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एक शोकगीत (राजेश'मृदु')

माते ! मैं ही रहा अभागा

जो तुझको सुख दे न सका

पावन तेरी चरण-धूलि तक

अपने हित संजो न सका

भर नथुनों में अमर गंध तू

ठाकुर का मेहमान हुई

सित फूलों की उस घाटी में

अमर ब्रह्म मुदमान हुई

औ तेरा यह पारिजात मां

गलित गात, क्षत शाख हुआ

खेद-स्‍वेद के तीक्ष्‍ण धार से

गलता-जलता राख हुआ

करूणे ! तेरा वृथा पुत्र यह

तेरी रातें धो न सका

धन,बल,वैभव खूब सहेजा

पर तुझको संजो न सका

मेरा पाप वह मुझे परखता

विधि वाम क्‍या रोष करूं

दग्‍ध प्राण के इस विलाप पर

हा ! कैसे संतोष करूं

पतित छन्‍द मैं रहा नम्‍यते

भाव दूब तक बो न सका

सुखदे , तेरे मलयांचल में

छुपकर भी तो रो न सका

हो क्षुब्‍ध, देह यह छोड़ सकूं

इसका भी अधिकार कहां ?

देव करो अब वज्रपात ही

हुआ असह धिक्‍कार यहां

जो बोया कल, आज मिला मां

दंभ मेरा मैं खो न सका

कौन मेरा विश्‍वास करेगा

तेरा ही जब हो न सका

(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by राजेश 'मृदु' on October 31, 2013 at 2:25pm

आपकी उपस्थिति एवं सरस अभिव्‍यक्ति हेतु हार्दिक आभार आदरणीया अन्‍नपूर्णा जी, सादर

Comment by annapurna bajpai on October 30, 2013 at 6:08pm

पतित छन्‍द मैं रहा नम्‍यते

भाव दूब तक बो न सका

सुखदे , तेरे मलयांचल में

छुपकर भी तो रो न सका........................... सुंदर और समर्पित पंक्तियाँ , भावपूर्ण समूची कविता , बहुत बधाई आपको , आ0 राजेश मृदु जी । 

Comment by राजेश 'मृदु' on October 30, 2013 at 4:58pm

आपके सुझाव हेतु सादर आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

Comment by राजेश 'मृदु' on October 30, 2013 at 4:57pm

आपकी उपस्थिति के लिए हार्दिक आभार सुशील जोशी जी, सादर

Comment by Sushil.Joshi on October 29, 2013 at 9:58pm

आदरणीय राजेश भाई जी... माँ की विरह में जिस प्रकार यह गीत कहा गया है वह निश्चित रूप से उत्कृष्ट है..... बहुत बहुत बधाई इस गीत के लिए..... शब्द संचयन बहुत ही सुंदर है..... शीर्षक के चुनाव के विषय में आ0 गिरिराज जी से मैं भी सहमत हूँ..... शोक एवं पछतावे में अंतर आप भी जानते हैं.... यद्दपि आपने कहा है कि यह लेखक के शोक से उपजी हुई रचना है मगर फिर भी एक बार शीर्षक पर फिर से विचार कीजिएगा.....


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Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2013 at 5:53pm

आदरणीय राजेश भाई , शीर्षक तो वैसे रचनाकार के ही अधिकार क्षेत्र की बात है फिर भ्र्री आपने पूछा है तो भावों को देखते हुये -------- पश्चाताप , या पछतावे का दर्द ( की वेदना ) या ऐसा ही कुछ रखना उचित होगा !!!!

Comment by राजेश 'मृदु' on October 29, 2013 at 5:13pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय विजय मिश्र जी,  स्‍नेह बनाए रखें, सादर

Comment by विजय मिश्र on October 29, 2013 at 4:05pm
अत्यन्त करूण प्रलाप ,ईश्वर और विदेही इस रचना के क्षमायाचना भाव को स्वीकारे और पश्चाताप मुक्त जीवन दें . यह संताप मन का है ,बिछोह में अकारण अपने त्रुटियों के खढ अपनी आँखों में उगने और चुभने भी लगते हैं .
Comment by राजेश 'मृदु' on October 29, 2013 at 3:30pm

आदरणीय गिरिराज जी, यह लेखक के शोक से उपजी हुई रचना है इसी कारण मैंनें इसे शोकगीत कहा । एक तरफ तो वह माता के चले जाने से व्‍यथित है दूजे, उनके लिए कुछ ना कर पाने की भी व्‍यथा है । चूंकि दोनों चीजें साथ-साथ चलती है । वैसे दूसरा कोई उपयुक्‍त शीर्षक सुझाने का कष्‍ट करें तो बड़ी कृपा होगी, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on October 29, 2013 at 3:26pm

आदरणीय विशाल 'चर्चित' जी आपने ध्‍यान ने रचना को पढ़ा एवं त्रुटि की ओर ध्‍यान आकृष्‍ट किया इस हेतु आभार 'ठाकुर का मेहमान हुई' ही होना चाहिए था यहां, सादर

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