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देहरी लांघ चली
आशाएं
मुंह बाएं प्रीत
भगोना
अँखुवाती भर देह
विवशता
जिद अपनी छोड़े ना

आदिम सब

चट्टान पसीजे

प्रणय पीसता

चक्‍की सा

रेशा-रेशा

बिखरा अग-जग

देह दशा भी

शक्‍की सा

 

टूट रहा जो अंदर-भीतर

वो क्‍योंकर जोड़े ना ?

 

भेद भरे ये

मौसम, बादल

ढाढ़स कहां

बंधाते हैं

घनीभूत कुछ

लवण अचानक

घावों पर

रख जाते हैं

 

धारा जो विकराल विषहरा

क्‍यूं उसको मोड़े ना ?

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on July 21, 2013 at 7:10am

बहुत ही सुन्दर! आपकी रचनाओं को पढ़ना बहुत ही आनन्ददायक अनुभूति होती है। मन को तृप्ति मिलती है। यह रचना भी वैसी ही है।
इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई और आपके लेखन को नमन!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 19, 2013 at 5:12pm

"सुंदर रचना पर, तहे दिल से बधाई..आदरणीय..राजेश जी

Comment by वेदिका on July 19, 2013 at 4:11pm

भेद भरे ये

मौसमबादल

ढाढ़स कहां

बंधाते हैं

विवशता का नवगीत!!

बधाई स्वीकारिये आदरणीय राजेश जी!! 

Comment by Shyam Narain Verma on July 19, 2013 at 3:33pm
बहुत खूब  ...................
Comment by annapurna bajpai on July 19, 2013 at 12:49pm

 bahut khub . rajesh jha ji .

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