जो भाते थे
और मँजर जो लुभाते थे
उन्हीँ से आज ऊबते हैँ हम
न आने वाला है अब कोई
न मनाने वाला है अब कोई
खुद से जाने क्योँ रूठते हैँ हम
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Mohinder Kumar on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments
ऐ दिल
ख्वाबोँ की बस्ती से
निकल चल तो अच्छा हो
ये वो रँग हैँ
बिगाड देँगे जो
जिंदगी की तस्वीर
को तेरी
ले समझ
उस क्षितिज से आगे
है और भी दुनिया
सरकती जाती है सीमायेँ
और राहेँ साथ चलती हैँ
हर सजग राही की
बन चेरी
है गम
हार का अच्छा
न जश्न
किसी जीत का बेहतर
हवाओँ के रुख के साथ
बदलती रह्ती है
मरु मेँ रेत की
ये ढेरी
मौलिक…
ContinueAdded by Mohinder Kumar on November 10, 2014 at 12:30pm — 4 Comments
क्या क्या मँशा उनसे बैठे पाले लोग
क्या करते हैँ सत्ता के ठैले वाले लोग
यहाँ दिन भर खटकर चुल्हा जलता
कुछ जनता की खाते बैठे ठाले लोग
सरकारेँ बनती पूँजीपतियोँ के पैसे से
ताकत वोट की समझेँ भोले-भाले लोग
कुछ सालोँ बाद हवा खुद बदलती है
बुझा पुरानी नई मशाल सँभालेँ लोग
कुर्सी पर बैठे लोगोँ के हैँ ऊँचे सपने
जनता को सपने बेचेँ कुर्सी वाले लोग
देश विदेश के दौरे हैँ उनकी…
ContinueAdded by Mohinder Kumar on November 7, 2014 at 3:30pm — 5 Comments
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