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यूँ तुझपे हक़ मेरा कुछ भी नहीं है
मगर दिल भूलता कुछ भी नहीं है

तेरी बातें भी सारी याद है पर
कहा तेरा हुआ कुछ भी नहीं है

तेरी आंखों में है गर कोई मंजिल
तो फिर ये रास्ता कुछ भी नहीं है

ग़ज़ल अपनी कलम से खुद ही निकली
तसल्ली से लिखा कुछ भी नहीं है

मेरा अफसाना जो तुम पढ़ रहे हो
ये कुछ लायक है या कुछ भी नहीं है

नज़र जिसमें तेरी सूरत न आये
यहाँ इतना नया कुछ भी नहीं है

ख़ुदा का तो इरादा कुछ हो लेकिन
मुझे अब सूझता कुछ भी नहीं है

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on April 7, 2020 at 12:24pm

हार्दिक आभार आदरणीय प्रयास जारी रहेगा आशीर्वाद बनाए रखें

Comment by Samar kabeer on April 6, 2020 at 4:18pm

जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

ये देख कर प्रसन्नता हुई कि कुछ शब्दों में आपने नुक़्ते लगाए हैं,लेकिन कुछ शब्दों में नुक़्ते नहीं लगे हैं,और कोशिश करें ।

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