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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४१ (ओ मेरी महानायिका)

पीड़ा ने जब कभी

शब्दों के दंश बनकर तुम्हें डंसना चाहा

प्रेम ने स्मिति बनकर अधरों को बाँध लिया...

 

उपेक्षाओं ने जब कभी

तुम्हारे जीवनपर्यंत त्याग का प्रण लिया  

स्मृतियों की अलकों के आलिंगन ने और भी जकड़ लिया...

 

भावनाओं के उद्रेकों ने जब कभी

भावुकता से काम लिया

तुम्हारी परिस्थितिजन्य उदासीनता ने

मेरे विवेक को थाम लिया.....

 

मेरे जीवन में न होकर भी होने वाली

ओ मेरी महानायिका!

हमारा प्रेम

हमारे ह्रदय की मूक चीत्कारों और

परिस्थियों के विपर्यय के सामंजस्य का

कैसा अद्भुत कथ्य है!

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, मंगलवार ०६/०८/२०१३

पूर्वाह्न्न ११.५३

'मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना'

Views: 319

Comment

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Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2013 at 7:36pm

आदरणीया महिमाजी, रचना को पसंद करने एवं आपकी बधाई का हार्दिक धन्यवाद! 

Comment by MAHIMA SHREE on August 7, 2013 at 12:11pm

उपेक्षाओं ने जब कभी
तुम्हारे जीवनपर्यंत त्याग का प्रण लिया
स्मृतियों की अलकों के आलिंगन ने और भी जकड़ लिया...सुंदर अभिवयक्ति। । आदरणीय राज नवादवी जी बधाई आपको

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