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Mohinder Kumar's Blog (4)

एक पर्वत की व्यथा - कविता

गर्व से सर उठाये

पर्वत की शिखरोँ को

सूर्य की किरण, सर्वप्रथम

व अंतिम किरण, अंत तक

निज दिन चूमती है

परंतु चकित हूँ

यह फिर भी हरित नहीँ होती

हरित होती हैँ घाटियाँ

जीवन वहीँ विचरता है

किँचित यह ओट देने का श्राप है

अथवा दमन का प्रतिशोध

कि जल की एक बूँद नहीँ ठहरती यहाँ

जल स्त्रोत इसी गोद मेँ जन्म ले

पलायन कर जाते हैँ

हवा की सनसनाहट

बादलोँ की गडगडाहट

के अतिरिक्त कोई स्वर नहीँ…

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Added by Mohinder Kumar on May 7, 2015 at 3:45pm — 3 Comments

भटकन – कविता

कभी गलियारे मेँ यादोँ के

कभी बँजारे बन राहोँ पर

न जाने क्या ढूँढते हैँ हम

 

भूलाना था जिसे हमको

वही सब  याद करते हैँ

रेत के भँवर मेँ डूबते हैँ हम

 

कभी मौसम जो भाते थे

और मँजर जो लुभाते थे

उन्हीँ से आज ऊबते हैँ हम

 

न आने वाला है अब कोई

न मनाने वाला है अब कोई

खुद से जाने क्योँ रूठते हैँ हम

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Mohinder Kumar on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments

रेत की ढेरी - कविता

ऐ दिल

ख्वाबोँ की बस्ती से

निकल चल तो अच्छा हो

ये वो रँग हैँ

बिगाड देँगे जो

जिंदगी की तस्वीर

को तेरी

 

ले समझ

उस क्षितिज से आगे

है और भी दुनिया

सरकती जाती है सीमायेँ

और राहेँ साथ चलती हैँ

हर सजग राही की

बन चेरी

 

है गम

हार का अच्छा

न जश्न

किसी जीत का बेहतर

हवाओँ के रुख के साथ

बदलती रह्ती है

मरु मेँ रेत की

ये ढेरी

 

मौलिक…

Continue

Added by Mohinder Kumar on November 10, 2014 at 12:30pm — 4 Comments

कुर्सी वाले लोग

क्या क्या मँशा उनसे बैठे पाले लोग

क्या करते हैँ सत्ता के ठैले वाले लोग

 

यहाँ दिन भर खटकर  चुल्हा जलता

कुछ जनता की खाते बैठे ठाले लोग

 

सरकारेँ बनती पूँजीपतियोँ के पैसे से

ताकत वोट की समझेँ भोले-भाले लोग

 

कुछ सालोँ बाद हवा खुद बदलती है

बुझा पुरानी नई मशाल सँभालेँ लोग

 

कुर्सी पर बैठे लोगोँ के हैँ ऊँचे सपने

जनता को सपने बेचेँ कुर्सी वाले लोग

देश विदेश के दौरे  हैँ उनकी…

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Added by Mohinder Kumar on November 7, 2014 at 3:30pm — 5 Comments

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