बंजर बादल चूम रहे हैं
फिर से प्रेत शिलाएं
लोकतंत्र की
लाश फूलती
गंध भरे
गलियारों में
यहां-वहां बस
काग मचलते
तुष्ट-पुष्ट
ज्योनारों में
नित्य बिकाउ नारे लेकर
चलती तल्ख हवाएं
गंगा का भी
संयम टूटा
वक्र बही
शत धारों में
क्षुब्ध, कुपित
पर्वत, हिमनद भी
कह गए बहुत
ईशारों में
पछताते चरणों से लौटी
कितनी विकल दुआएं
निरा अकेला
विक्रम आकर
क्या कर लेगा
ऐसे में
बत्तीसी की
सभी पुतलियां
सिमट चुकी
हम जैसे में
मूक -शिथिल है आज सभी कुछ
हंसती वैताल कथाएं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
behtreen sir ji .........kya baat hai anupam rachna hetu badhaai aapko saadar
बहुत ही उम्दा
आदरणीय विजय निकोर जी एवं बृजेश जी, आपका हार्दिक आभार, सादर
सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय।
विजय निकोर
वाह आदरणीय! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीया प्राची जी, आपको रचना अच्छी लगी, मन आश्वस्त हुआ, ना चाहते हुए भी आक्रोश की अभिव्यक्ति स्वत: ही कभी-कभी ऐसे हो जाती है, आप हमेशा ही मार्गदर्शन करती रही हैं जो मुझे बहुत कुछ सीखने की दिशा में अग्रसर करती रहती है, सादर
आदरणीय डॉ0 आशुतोष जी, सुमित नैथानी जी, अरून जी आप सबका हार्दिक आभार, सादर
आदरणीय सौरभ जी, आपका इंगितार्थ मैं समझ गया, कोशिश जरूर करूंगा कि सिपिया या सफेदा ही चखने को मिले, सादर
आदरणीय राम शिरोमणि जी एवं केवल जी, रचना को समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीय राजेश भाई जी बहुत ही सुन्दर समसामयिक रचना , भाव बहुत ही रोचक है पढ़कर मजा आया. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
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