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मै तो बलिहारी............'जान' गोरखपुरी

२१२ २२१२ १२१२

मै तो बलिहारी,अमीर हो गया

इश्क़ में रब्बा फकीर हो गया

***

मेरे रांझे का मुझे पता नही

बिन देखे ही मै तो हीर हो गया

**

उसके जलवे यूँ सुने कमाल के

दिलको किस्सा उसका तीर हो गया

***

शिवशिवा घट-घट मुझे पिलाओ अब

तिश्न मै वो गंग नीर हो गया

**

उसको पहनूं धो सुखाऊँ रोज मै

लाज मेरी अब वो चीर हो गया

***

गाऊँ कलमा मै सुनाऊँ दर-ब-दर

‘’जान’’ज्यूँ मै कोई पीर हो गया

******************************************

मौलिक व अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 3, 2015 at 8:34pm

बहुत बहुत आभार आ० 'इंतजार' सर! आप की टिपण्णी पाकर मन को बहुत संतुष्टि मिलती है,अपनी बात मै सही ढंग से कह पाया या नही इसका आभास मुझे आपकी टिपण्णी से हो जाता है!मार्गदर्शन के लिए आभारी हूँ!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 3, 2015 at 8:28pm

आदरणीय समर कबीर जी आपसे गज़ल पे दाद मिलना किसी उपलब्धि से कम नही है,बहुत बहुत आभार!गजल पर आपके सुझाव और मार्गदर्शन का भी मै आकान्छी हूँ!सादर!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 3, 2015 at 8:26pm

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी बहुत बहुत आभार आपके उत्साहवर्धन और रचना के अनुमोदन के लिए!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 3, 2015 at 4:35pm

वाह वाह क्या ख़ूब शेर हैं ...बधाई ...सादर 

उसके जलवे यूँ सुने कमाल के

दिलको किस्सा उसका तीर हो गया

Comment by Samar kabeer on April 3, 2015 at 3:26pm
जनाब "जान" गोरखपुरी जी,आदाब,सुन्दर ग़ज़ल के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 3, 2015 at 12:05pm

सुंदर  और  उम्दा  भाव  रचित  गजल  के  लिए  हार्दिक  बधाई 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 2, 2015 at 9:02pm

आ० shyam mathpal जी हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 2, 2015 at 8:59pm

आदरणीय! गोपाल सर आपकी उपस्थिति सदैव लाभान्वित करती है!आ० आपकी बातों से बहुत हद मै भी सहमत हूँ---

जैसे- ''बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय''

लेकिन ये गज़ल  ''मुसल्सल ग़ज़ल'' के रूप में चौथे शेर में अपनी बात पूरी करते हुए बलिहारी को पूर्णता देती मणि जा सकती है!

रब्त की बात पे यही कहना चाहूँगा के ''इश्क में फकीर होना ही शेर में अमीर  होना है! और मुझपे ये करम खुदा ने किया है इसलिये मै उसपे  बलिहारी हूँ!''

देखे में मुझे भी संशय है 'दिखे' के रूप में मात्रा गिरा सकते है शायद! सादर!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 2, 2015 at 8:37pm

आदरणीय गिरिराज सर! रचना को मान देने के लिए बहुत बहुत आभार! मिथिलेश सर की बात को जहाँ तक मै सहमत हूँ वह इंगित कर दिया है! गज़ल का सबका अपना एक कहन का तरीका होता है,जरुरी नही उस कहन को अगला पकड़ ले,और अगर नही पकड़ पायेगा तो ऐसा ही प्रतीत होगा की जैसे बह्र को जबरदस्ती निभाया ही जा रहा है---

कहन पे मुझे ''ग़ालिब'' का शेर याद आ रहा है!.........

शायद यूँ है के...

न था कुछ तो खुदा था,कुछ न होता तो खुदा होता

डुबोया मुझको होने में ,मै न होता तो क्या होता

इस कहन को अगर हम किसी नवोदित रचनाकार की रचना के रूप में ले! तो उसे मेरे ख्याल से उसे कुछ पागल ही घोषित कर दे,और ग़ालिब के ज़माने में उन्हें कहा भी गया! खैर मेरा इस संदर्भ को लेना बस इसलिये है.जो कहन किसी एक का है.जरुरी नही दूसरा वही कहाँ अपनाये! तरन्नुम के अनुसार तो कहन बहुत ही अलग हो सकता है,जो किसी और के लिए तो बिल्कुल ही बेतुका भी लग सकता है,मैंने बस अपनी बात रख्खी है,इसे अन्यथा न लिया जाये !निश्चय ही मुझे बहुत कुछ अभी सीखना है,अभी तो मैं पहले ही पायदान पे ही हूँ!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 2, 2015 at 8:24pm

आ० vijai shankar सर! सराहना के लिए बहुत बहुत आभार!!

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