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गज़ल:खुदाई जिनको

खुदाई जिनको आजमा रही है,
उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.

शजर कैसे तरक्की का हरा हो,
जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.

राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,
बगल में जिनके छुरी भा रही है .

कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,
हमारी अस्मिता को खा रही है.

तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,
सियासत माफिया को भा रही है.

हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,
ज़हर भी साथ अपने ला रही है .

शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,
गरीबी और बढती जा रही है.

बिना लंगर सफर को निकली कश्ती ,
भंवर में आज खुद को पा रही है.

चलो विद्रोह का छेड़ें तराना ,
ये सत्ता राग मद के गा रही है.

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Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on October 1, 2010 at 4:36pm
बिना लंगर सफर को निकली कश्ती ,
भंवर में आज खुद को पा रही है.

अरुण जी नमस्कार...अच्छी रचना है....खूबसूरती से साथ कही गयी एक एक शेर मुझे पसंद आया...वाकई ज़ोरदार रचना है.....
Comment by आशीष यादव on September 28, 2010 at 4:49am
Ishq mohabbat se nikal kar aaj ki duniya par yah khubsurat ghazal h. Dhanyawad swikar kare.
Comment by Abhinav Arun on September 27, 2010 at 3:03pm
पूजा जी और बागी जी को धन्यवाद ! अपने पढ़ा और टिप्पणी भी की .इससे यकीनन हौसला बढ़ता है .
Comment by Pooja Singh on September 27, 2010 at 11:44am
अरुण जी ,
नमस्कार बहुत बढिया गजल है , ये पंक्ति ज्यादा अच्छी लगी |{हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,
ज़हर भी साथ अपने ला रही है .}
Comment by chetan prakash on September 27, 2010 at 6:33am
'जिनके हाथों में चाक -बत्ती न थी, उनके हाथों में उनके हाथों में रौशनी आ गई
जिनके हाथों में होंसला न था , उनके हाथों में लाल -बत्ती आ गई 'abhinav'

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 26, 2010 at 1:39pm
बिना लंगर सफर को निकली कश्ती ,
भंवर में आज खुद को पा रही है.

बहुत ही सुंदर ख्यालात के साथ कही गई यह शेयर मुझे काफी प्रभावित किया, पूरी ग़ज़ल खूबसूरती से कही गई है , एक बार पुनः दाद और बधाई स्वीकार करे |

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