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रेत की ढेरी - कविता

ऐ दिल

ख्वाबोँ की बस्ती से

निकल चल तो अच्छा हो

ये वो रँग हैँ

बिगाड देँगे जो

जिंदगी की तस्वीर

को तेरी

 

ले समझ

उस क्षितिज से आगे

है और भी दुनिया

सरकती जाती है सीमायेँ

और राहेँ साथ चलती हैँ

हर सजग राही की

बन चेरी

 

है गम

हार का अच्छा

न जश्न

किसी जीत का बेहतर

हवाओँ के रुख के साथ

बदलती रह्ती है

मरु मेँ रेत की

ये ढेरी

 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 12, 2014 at 10:52am

मन को ख़्वाबों से निकल कर, पल-पल मरु में रेत की ढेरी सी बदलती ज़िंदगी का सजगता से अवलोकन करने का आह्वाहन करती सुन्दर अभिव्यक्ति 

हार्दिक बधाई आ० मोहिंदर कुमार जी 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 11, 2014 at 10:40am

है गम हार का अच्छा

जश्न किसी जीत का बेहतर

हवाओँ के रुख के साथ

बदलती रह्ती है

मरु मेँ रेत की ये ढेरी ----------यथार्थ और सार्थक कथ्यों की प्रस्तुती  के लियी बधाई

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 11, 2014 at 8:33am

बहुत ही सुंदर लिखा आपने आदरणीय मोहिन्दर जी. सच ही तो है जड़ें तो जमीन पर ही बन सकती है. बधाई स्वीकारें


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 10, 2014 at 6:33pm

अति सुन्दर अभिव्यक्ति आ० मोहिन्दर कुमार जी।

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